Saturday, November 23, 2024
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जिशपिशा से शुरू होकर जन्दोई तक लगभग एक हफ्ते मनाई जाती है जौनसार-बावर क्षेत्र की बूढी दीवाली।

जिशपिशा से शुरू होकर जन्दोई तक लगभग एक हफ्ते मनाई जाती है जौनसार-बावर क्षेत्र की बूढी दीवाली।

(मनोज इष्टवाल)

दीवाली के ठीक एक माह बाद शुरू होने वाली जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर की यह अनोखी दीवाली सिर्फ जौनसार बावर ही नहीं बल्कि टोंस और यमुना से लगे क्षेत्र में भी पुरानी दीवाली के ढोल नृत्य और गाजे बाजों की घमक सुनाई दे रही है। जहाँ टोंस नदी (तमसा से लगा) के पार पौंटा से लेकर सिलाई, रोहडू चोपाल तक हिमाचल के क्षेत्र में यह दीवाली खूब जोश से मनाई जाति है वहीँ यमुना घाटी के जौनपुर और रवाई क्षेत्र में भी इसे बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन जौनसार बावर की बात ही निराली है। गढ़वाल के कतिपय हिस्से में इसे बग्वाल कहा जाता है।

यूँ तो यह दीवाली हफ्ते भर चलती है लेकिन वास्तव में इसका स्वरुप पांच दिन का है। इन पांच दिनों की दीवाली इस तरह मनाई जाती है:-
पांच दिन तक मनाए जाने वाले इस दीवाली पर्व के पहले दिन जिशपिशा त्योहार, दूसरे दिन रणद्याड़ा, तीसरे दिन औंस यानि बड़ी दीवाली, चौथे दिन बराज-बिरुड़ी व कैइलू व काली की जातर, पांचवे दिन जंदोई त्योहार होता है। डिबसा ….जंगल से पेड़ ! 15 दिन पहले यानि कृष्ण पक्ष की प्रथमा होले

जिशपिशारणद्याड़ा त्योहार को छोड़ औंस (अमावस्या) की रात्रि को आसपास के लोग मंदिर व पंचायत आंगन में एकत्र होकर चीड़ की लकड़ी से बने होले यानि मशाल जलाकर होलियाच निकालते हैं। अमावस्या की रात को गांव के पुरुष व महिलाएं अलग-अलग स्थानों पर ढोल, दमाऊ , रणसिंघे की थाप पर हारुल के साथ तांदी नृत्य कर दीवाली का जश्न मनाते हैं। बिरुडी के दिन गांव की महिलाएं व पुरुष एक दूसरे को अखरोट व च्यूड़ामूडी देकर दीवाली पर्व की बधाई देते हैं। जंदोई के दिन कुछ गांवों में काठ का हाथी और कहीं पर हिरन का नाच होता है। परंपराओं को तोड़ जमाने के साथ दीवाली मनाने की मुख्य वजह नौकरीपेशा लोगों के सालभर में एक बार छुट्टी पर घर आना और महिने बाद कड़ाके की ठंड से बचना प्रमुख कारण है।

लेकिन अफ़सोस कि अब बावर क्षेत्र के कतिपय इलाकों में बूढी दीवाली मनाने की परंपरा समाप्त सी हो गई है जबकि मैं सन 2003 में चिल्हाड गॉव में मनाई जाने वाली बूढी दीवाली को डिस्कबरी, स्टार न्यूज़ और आजतक में दिखा चूका हूँ, लेकिन बदलते परिवेश से इस क्षेत्र के वासी चिंतित हों न हों लेकिन मैं अवश्य चिंतिंत हूँ क्योंकि हम अपनी लोकसंस्कृति के उस स्वरुप को खो रहे हैं जो ईश्वरतुल्य है।

बदलते सामजिक परिवेश के कारण ही खत-बावर, देवघार, बाणाधार, मशक क्षेत्र के महासू मंदिर हनोल, मैंद्रथ, रायगी, अणू, मुंधोल, बास्तील, कूणा, बृनाड़, चिल्हाड़, भंद्रोली, चांजोई, डूंगरी, त्यूना, हटाड़, कोटी-कनासर, संताड़, रजाणू, सैंज, अमराड़, केराड़, नायली, किस्तुड़, सारनी, जबराड़, रडू शिलवाड़ा समेत पांच दर्जन से ज्यादा गांवों में लोग देशवासियों के साथ नई दीवाली मना रहे हैं।

वहीं दूसरी ओर आज भी जौनसार, कांडोई-बोंदूर, शिलगांव, कांडोई-भरम, बुल्हाड़, बेगी, बागनी, बायला, उदावा, लोहारी, सिजला, लाखामंडल, मंगटाड़, नौरा, कावा खेड़ा, आसोई, जगथान, बुराइला, रंगेऊ, साहिया, क्वानू समेत दो सौ से अधिक गांवों में लोग ठीक एक माह बाद बूढ़ी दीवाली मनाने की परंपरा है।

एक प्रश्न…!

