Saturday, March 15, 2025
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जुगराण परिवार की तीसरी पीढ़ी ने किया “धार का नागर्जा” मंदिर प्रांगण का जीर्णोद्वार। 25 साल बाद लौटे नागर्जा पूजा के लिए गांव।

*क्यों निकाला जाता है सिमन्द में गस!

*गस निकालने के लिए क्यों रखी जाती है मुंह में घास व गौ-बंध होने के लिए कंधे में रस्सी।
(मनोज इष्टवाल)

वो गया और पद्म वृक्ष के नीचे जहाँ से उसकी सीधी नजर उठे तो दूर ताडकेश्वर, भैरव व लंगूर गढ़ी, एकेश्वर व मुंडनेश्वर दीखते हैं! थोडा नीचे नजर हुए तो यक्ष पुत्रियों का निवास स्थल सतपुली, दनगल, ज्वाल्पा, भुवनेश्वरी व पीठ पीछे क्यार्केश्वर जैसे धार्मिक स्थल हैं! जहाँ नागर्जा ने अपना स्थान चुना वह ऐसा रमणीक स्थल है कि पवन के शानदार हिलोरे, वन्य पुष्पों की शानदार खुशबु और ग्रामीण परिवेश की मिलावट अपने आप में उस स्थल को पवित्र व पावन बना देता है!
महाकवि कालिदास ने यों भी इस देवभूमि को “कुमार सम्भव” में नगाधिराज की उपाधि देते हुए लिखा है- “अस्त्युत्त्रस्यां दिशी देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:!”  ऐसे में यह तो सर्व विधित है कीपिंग यह भूमि ही नागवंशियों की है! पुरातन इतिहास में नाग वंशियों ने सहस्त्रों बर्ष इस भूमि का सुख भोगा जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण पूरे उत्तराखंड ही नहीं बल्कि भारत बर्ष के सम्पूर्ण हिमालयी भूभाग में अनंत, वासुकी, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, दृष्ट्रराष्ट्र, तक्षक, कालीय नाग का राज्य रहा है! इन्हीं नागों में नागकन्या उलूपी का भी जिक्र है और कृष्ण अवतारी दूधाधारी नागर्जा का एक पवित्र धाम टिहरी गढ़वाल के घनशाली क्षेत्र का सेम-मुखेम पूरे गढ़वाल में प्रचलित है। वहीँ कुमाऊं में भी कई नाग मंदिरों का जिक्र आता है!  इन्द्रप्रस्थ राज्य के निर्माण के समय नागों के तत्कालीन राजा तक्षक ने इन्द्रप्रस्थ बनने का विरोध किया था।

महाभारत के अनुसार तब पांडवों ने खांडव वन व मगध में नागों को परास्त कर नागों की शक्तिशाली परम्परा का अंत कर दिया था। कृष्ण ने यमुना में शेषनाग व अलकनंदा के नागपुर (उर्गम क्षेत्र) में नागों से युद्ध व आपसी रजामंदी के बाद नागवंशी राजाओं को बेहद क्षीण बना दिया था। रही सही कसर टिहरी गढ़वाल के गंगू रमोला को परास्त कर कृष्ण ने वहां नागर्जा रूप में दर्शन दिए। फिर भी लगातार पांडवों व नागों में युद्ध चलता रहा लेकिन नाग्पुत्री उलूमी/उलूपी से धनुर्धर अर्जुन द्वारा गंदर्भ विवाह रचाए जाने के बाद पांडव भी उत्तराखंड में नागों जैसे ही पूजनीय हो गए और आज भी उत्तराखंड के कई इलाकों में इनके मंदिर हैं।
यों तो पूरे उत्तराखंड में नागों की पूजा देवताओं के रूप में की जाती है जिनमें शेषनाग की पूजा पांडुकेश्वर, भिकलनाग की रतगाँव, संगलनाग की तालौर, बनापा नाग- मरगॉव, लोहनदेव नाग- झेलम, पुष्कर नाग-नागनाथ, नागसिद्ध-नागांचल पर्वत, कालिया नाग- सर बडियार इत्यादि प्रमुख हैं इनके अलावा गढ़वाल में नागटिब्बा, नागथात सहित कई ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहाँ नागों की पूजा होती है। गढ़वाल मंडल में आज भी कई राजपूत जातियां नागवंशी हैं जिनमें असवाल जाति प्रमुख है।  किंवदंतियों के अनुसार इस जाति को नाग के काटने से जहर नहीं चढ़ता  और न ही खेत में हल लगाते वक्त अगर हल के फल में नाग या सर्प आ जाए तो ये उसका दोष मानते हैं।

सिर्फ गढ़वाल मंडल में ही नहीं बल्कि कुमाऊं मंडल में भी मैंने अपने भ्रमण के दौरान नाग मंदिरों व स्थानों की जानकारी जुटाई।  कुमाऊं मंडल में मेहरपट्टी के बस्तरी गाँव में शेषनाग मंदिर है जबकि अकेले पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग व पुंगारो पट्टी में 8 प्रसिद्ध नागमंदिर हैं जिनमें पिंगल नाग, बेनी नाग, काली नाग, फेनी नाग, धौल नाग, कर्कोटक नाग,खरहरी नाग, अठ्गुली नाग प्रमुख हैं। नैनीताल जिले के पांडे गाँव में भी कर्कोटक नाग का पौराणिक मंदिर अवस्थित है वहीँ धनपुर में वासुकी नाग मंदिर है। पातळभुवनेश्वर व नाकुरी के बीच सैकड़ों नागों की जानकारी मिलती है। जन्मजय ने यहीं नागों की आहुति दी है।

अब आते है मुख्य बिंदु पर..! वह यह है की सेम मुखेम के नागराजा की धार्मिक आस्था के बीच अन्य नागों की तुलना में उत्तरकाशी, टिहरी और पौड़ी गढवाल के जनमानस की श्रद्धा और विश्वास ज्यादा क्यों है। क्यों इसे धार्मिक मान्यताओं में यहाँ के लोग एक तीर्थ के समान मानते हैं। जहाँ पौड़ी जिले के पौड़ी में झंडीधार चोटी में स्थित नागदेव मंदिर प्रसिद्ध है वहीँ पौड़ी गढ़वाल के बनेलस्युं में डांडा का नागर्जा व कफोलस्यूं में धार का नागर्जा सुप्रसिद्ध है।

पट्टी कफोलस्यूं के धारकोट गाँव स्थित धार का नागर्जा का वर्णन अन्य की तरह केदारखंड (गढ़वाल मंडल पृष्ठ १०२), भारतीय लोक संस्कृति का संदर्भ : मध्य हिमालय (पृष्ठ ८२), केदारपुराण (खंड ४ पृष्ट ४०९), आर्यों का आदिनिवास: मध्य हिमालय (पृष्ठ २८१ से ३०१)  गढ़वाल के लोक नृत्य (पृष्ट ९६), केदारखंड (अध्याय १२८), नाग और गरुड़ गाथा-स्कन्ध पुराण (मानसखंड कुमाऊं व केदारखंड गढ़वाल), गढ़वाल का इतिहास (पृष्ठ ८१,८६), बद्रिकेदार यात्रा दर्शन (पृष्ठ १०३) केदारखंड अध्याय (पृष्ठ ६३/५) सेम-मुखेम यात्रा दर्शन, श्रीमदभगवत गीता अध्याय (१०/२८-२९) नवनाथ उपासना (पृष्ट १४१), द हिमालयन गजेटियर (भाग-२ वाटसन), गढवाल गजेटियर ( ३७४-८३५ अटकिन्सन), भारत का इतिहास (व्हीलर), हिमालय यात्रा (मार्टिनियर पृष्ठ १८७-१८९) गढ़वाल के प्राचीन अभिलेख और उनका ऐतिहासिक महत्व (पृष्ट ८६, १२१,१८५), जौनपुर के लोकदेवता (पृष्ठ १९-२३) लोकगीतों, लोकगाथाओं, जनश्रुतियों, एवं किंवदन्तियों व गढ़वाल एन नागपूजा महातम्य में नागराजा के वृहद् स्वरूपों का उल्लेख मिलता है।

इन्हीं रूपों में एक बिष्णु भगवान् के 16वें अवतार श्रीकृष्ण भगवान ने केदारखंड की यात्रा में अपने छल-बल का प्रयोग कर नागदेवता के रूप में अपने को पूजनीय बनाया है! जहाँ एक ओर डांडा का नागर्जा का मेला/पूजा बैशाखी पर्व में लगता अहै वहीँ धार का नागर्जा मेला या पूजा अक्सर सावन मास के शुक्ल पक्ष की नागपंचमी को आयोजित होता है।

धारकोट का नागर्जा (धार का नागर्जा)।

धारकोट के धार का नागर्जा का भी बर्णन मुख्यतः जनश्रुतियों, लोकगाथाओं, जागरों में ही मिलता है। कहा जाता है कि कृष्ण भगवान् यहाँ उत्तराखंड भ्रमण के दौरान फिक्वाल भेष (पीताम्बरी भेषभूषा) में आये थे। लगभग 16वीं सदी में यह गाँव कफोला बिष्टों का एक कोट (किला) माना जाता था जिसके एक ओर क्षीर गंगा/दुग्ध गंगा (खरगढ़) बहती है तो दूसरी ओर उतुंग शिखर चौडयूँ है जो इसके फैले मीलों क्षेत्रफल का सीमांकन करता है। जनश्रुतियों व सन 1890 के भूमि बंदोबस्त के अनुसार यहाँ कफोला बिष्ट, पुसोला, इष्टवाल, केन्द्रवाल/किन्द्राण नेगी, कंडारी/गोसाँई  व थपलियाल व औजी जातियां रहा करती थी। तत्पश्चात यहाँ पंवार रावत, झन्गोरिया रावत, दुराल रावत, शैली, पडियार बिष्ट, असवाल, जुगराण, ढौंडियाल, लोहार, कोली इत्यादि जातियों का आगमन हुआ।