जौनसार बावर के मित्र क्या यह बताने का कष्ट करेंगे कि मुझे किस गॉव जाना चाहिए जहाँ में पारंपरिक भेष भूषा (चूड़ा-जंगेल इत्यादि) के साथ दीवाली का लुफ्त उठा सकूँ?

जौनसार की अनोखी दीवाली के अनोखे रंग! दीवाली के एक माह बाद क्यों मनाई जाती है जौनसार बावर में दिवाली?

उत्तराखंडी लोक संस्कृति की अभी भी साँसे जीवित हैं। धड़कनों में जो उल्लार व प्यार भरा है वह ढोल की घमक क़दमों की चाप और मुंह से फूटते बोलों में एक ऐसा जीता जागता उदाहरण है क़ि सचमुच हर कोई इसे न सिर्फ भरपूर आँखों से निहारना चाहता है बल्कि मन होता है क़ि खुद भी इस रंगत में रंगीन होकर मदमस्त नाचूं और गायूं । लेकिन कैसे यही एक यक्ष प्रश्न है?

इस यक्ष प्रश्न का जबाब अगर कभी ना मिले तो देहरादून जिले के टोंस (तमसा) व यमुना नदी के बीच घिरे जन जातीय क्षेत्र में चले आये विशेषकर तब जब यहाँ कोई लोकोत्सव मनाये जा रहे हों। यहाँ की दीवाली इन्हीं लोकोत्सव में एक विचित्र व अनोखी इसलिए है कि क्योंकि यह पूरे देश में मनाई जाने वाली दीवाली से ठीक एक माह बाद एक हफ्ते तक मनाई जाती है।

इसके पीछे तर्क यहाँ के जनमानस तर्क देते हैं क़ि पुरुषोत्तम राम के राजतिलक की जानकारी यहाँ एक माह बाद पहुंची इसलिए यह एक माह बाद मनाई जाती है। दूसरा तर्क यह क़ि यहाँ खेती का काम देरी से निबटने के कारण यहाँ के जनमानस ने इस उत्सव को देरी से मनाया। वहीँ तीसरा तर्क अब यह भी जोड़ा जाता है कि वैराट गढ़ के दानवी राजा शामुशाह के अत्याचारों से मुक्ति मिलने पर ही यहाँ के जनमानस ने इस प्रकासोत्सव को देरी से मनाया। लेकिन इसमें किसी ने यह बात नहीं बतायी क़ि अमावस्या की तिथि से शुरू होने वाली इस दीवाली के प्रथम दिवस की रात्रि को क्यों मातम दिवस के रूप में मनाया जाता है। ब्याठै/होला(चीड़ देवदार/भेमल इत्यादि की लकड़ियों से निर्मित प्रकाश पुंज) अगली सुबह प्रातः 4 बजे गॉव की सरहद के बाहर ढोल के साथ क्यों जलाए जाते हैं खुशियां क्यों मनायी जाती है। भिरुडी पर अखरोट क्यों फेंके जाते हैं? हाथी व हिरन क्यों बनाये जाते हैं?
इन सबका जबाब मैं आपको दूंगा अगर आप उत्सुक हैं तो कृपया मुझे लिखें क़ि आपकी उत्सुकता यह जानने की है। मैं अगली पोस्ट में अपने 10 बर्ष के शोध का बखान करूँगा तब तक के लिए होलड़ी होला होला… होले की बूटी…..!

चक्रब्यूह संरचना और वीर गाथाओं का प्रतीक है जौनसार-बावर क्षेत्र का जूडा नृत्य…!