जनश्रुतियों के अनुसार बलवंत सिंह पडियार बिष्ट, गोबिंद सिंह किन्द्राण/केन्द्र्वाल नेगी, बचन सिंह किन्द्राण/केन्द्र्वाल नेगी, गब्बर सिंह झंगोरिया रावत, उमेद सिंह कंडारी गुसाई, रामदयाल सिंह कंडारी गुसाई, विक्रम सिंह किन्द्राण/केन्द्र्वाल नेगी, गणानन्द, आदित्यराम व चक्रधर प्रसाद इष्टवाल, सोपाल सिंह रावत व हीरामणी इष्टवाल बताया करते थे कि जब गोरखा शासन काल में पौड़ी गढ़वाल के ज्यादात्तर गाँव मरघट बन गए थे व लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया था। तब पुनः ब्रिटिश काल में यह गाँव बसना शुरू हुआ और उसी दौरान उन्हें पता चला कि गया-पद्म वृक्ष के नीचे नागर्जा मंदिर है जिसकी जानकारी गाँव के भूमिया कालीनाथ भैरव ने दी थी। पूजा याचना होने के बाद नागर्जा ने अवतार लिया और जो कहानी बताई वह यह थी कि सदियों पूर्व से वे इस गाँव में हैं। उन्हें यह स्थल पसंद आया और उन्होंने यहाँ के कफोला थोकदार से इसे भिक्षा के रूप में माँगा लेकिन कफोला ने बेहद निष्ठुरता से मना कर दिया। उन्होंने रात्री बिश्राम के लिए पुसोला से जगह मांगी तो उसने भी इनकार कर दिया आखिर नेत्रमणि नीलमणि इष्टवाल के यहाँ उन्हें जगह मिली। उन्होंने फिक्वाल रुपी नागर्जा को स्थान दिया। कहा जाता है कि जब उन्हें गाँव से बाहर छोड़ने के लिए नेत्रमणि आये तब यहीं गया-पद्म वृक्ष के पास उन्होंने नाग रूप धारण किया और अलोप हो गये। वे साथ ही कफोला थोकदार व पुसोला पदान को श्राप दे गये कि वे इस भूमि में अब ज्यादा दिन नहीं टिकेंगे। कालगति के आगे भला किसी की क्या चलती है। हुआ भी वही और ये दोनों जातियां यहाँ समाप्त हो गयी हैं। उन्हीं की थाती माटी में फिर अन्य जातियां आई। इष्टवालों पंडितों ने तब नागराजा की पूजा अर्चना शुरू कर दी व वही उसके पुजारी हुए। इस मंदिर का जीर्णोद्वार घरजवाई के रूप में थापली गाँव (इष्टवालों के ही दामाद) आये पंडित प्यारेलाल जुगराण द्वारा 1965-1966 पंडित नेत्रमणि इष्टवाल के पुत्र आयुर्वेदाचार्य केदार दत्त इष्टवाल द्वारा गया व पदम् वृक्ष के नीचे स्थापित दुखण्डी गर्जा मंदिर का नवनिर्माण किया गया। यह मंदिर कालांतर में खंडहर हो गया था इसलिए पंडित प्यारे लाल जुगराण ने इस मंदिर का मूल स्थान से उठांगन कर वर्तमान स्थान में मंदिर स्थापना करवाई।

देवयोग देखिये जो जमीन पुसोलाओं की थी उसका ज्यादातर भाग या तो प्यारे लाल जुगराण ने खरीदा या फिर झंग्वरिया रावतों ने! आश्चर्यजनक सत्य यह भी है कि जहाँ पद्म व गया वृक्ष है उसी के नीचे इष्टवाल जाति के आयुर्वेदाचार्य वैध पंडित बद्रीदत्त इष्टवाल ने सेम-मुखेम की यात्रा के बाद अपने बंधु-बांधवों के साथ मंदिर निर्माण करवाया। यह ऐसा स्थान है जहाँ इष्टवाल व पुसोला जाति की जमीनों का ओड़ा हुआ करता था। जिसके नपत खेत झंग्वरिया रावतों के पास हैं।

कालान्तर में असवालस्यूं के मलाऊं, दलमोट/बमणगाँव वेद लगने से ऐसा भी सुनने में आया कि वे लोग मंदिर का एक भाग रातों-रात तोड़कर चले गए। जिसे फिर हमारे काल में मरम्मत कर बनाया गया। जहाँ पूर्व में मंदिर था वहां पंडित सर्वेश्वर प्रसाद शैली ने बिश्राम स्थल बना दिया जबकि उन्हीं के भाई पंडित तुंगेश्वर प्रसाद शैली ने मंदिर का द्वार निर्माण किया है व उनके पुत्र नवीन शैली द्वारा नागर्जा के बामांग में देवी मंदिर का निर्माण करवाया। पूर्व ग्राम प्रधान भूपेन्द्र सिंह पंवार रावत ने मंदिर तक जाने के लिए पंचायती विभिन्न निधियों से सीढ़ियों का निर्माण करवाया है जबकि सोपाल सिंह रावत वर्तमान में हर रोज मंदिर की दीया-बाती किया करते थे लेकिन 90 बर्ष होने व स्वास्थ्य विकारों के बाद वे दीया बत्ती करने में असमर्थ हो गए हैं। अब यह जिम्मेदारी चंडी प्रसाद शैली निभा रहे हैं। कभी कालान्तर में असील दास से लेकर शत्रु दास आवजी हर दिन माँ बालकुंवारी के पंचायती आँगन में देवताओं की नौबत्त बजाया करते थे, आज नौबत्त तो क्या कहीं शबद भी नहीं सुनाई देते।

धार का नागर्जा के चारों दिशाओं में सात सीम हुआ करते थे जो कालांतर में सूखने लगे हैं! इनमें भंगरा, हीत का सीम, सीसई सीम, नाव का सीम, मल्ली नवली सीम, पीपलाखील सीम, बांजा सीम इत्यादि प्रमुख हैं।  ग्रामीण हर फसल में नागर्जा के नाम का रोट काटा करते थे व तिलों के तेल या सरसों के तेल को घर में  ही उनकी फलियों को निचोड़कर पहले उन्ही का दिया जलाया करते थे। माघ की मकरसंक्रान्ति को हलजोत के दिन गाँव की कुलदेवी बालकुंवारी, भूमि का भूमिया भैरव, कुलदेव नागर्जा की पूजा अर्चना होती है। इस से जंगली पशु खेतों को नुकसान नहीं पहुंचाया करते थे व यहाँ के खेतों में फसल खूब लहलहा करती थी।

धार का नागर्जा को पर्चे का देवता माना गया है। कहते हैं जो इसे सच्चे दिल से मन्नत मांगे वह पूर्ण अवश्य होती है लेकिन मन्नत पूर्ण होने के बाद देवता के उपकार को भूल जाए तो वह रुष्ट भी उतनी ही जल्दी होता है। धार के नागर्जा  की पूजा अर्चना के लिए श्रद्धालु, श्रीफल, चावल, भेली, दूध-फूल की पूजा देते हैं।  कालान्तर में यहाँ बकरे की बलि भी दी जाती थी जो अब पूर्णत: बंद है।  यहाँ भोग के रूप में सामूहिक पुवा प्रसाद, खीर व रोट चढ़ाया जाता है व यही प्रसाद के रूप में मिलता भी है। श्रावण भाद्रपद में यहाँ नागपंचमी के अवसर पर लोग अक्सर नागर्जा को दुग्ध स्नान या दूध फूल की पूजा देते हैं । कहते हैं ऐसे में उनका परिवार यानि गाई और माई सभी सुख समृधि के साथ जीवन यापन करते हैं। लोग फिक्वाल की पहचान के रूप में नागर्जा को पीला निशाँण (पीला झंडा) भी चढाते हैं। इनकी पूजा डौंर-थाली व खड़े बाजों (ढोल दमाऊं) दोनों में होती है साथ ही इनका पाठ भी चलता है।

मुझे अब दुःख इस बात का होता है कि कई बर्षों से अब सेम-मुखेम के फिक्वाल रुपी पुजारी यहाँ नहीं आते जो हमारे घर से नागर्जा के नाम का चढ़ावा ले जाते थे। ये लोग घर में पानी तक नहीं पीते थे। बचपन में पैंसा होता ही कहाँ था इसलिए अक्सर मैंने अपने पिता जी द्वारा दो या पांच रूपये से ज्यादा कभी इन्हें चढ़ावा देते नहीं देखा। एक बार पिता जी ने दस रूपये दिए थे जिन्हें देखकर वहां के पण्डे ही नहीं बल्कि मैं भी विस्मित हुआ था तब पिताजी बोले –आज जेब में थे इसलिए! काश…अब भी वे सभी परम्पराएं जीवित होती जो आराध्य देवताओं के लिए सच्चे मन व निष्ठा के साथ पल्वित होती लेकिन आज हम देवताओं से भी उपर इस भौतिक युग में अपने आप को समझने लगे हैं इस से हमें बचना होगा। मुझे गर्व है कि मेरे गाँव में अभी भी यह सामूहिक प्यार प्रेम की परम्परा बेहद निष्ठा व विश्वास के साथ कायम है शायद इसीलिए पलायन की इस अंधी दौड़ में मेरा गाँव अभी तक उजड़ा नहीं है! “जय नागर्जा”

कालान्तर में नागर्जा मंदिर निर्माण!