जौनसार बावर के मेले और त्यौहारों का मुख्य आकर्षण जूडा नृत्य यों तो वीरगाथा काल का सजीव वर्णन दिखाई देता है लेकिन अपने को पांडवों के वंशज मानने वाले इस क्षेत्र के निवासी इस नृत्य को चक्रब्यूह संरचना से भी जोड़कर देखते हैं।

विशेषत: बिस्सू मेले या फिर पुरानी दीवाली के अवसर पर इस नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है जिसमें सफ़ेद पोशाकों में तलवार, खुन्खरी, फरसे हाथ में लहराते ग्रामीण रण-बांकुरों के भेष में अपने करतबों का सामूहिक प्रदर्शन करते नजर आते हैं। दरअसल इस पोशाक को वीरता और वीरों का प्रतीक मानते हुए यहाँ के बुद्धिजीवी इस पर अलग-अलग राय प्रस्तुत करते हैं। साहित्यकार रतन सिंह जौनसारी अपने को पांडवों का वंशज मानने के स्थान पर उन्हें ही खुद जौनसार-बावर क्षेत्र का अनुशरणकर्त्ता मानते हैं, वहीँ ठाणा गॉव के वयोवृद्ध साहित्यकार समाजसेवी कृपा राम जोशी इस युद्ध कला को पांडवों के काल से जोड़ते हुए कहते हैं कि यह युद्ध कला कालान्तर से अब तक ज्यों की त्यों जीवित है।

कांडोई भरम के ठाकुर जवाहर सिंह चौहान व चिल्हाड गॉव के माधो राम बिजल्वाण (अब जीवित नहीं हैं) अपने को पांडवों के वंशज से सम्बन्ध करते हुए कहते है कि जूडा नृत्य चक्रब्यूह संरचना से जुडी वह युद्ध कला है जो सिर्फ ढोल के बोल और सीटियों की आवाज में क़दमों की चपलता पर किया जाने वाला बेहद लोकप्रिय नृत्य है।

वहीँ संस्कृतिकर्मी अर्जुनदेव बिजल्वाण इसी नृत्य का एक पहलु थोउडा नृत्य भी मानते हैं जिसमें वे आखेट कला को जोड़कर देखते हैं और थोउडा/थाउडा को पांडव धनुर्धर अर्जुन की आखेट कला से जोड़कर देखते हैं।

बहरहाल इसके कितने प्रारूप हैं उन पर चर्चा करने का मतलब लेख को विस्तृत करना हुआ इसलिए संक्षेप में मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि मेरे द्वारा अभी तक इन 18 सालों में जौनसार बावर क्षेत्र के कई गॉवों के तीज त्यौहार में जाकर शोध करने की कोशिश की गई है। जहाँ तक जूडा नृत्य का प्रश्न हैं तो इसका आनंद सर्वप्रथम सन 1995 में मैंने कांडोई भरम के कांडई गांव के बिस्सू में लिया उसके बाद ठाणा गॉव की दीवाली, हाजा-दसेऊ, खन्नाड गॉव की दीवाली, जाड़ी सहित जाने जौनसार भावर के कितने अन्य गॉव की दीवाली में यह नृत्य कला सजीव होती देखी लेकिन मेरा आंकलन है कि जितना अच्छा प्रदर्शन इसका लोहारी गॉव में होता है वह अन्य कहीं नहीं है। इस बार की दीवाली में लोहारी गॉव के ग्रामीण विशेषकर नवयुवकों ने मुझे हतप्रभ कर दिया। ये सिर्फ ढोल के बोल और सीटियों की गूँज में कभी गोलघेरा बनाते तो कभी अर्द्ध-वृत्त । कभी कई घेरे एक साथ बन जाते। यह सचमुच अद्भुत था। आप अन्दर घुसे और कब घेरे में कैद हो गए पता भी नहीं लगता । आप कैसे बाहर निकले यह कह पाना समभा नहीं है। सचमुच यह किसी चक्रब्यूह संरचना से कम नहीं था।

यहाँ के संस्कृतिकर्मी कुंदन सिंह चौहान से मैंने इसे पूछा तो उन्होंने भी यही जवाब दिया कि यह चक्रब्यूह संरचना का ही एक हिस्सा है, क्योंकि अभिमन्यु का चक्रब्यूह में वध किये जाने के बाद से पांडवों द्वारा इस भूल को सुधारा गया था और फिर सभी सैनिकों को इस कला का ज्ञान दिया गया था।

बहरहाल तर्क जो भी हों मैंने भी इस बार कंडोई भरम की बिरुड़ी दीवाली में इस नृत्य पोशाक में हाथ आजमाए,और अनुभव किया कि वास्तव मेंं इस पोशाक को पहनते ही शरीर जोश से लबालब भर जाता है। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के उप निदेशक के एस चौहान जी का हृदय से आभार जिन्होंने मुंह इस बार की पुरानी दिवाली लोहारी गांव में मनाने की सलाह दी।

जौनसार की अनोखी दीवाली के अनोखे रंग! दीवाली के एक माह बाद क्यों मनाई जाती है जौनसार बावर में दिवाली?

उत्तराखंडी लोक संस्कृति की अभी भी साँसे जीवित हैं। धड़कनों में जो उल्लार व प्यार भरा है वह ढोल की घमक क़दमों की चाप और मुंह से फूटते बोलों में एक ऐसा जीता जागता उदाहरण है क़ि सचमुच हर कोई इसे न सिर्फ भरपूर आँखों से निहारना चाहता है बल्कि मन होता है क़ि खुद भी इस रंगत में रंगीन होकर मदमस्त नाचूं और गायूं । लेकिन कैसे यही एक यक्ष प्रश्न है?

लेकिन निकट भविष्य में यह संभव हो पायेगा इसका डर सताने लगा है क्योंकि उत्तराखंड के लोक समाज व लोक संस्कृति की पहचान बनाये रखने में कामयाब जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र की पुरानी दीवाली तेजी से सिमटने लगी है. अब यहाँ का जनमानस भी बम पटाके, लडियां झालर लगाकर नई दीवाली यानि आम दीवाली में शामिल होने लगा है जिस से तेजी के साथ यह दीवाली क्षेत्रों से सिमटकर अब दूरस्थ क्षेत्रों की हि पहचान बनी रह गयी है. ठाणा, कोरुआ इत्यादि कुछ गाँव हैं जो आज भी अपनी पुरानी दियाई (दीवाली के एक माह बाद मनाई जाने वाली दीवाली) को मजबूती के साथ मना रहे हैं! वहीँ दूसरी ओर तेजी से लोगों के कदम आंगनों में बजते ढोल की चापों व लोक नृत्यों गीतों से सिमटकर अपने बंद कमरों में टीवी नाटकों तक सीमित होते जा रहे हैं जो यकीनन एक बहुरंगी संस्कृति के ह्रास के लक्षण दिखाई दे रहे हैं. यही लक्षण मैंने बचपन में अपनी टूटती डूबती संस्कृति के देखे थे जो आज छिन भिन्न हो गयी है!

इस क्षेत्र की एक समाजसेविका बेटी जिसने आईआईटी खडकपुर, पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय सहित अन्य कई शिक्षक संस्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त की हुई है वह इस बिखरते तिलिस्म से बेहद ग्लानि महसूस कर खीजती हुई कहती है- सचमुच यह हमारे लिए किसी दुर्घटना से कम नहीं है कि हम तेजी से अपने लोकोत्सवों तीज त्यौहारों से दूर होते जा रहे हैं! पुरानी दियाई अब सुनने में आ रहा है कि हमारी खत्त के 10 गाँवों में भी बंद होने वाली है और अगर ऐसा हुआ तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर बहुत पीड़ा होगी क्योंकि जिस दीवाली के लिए हम कई महीनों से तैयारियों में जुटे रहते हैं वह यूँ हाथों से फिसल जायेगी तो हमारा यह वजूद मिटने जैसी घटना है!

लीला चौहान का कहना है कि क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों को इस बारे में पहल करनी चाहिए उन्हें प्रदेश के मुखिया तक यह बात पहुंचानी चाहिए कि जिस तरह यह तेजी से नई दीवाली में तब्दील हो रही है उस से न सिर्फ जनजातीय त्यौहार ख़त्म हो रहा है बल्कि जनजातीय कहलाने का सुख भी इन्हीं के साथ ख़त्म हो जाएगा. वह कहती हैं कि हमें इस संदर्भ में आवाज उठानी होगी कि पुरानी दीवाली के लिए दो दिवसीय राजकीय अवकाश उस क्षेत्र के सरकारी कर्मियों व स्कूली बच्चों के लिए निहित हो जहाँ जहाँ भी यह लोक संस्कृति है. इस से कम से कम हम अपनी पुरातन संस्कृति को बचाने में सफल तो हो सकेंगे क्योंकि पुरानी दीवाली की छुट्टी न मिलने से अक्सर युवा व उनके माँ बाप अपने इस त्यौहार को धीरे धीरे नए त्यौहार में बदलकर इस अमूल्य संस्कृति का ह्रास कर रहे हैं.