जनश्रुतियों के अनुसार पंडित प्यारे लाल जुगराण जी दिल्ली मिल्क स्कीम में चालक पद पर कार्यरत थे। उन्हें नागर्जा पर बड़ा विश्वास था। आये दिन अपने विभाग के  ट्रांसपोर्ट इंस्पेक्टर की ज्यादतियां उन्हें परेशान किये हुए थी। एक दिन उन्होंने सच्चे मन से नागर्जा का सुमिरन किया और बोला कि कुछ ऐसा चमत्कार दिखा ताकि मेरा पुत्र इसी दिल्ली मिल्क स्कीम में ट्रांसपोर्ट इंस्पेक्टर बन जाए ताकि मैं गर्व से सर उठा सकूँ। और ऐसा चमत्कार भी करना प्रभो..कि मन मुराद पूरी होने पर मैं तेरा मंदिर बना सकूँ। फिर क्या था एक दिन उन्हें एक रुपयों भरा बैग मिलता है और उस बैग के मालिक को वे कई दिन तक ढूंढते रहे लेकिन मिला नहीं।  इसे प्रभु इच्छा मान उन्होंने नागर्जा मंदिर बनाया, सेम मुखेम व चार धाम यात्रा की। तत्पश्चात उनके पुत्र जयकृष्ण जुगराण ने एक टेस्ट पास किया व वे दिल्ली मिल्क स्कीम में ट्रांसपोर्ट इंस्पेक्टर बन गए। तीनों बेटियों का विवाह साधन सम्पन्न घरानों में हुआ और जिन्दगी सुखद चल पड़ी। उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली और गाँव आ गए।

देखते-देखते जयकृष्ण जुगराण की शादी असवालस्यूं सरासू गाँव के घिल्डियाल परिवारों में होती है। उनसे पांच पुत्रियाँ व तीन पुत्र उत्पन्न होते हैं व सब दिल्ली में आराम से जीवन यापन करने लगे। जेष्ठ पुत्र जगमोहन  जुगरान के दो पुत्र, मंझले पुत्र शशि जुगरान के एक पुत्र व ज्योति जुगरान की दो बेटियाँ व एक पुत्र ने जन्म लिया। “होनहार विरवान के होत है चीकने पात” वाली बात यहाँ चरितार्थ हुई और पंडित प्यारे लाल जुगरान के पडपोते उनकी माताओं की मेहनत व लग्न परिश्रम से विश्व की सुप्रसिद्ध कम्पनियों में उच्च पदासीन हुए। इस आपाधापी के दौर में सच कहें तो यह परिवार भूले से ही सही बर्षों में एक आध बार गाँव आ जाया करता था लेकिन प्यारे लाल जुगरान के दो पोते जगमोहन व शशि जुगरान लगातार गाँव से सम्पर्क बनाए रखे। शशि जुगरान पर नागर्जा ने भाव रखा तो जगमोहन जब भी गाँव आते दीया-बाती के लिए भेंट स्वरूप दे जाया करते थे।

अचानक कोरोना काल आता है और पूरा विश्व कोरोना संकट से जूझता दीखता है। इसी दौरान शशि शर्मा अपने पुत्र साहिल पुत्र वधु शिखा व पोते जयन जुगरान के साथ गाँव आते हैं। पता चला कि उनकी पुत्रवधु शिखा का मायके से कुलदेवता भी नागर्जा है व शशि जुगराण की धर्मपत्नी श्रीमती आशा जुगराण स्वयं भी डाँडा नागर्जा के रीई गांव की सतभैया परिवार से है। यह सतभैया परिवार वह कहलाया जहां पांच बर्ष के अबोध  बालक पर नागर्जा का पश्वा अवतरित हुआ। श्रीमती आशा चमोली जुगराण बताती हैं कि उनके दादा स्व. बचीराम चमोली नागर्जा के पश्वा अवतरण को ढोंग करार देते हुए एक दिन कह उठते हैं कि तू सचमुच ही देव अवतारी है तो किसी बच्चे पर नाचकर दिखा। श्रीमती आशा जुगराण बताती हैं कि नागर्जा ने तुरंत 05 बर्षीय बालक उनके चाचा अनुसूया प्रसाद चमोली पर भाव रखा व पांच बर्षीय बालक ने नागर्जा के पश्वा अवतार में नाचना प्रारम्भ कर दिया। और तो और जो बालक ढंग से बोल भी नहीं पाता था उसने परिजनों को पूजा के विधि-विधान समझाने शुरू कर दिए।