जौनसार में पहाड़ी (बूढ़ी) दिवाली का जश्न शुरू हो गया है। पांच दिवसीय दिवाली का पहला दिन होलाड़े होलियात के रूप में मनाया गया। ग्रामीणों ने पंचायती आंगन में मशालें जलाईं। इसके बाद दिनभर ढोल दमाऊं की थाप व लोक गीतों पर ग्रामीण पारंपरिक नृत्य करते हुए जश्न मनाते रहे। अमावस्या की काली रात को रोशन करने के लिए शाम के समय लोगों ने गांव के पंचायती आंगन में चीड़ की लकड़ी के होलाड़े जलाए। इस दौरान ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से लोकगीतों पर नृत्य किया ओर खुशियां बांटी।

चारे गाणे महासू, चारीओ भाई, आटेरी दुर्गा माई….,

कोदी जांदी भाभी मेरी मैते तू…, ऐ जमाना कोड़ी जुग्गो का….,

आमे लासी नोसी बीबी बानारो मुल्का., ढाकिया ढाक बाजलू बाणू.,

मुखे आया मिलदी तयूनी रे., डांडा देवराणा जातिरा तू काई न आई..,

बीरू मामा बाजी जालो बाणो…. ! आदि गीतों पर देर रात तक महिला पुरुष झूमते रहे। जौनसार क्षेत्र आज भी कई  गांवों में पुरानी दिवाली मनाई जा रही है। जोकि, अगले पांच दिनों तक धूमधाम से मनेगी।

अमावस्या की रात्रि को सभी ग्रामीण गांव से कुछ दूर होला (मक्का) का पुंज तो कहीं पर लकड़ी का पुंज जलाते हैं। इस दौरान पांडवों तथा लोक देवता महासू के गीत गाये जाते हैं। मुख्य रूप से बच्चे हाथों में होलड़ा (होला) लेकर खेत के आस-पास घुमाते हैं। दूसरे दिन गांव के पुरुष गेहूं, जौ की उगाई हरियाली लेकर आंगन में उतरते हैं। सर्वप्रथम महिलाएं कुल देवता को गोमूत्र व गंगाजल चढ़ाते हैं। इसके बाद पुरुष कान में हरियाली लगाते हैं, ओर ग्रामीण महिला पुरुष आंगन में सामूहिक नृत्य करते हैं। इस दिवस को भिरुड़ी कहते हैं। आपसी वैमनस्य और मतभेद भुलाकर जौनसारी लोग एक-दूसरे के घर जाकर, गले से गले मिलकर अखरोट, मुवड़ा (गेहूं को उबाल कर) तथा चिवड़े का आदान-प्रदान करते हैं। पांच दिनों के इस पर्व के अन्तिम दो दिनों में गांवों में काठ लकड़ी का हिरण व हाथी बनाकर गांव का स्याणा उस पर बैठकर नाचता है।

जिशपिशा व रणद्याड़ा त्योहार को छोड़ औंस (अमावस्या) की रात्रि को आसपास के लोग मंदिर व पंचायत आंगन में एकत्र होकर चीड़ की लकड़ी से बने होले यानि मशाल जलाकर होलियाच निकालते हैं। अमावस्या की रात को गांव के पुरुष व महिलाएं अलग-अलग स्थानों पर ढोल, दमाऊ , रणसिंघे की थाप पर हारुल के साथ तांदी नृत्य कर दीवाली का जश्न मनाते हैं। बिरुडी के दिन गांव की महिलाएं व पुरुष एक दूसरे को अखरोट व च्यूड़ामूडी देकर दीवाली पर्व की बधाई देते हैं। जंदोई के दिन कुछ गांवों में काठ का हाथी और कहीं पर हिरन का नाच होता है। परंपराओं को तोड़ जमाने के साथ दीवाली मनाने की मुख्य वजह नौकरीपेशा लोगों के सालभर में एक बार छुट्टी पर घर आना और महिने बाद कड़ाके की ठंड से बचना प्रमुख कारण है।

जौनसार की दीवाली के मनोरंजन के बेहद रोचक संसाधन होते हैं खेलुटे!