शशि जुगराण  के घर सब कुछ अच्छे से चल रहा था कि रोज शिखा के सपने में नागर्जा आने लगे तो सबको चिंता होने लगी। फिर परिवार को ध्यान आया कि शादी के बाद वह अपने कुलदेवता के दर्शनों के लिए सपरिवार नहीं जा पाए। फिर इसी साल जुलाई माह में शशि जुगरान सपरिवार गाँव आते हैं। घर में कीर्तन भजन का आयोजन होता है। ढोल बजता है तो देवता नाचने खेलने लगते हैं व फिर एक सलाह के बाद नागर्जा का रोट काटकर यह परिवार अपने तीनों भाइयों के परिवार की मंगल कामना कर नागर्जा से मन्नत मांगकर दिल्ली लौट पड़ते हैं।
नागर्जा की कृपा से इस परिवार के अनिष्ट कटने शुरू होते हैं, बर्षों से रुके कार्य पूर्ण होने लगते हैं।  तब यह परिवार तय करता है कि वह मंदिर प्रांगण व गर्भ गृह का पुनः जीर्णोद्वार करवाते हैं। अभी बात घर में ही चल रही थी कि परिवार की विध्नबाधाएं दूर होनी शुरू हो जाती हैं। इस तरह फिर जगमोहन व शशि जुगरान दोनों गाँव आकर मंदिर के प्रांगण, गया-पद्म वृक्ष के चबूतरे व गर्भ गृह का कार्य प्रारम्भ करवा देते हैं, जिसका ठेका गाँव के मोहन शैली को सौंपते हैं और कार्य निष्पादन के बाद अब बर्षों बाद नागर्जा की विधिवत पूजा अक्टूबर के नवरात्र में करने जा रहे हैं।आखिर नवरात्र में 25 बर्ष बाद यह परिवार नागर्जा की पूजा को गांव पहुंचता है व बेहद खुश मन होकर नागर्जा की पूजा विधि विधान के साथ सम्पन्न होती है।

जुगराण वंशजों ने चढ़ाया मंदिर में ताम्रपत्र।

मंदिर प्रांगण के पुनर्निर्माण व शुद्धिकरण के पश्चात जुगराण वंशजों ने मंदिर परिसर में लगभग 55 बर्ष पूर्व में बने नागर्जा मंदिर के प्रति जुगराण परिवार ने आस्था व्यक्त करते हुए ताम्रपत्र चढ़ाया। इस दौरान जगमोहन जुगराण व श्रीमती अलका जुगराण की देवयोग से आकस्मिक में अनुपस्थिति में उनके छोटे पुत्र रोहित जुगराण ने मय अर्धांगिनी प्रेरणा डिमरी जुगराण व बच्चों सहित, शशि जुगराण ने मय अर्धांगिनी श्रीमती आशा जुगराण व ज्योति जुगराण ने मय अर्धांगिनी श्रीमती विनीता भट्ट जुगराण व छोटी बेटी, बेटे सहित अपनी उपस्थिति दर्ज की जबकि पंडित स्व.  प्यारे लाल जुगराण की चोटी बेटी श्रीमती सरोजनी जुगराण, स्व. जयकृष्ण जुगराण की तीन पुत्रियों श्रीमती बेबी जुगराण जुयाल (सुनीता), श्रीमति सविता जुगराण भट्ट व श्रीमती संगीता जुगराण जुयाल (छुटकन) ने भी आकर नारायण का आशीर्वाद प्राप्त किया।

जगमोहन जुगराण स्वास्थ्य कारणों से उपस्थित न रह सके व उनके बड़े पुत्र अमित व पुत्र वधु बच्चों सहित लंदन से पूजा में सम्मिलित नहीं हो पाए जबकि शशि जुगराण में पुत्र साहिल जुगराण व पुत्रवधु साहिल पेरिस, जर्मनी के बाद हाल ही में ऑस्ट्रेलिया पहुंचे हैं व वे भी व्यस्तता के फलस्वरूप उपस्थित नहीं हो पाए। नारायण की ऐसी कृपा रही कि सभी ऑनलाइन नागर्जा के दर्शन करते रहे व आशीर्वाद लेते रहे।

बहरहाल यह जनश्रुति भी यहाँ यथार्थ साबित होती प्रतीत होती है जिसमें कहा जाता है कि कोई भी रुके काम तीसरी पीढ़ी में जरुर पूर्ण होते हैं। यहाँ भी पंडित प्यारे लाल जुगरान की तीसरी पीढ़ी ने आकर मंदिर जीर्णोद्वार का कार्य किया है। जय नागर्जा !

क्यों निकाला जाता है सिमन्द में गस!

यह बहुत पुरातन धार्मिक लोकपरम्पराओं में देव पूजन की वह परम्परा है जहां सिमन्द अर्थात दलदली जमीन (जहां पानी, घास, मिट्टी, पत्थर, रसायनिक तत्व व अन्य खनिज मात्रा हो। यानि पंच तत्व हों) में देवता थरपा जाता है व उसके समक्ष सपरिवार गौ-बंध होकर परिजन भूलवश या क्रोध ध्वेश में आपस में कभी हुए कलह के लिए क्षमा याचना करते हैं। सिमन्द सिर्फ दलदली जमीन नहीं कही जा सकती बल्कि उसके ऊपर बैठकर नागर्जा (बिष्णु अवतार) अवतरित होते हैं व वे अपने साथ सभी के हृदय का गस-गुमान (वेदना व अहम) ले जाते हैं। इसके बाद सम्पूर्ण परिवार गंगा जी, नयार नदी या फिर सेम मुखेम स्नान के लिए जाता है व यहां की जली जोत पूजा स्थल तक लाई जाती है। जहां फिर घड़ियाला (डौंर-थाली) शुरू होता है। बाहर खड़ा बाजा (ढोल दमाऊं) में देवपूजा कर मंडाण लगाए जाते हैं।

गस निकालने के लिए क्यों रखी जाती है मुंह में घास व गौ-बंध होने के लिए कंधे में रस्सी।

यह धार्मिक पूजा अनुष्ठान का वह स्वरूप है जिसमें सभी परिजन दलदली जमीन में बैठे हुए धूब घास मुंह में रखकर यह जतलाते हैं कि वे गऊ समान हैं। अर्थात जिस मुंह से मनुष्य रूप में उन्होंने आपस में एक दूसरे के अहित के लिए भूलवश देवता से कोई पुकार लगाई है, वह मुंह जानवर समान समझा जाए जो अन्न नहीं घास खाता है। अतः मनुष्य रूप में हमें उन गुनाहों के लिए क्षमा करें। इसके बाद देवता सिमन्द में खुशमन नाचने हैं। जागरी जागर गाते हैं व देवता कैलाश प्रस्थान करते हैं तो धामी उनके प्रस्थान के खुशमन से मंगल गीत गाते हैं।

जब परिजन गंगा स्नान के बाद लौटते हैं तो सांध्य काल में धामी घड़ियाला लगाते हैं , जागरों व डौंर थाली की अद्भुत मिश्रण से गुंजायमान आवाज से देवता का पश्वा मनुष्यों पर उतरता है। ऐसे में अगर नागर्जा को फिर लगता है कि किसी के मन में गस-गुमान है तो वह अपने कांवरिया (जागरिया/धामी) को कहता है कि फिर से पूरे परिवार को गौबन्ध करो। ऐसे में गऊ के कीले पर पड़ी रस्सी को मंगाया जाता है और इस अहम को दूर करने के लिए सबके कंधे में रस्सी रखी जाती है ताकि कोई अपने को निर्धन व कोई अपने को धनवान न समझे। व इसे समानता के अधिकार स्वरूप अंगीकार करे। ऐसे में देवता प्रसन्न मन से पश्वा अवतारी पर नाचता खेलता है व सबको आशीर्वाद देता है।

कुसुमा कोलिन व नागर्जा यानि नारायण का प्रेम प्रसंग।
द्वापर काल में पौष माह की मकर संक्रांति को भगवान श्रीकृष्ण जिन्हें नारायण नाम से भी पुकारा जाता है, का मन जमुना स्नान का होता है। तो वह जमुना तट पर स्नान करने लगते हैं। वहीं उनसे ऊपरी तट जिसे जागरों में “कनफुल्यूँ का पाणी” कहा जाता है , वहां ऊंचे कोलगढ़ के कैन्दू कोली की रूपसी पत्नी कुसुमा कोलिन स्नान के लिए पहुंचती है। कुसुमा के रूप सौंदर्य का बर्णन जागरों में कुछ इस तरह से किया गया है-

कंचन सी देह, रूप की खजानी, बिगरौ की निशानी।

आगी की अगेली, आँखी दिवा जसि जोत,लट्टी नौ हत्त नौ बेत।

कहा जाता है कि नहाते वक्त रूपसी कुसुमा कोलिन के एक लट्ट टूटकर जमुना जी में स्नान कर रहे श्रीकृष्ण भगवान के हाथ आकर फंस गई। श्रीकृष्ण भगवान ने अपने हाथों में उलझा नौ हाथ नौ बेत (बिलस्त) लम्बा सोने के समान चमकीला बाल देखा तो रूप के रसिया श्रीकृष्ण भगवान सोचने लगे कि जिसका बाल इतना खूबसूरत है वह कितनी खूबसूरत होगी। बस फिर क्या था प्रेम अगन जली और नारायण कुसुमा कोलिन की तलाश में निकल पड़े।