खेलुटे यानि ऐसे नाट्य कर्मी जो अपनी अभिनय कला से आपका भरपूर मनोरंजन कर सकें।जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में इन नाट्य कर्मियों को “खेलुटे” नाम से जाना जाता है।

खेलुटे यानि नाट्य कर्मी कौन बने यह तय नहीं है क्योंकि जिसमें कला है वही कलाकार। उनसे कोई भी बीच में कूदकर संवाद कर सकता है। जौनसार बावर में खेलुटे मैंने जाने कितने गॉव में दीवाली पर अपनी कला का प्रदर्शन करते देखे हैं लेकिन हाजा-दसेउ व चिल्हाड़ के अर्जुनदेव एंड पार्टी का कोई तोड़ नहीं। हाजा दसेउ के एक बुजुर्ग जो मुखौटा भी लगाते थे का वास्तव में इस कला में कोई सानी नहीं हो सकता।

ठाणा गॉव के खेलुटे भी हंसने हंसाने में बेहद माहिर हैं वहीँ कोरुवा गॉव में बने खेलुटे शब्दों में भले ही पीछे रहे हों लेकिन अपने कृत्यों से लोगों को केंद्रित करने में सक्षम रहते हैं। खेलूटे कब क्या कर जायं इसका पता नहींहोता, खेलूटे यानि रंगकर्मियों के  मुंह से कब कौन सा अभद्र शब्द निकल जाए कोई नहीं जानता।  इनके कहे शब्दों से न कोई ग्रामीण ही नाराज होता है और न ही मातृशक्ति!  इन्हें हर माँ बहन बहु रंगमंचीय कला का प्रतीक समझ हृदय से माफ़ कर देती हैं । 

टीवी शो कपिल की अगर बात कर दें तो यह तय है क़ि इन खेळूटों के आगे उस शो के सभी आर्टिस्ट आकर खड़े कर दो तो ये लोग इनके आगे ज्यादा देर नहीं टिक पाएंगे क्योंकि खेलुटे कब किसकी कहाँ पैंट उतार दें पता नहीं चलता। ये चाहें तो किसी को भी बिच्छु घास लगा दें! किसी पर भी राख उड़ेल दें. इसके बाद निकलने वाला मौण तो सचमुच दीवानगी की हद तक बेशर्मी पैदा कर देता है! इसमें ज्यादात्तर बदन नंग धडंग होकर बेहद अनर्गल नृत्य के साथ शब्दों के ऐसे बाण होते हैं जिन्हें हर कोई सुनना या कहना आम जिंदगी में पसंद नहीं करता! वाईसा.. एक ऐसा शब्द है जिस से आगे क्या क्या बोला जा सकता है वह अकल्पनीय है. लेकिन यकीन मानिए यही तो एक जनजातीय लोक संस्कृति की अद्भुत छटा है जिसका जीवन उतना ही पाक साफ प्रदूषण मुक्त जितनी इस क्षेत्र की प्रवृत्ति व प्रकृति होती है!

खेलुटे तब अपनी कला कौशल का प्रदर्शन करने उतरते हैं जब रात्रि को नृत्य करते करते ग्रामीण थोड़ा सा थकान महसूस करें या फिर हाथी या हिरण नृत्य करवाने वाले काँधे तक जाएँ। हाजा-दसेऊ के खेलूटे के रंग में ब्रिटिश काळ का वह जनजीवन झलकता दिखाई देता है जिसे अंग्रेजों ने अपने शिकारगाह के रूप में विकसित किया था जबकि कोरुवा में इसकी बानगी पुरातन काल के राजा और नए युगीय राजा की हार जीत को दर्शाते हुए यह सन्देश देने की परिकल्पना होती है कि किस तरह पहाड़ का ह्रदय पहाड़ की तरह बिशाल होता है और पुरातन राजा नए राजा को युद्ध में हराकर भी उसे अपने राज्य का बड़ा हिस्सा उपहार दे देता है.

खेलुटे क्यों बनाये जाते रहे हैं इस पर मेरा मत है कि यह खेलुटे तब ही मनोरंजन करने आँगन में उतरते हैं जब रात्रि प्रहऱ का अंतिम चरण हो और लोगों की आँखों में नींद की खुमारी तैरने लगती है। ऐसे में जब गले में दमाऊ टाँगे खेलुटे अपने मनोरंजन को लेकर आते है तब नींद स्वत्: ही खुल जाती है। ये लोग कुछ भी बोल देते हैं भले ही बावर में मैंने एक परंपरा देखी है क़ि सुबह यही खेलुटे अपने बदन पर राख़ मलकर घर घर जाकर सबसे क्षमा याचना करते हैं क़ि अगर भूल से कोई अपशब्द माँ बहनों बहुओं की शान में गलत निकल गया हो तो वे उन्हें माफ़ करें। माँ बहने बहुएं सहृदयी बन अखरोट फैंककर इन्हें माफ़ भी कर देती है। लोभ संस्कृति का यह अनूठा रूप कालान्तर से चलता आ रहा है जिसे आज हम खुद को हंसाने के लिए कपिल शो जैसे शो टीवी पर देखते हैं।

 

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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