ढूंढते ढूढते वे “कंफूल्यूँ का पाणी” नामक घाट पर जा पहुंचे। तब तक कुसुमा नहाकर जा चुकी थी लेकिन यमुना तट के किनारे पड़े पत्थरों में उसके गीले पैरों के निशान नारायण को दिख गए। वे प्रेम में इतने मंत्र मुग्ध थे कि पैरों के निशान मात्र देखने पर ही सोचने लगे कि जब उसके पैरों के निशान इतने खूबसूरत हैं तो वह कितनी खूबसूरत होगी उसके पैर कितने खूबसूरत होंगे।

उसे ढूंढते हुए वह गाय चुगा रहे ग्वालों के पास पहुंचे व उन्हें लालच दिया कि वे कुसुमा कोलिन का पता बताएंगे तो उन्हें गुड़ चावल व तिल देंगे। ग्वाले बताते हैं कि उसका नाम कुसुमा है व वह उनके कोलगढ़ रहती है। नारायण कोलगढ़ पहुंचते हैं तो कुसुमा कोलिन –“सिमन्या ठाकुर” कहकर उनका अभिवादन करती हैं। श्रीकृष्ण भगवान पूछते हैं कि उसका पति कैन्दू कोली कहाँ है? तब कुसुमा कहती हैं कि वे इंद्र राजा के यहां “टांड़ बुनने/बनाने के लिए 06 माह प्रवास पर जा रखे हैं।

भगवान श्रीकृष्ण की मानों मुराद पूरी हो गयी हो वे कुसुमा से रुकने के लिए जगह मांगते हैं। कुसुमा कहती है कि तुम ठाकुर हो और हम नपर (क्षुद्र) ऐसे में मैं कैसे आपको अपने यहां जगह दे सकती हूं। लेकिन भगवान नारायण नहीं मानते तो कुसुमा कहती हैं कि वे “भैंसों का भैंसवाडा” अर्थात भैंसों की छानी में रह सकते हैं। इस पर नारायण कहते हैं वह कीचड़ है व उनके तन से गोबर की गंद आएगी। फिर कुसुमा उन्हें “बकरियों की छान” में रहने को कहती हैं, श्रीकृष्ण कहते हैं वहां उन्हें उपन (पिस्सू) काटेंगे। कुसुमा उन्हें “कोठार की सांधी” में रहने को कहती हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं वह लकड़ियां उनकी हड्डियों में चुभेंगी। आखिर कुसुमा कोलिन उन्हें अपने “सुतरी पलंग” में सोने जगह देती है।

“सुतरी पलंग” में लेटते ही कुसुमा कोलिन उनके पैर दबाने लगती है। श्रीकृष्ण भगवान नौ दिन नौ रात तक सोये रहते हैं व कुसुमा उन्हें उनके पैरों की ओर बैठकर एकटक निहारती रहती हैं।

नारायण का श्राप।

अचानक कुसुमा अपने पति कैन्दू कोली के आने के पदचाप महसूस करती है तो वह झकझोर कर नारायण को उठाती है। श्रीकृष्ण भगवान भी अकबकाकर उठते हैं व जैसे ही कैन्दू कोली दरवाजा खोलकर कमरे में दाखिल होते हैं, नारायण पिछली खिड़की से कूदमार कर भागने लगते हैं। उन्हें भागते देख कुत्ते भौंकते हैं तो कैन्दू कोली लट्ठ हाथ में लेकर भगवान श्रीकृष्ण के पीछे लपकते हैं। नारायण कुत्ते को श्राप देते हैं कि दुनिया तुझे दुत्कारे व तेरी जग हंसाई होती रहे।

फिर श्रीकृष्ण भागते हुए केले के बगवान पहुंचते हैं लेकिन केले के पत्ते हिलते हुए श्रीकृष्ण भगवान के वहां होने की सूचना कैन्दू कोली को देते हैं। तब श्रीकृष्ण भगवान केले को श्राप देते हैं कि तू एक बार ब्याहे (जन्मे) व उसके बाद तेरा गलकर नाश हो जाये।

अगली बार श्रीकृष्ण भगवान पिंडालू (अरबी) के पत्तों वाले खेत में छुपते हैं लेकिन वे भी भड़भड़ाकर कैन्दू कोली को श्रीकृष्ण के छुपे होने का संदेश दे देते हैं। श्रीकृष्ण अरबी को श्राप देते है कि तू हमेशा खड्डे में रहे।

आखिरकार श्रीकॄष्ण भगवान “हल्दी के हलदवाड़ा” (हल्दी के खेत) में जाते हैं तो हल्दी के पत्ते उन्हें छुपा लेते हैं। भगवान नारायण हल्दी को तब खुशमन से वरदान देते हैं कि तू सुमंगली हो। हर मंगलकार्य में मैं तुझे माथे पर धारण करूँगा व तू हर कार्य में सुमंगली बन सबके माथे पर सजे।

कहा जाता है तभी से हल्दी सबके माथे पर सजी व नागर्जा देवता अर्थात श्रीकृष्ण भगवान ने पीताम्बर वस्त्र धारण करने प्रारम्भ किये।

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