● गजब है 130 परिवारों का गॉव सिमटकर 46 परिवार रह गया और तो और खेतों में भी हल चलाने वाले बाहर के गॉव के।
(मनोज इष्टवाल)
मेरा गांव धरकोट।
जहाँ हर खेत में भाबरी बैलों का कंपटीशन होता था। सींगों पर तेल व गले में खांकर, घुंघुरू की छण-छण और हल की फाट में तेज रफ़्तार में चलते बैल अपने अपने कृषक स्वामियों की हनक का प्रतीत होते थे। जिस गॉव के बैलों की सजावट देखने दूर दूर से उनके खरीददार ब्योपारी आते थे। जहाँ पलायन की मार में 130 परिवारों का गॉव चित्त होकर 46 परिवारों में सिमट गया है, वहीँ दूसरी ओर ऐसे कृषि प्रदान गॉव में हल जोतने के लिए भाड़े पर हमारे गॉव के ग्रामीण सिलेथ (लुस्किया/सिन्नी), नौली (शोभी) इत्यादि गॉव से हल बैल मंगवा रहे हैं। अंदर से यह देखकर पीड़ा तो बहुत है लेकिन है किस काम की। क्योंकि मैं स्वयं लीपने न घिसने के काम का।
आज सोचता हूँ काश….! मैंने बचपन में हल लगाना सीखा होता तो अपने एकड़ों बंजर खुद आबाद करता। इस सौंधी माटी में मेरा बचपन लकड़पन खूब लोटा। सर्दियों में बहती नाक और फटे हाथ पैर व सल्तराज (आसण से फटा सलवार किस्म की पेंट) ने जाने इन सीढ़ीनुमा खेतों की एक मुंडेर से दूसरे खेत और दूसरे खेत की मुंडेर से तीसरे खेत कितनी कूदें मारी होंगी। अन्न दाता ने भी भर-भर कर हमारे डवारे (अन्न इकठ्ठा करने का बांस की चिल्टियों से बना भंडार) भरे रखे। किसी में बांकुली तो किसी में ख्वीड़ (चावल के प्रकार) किसी में कोदा किसी में झंगोरा तो किसी में कौणी। आज स्थिति यह है कि न हमारे पास हमारा ऑरिजिनल गेंहू का बीज है न बिसात में मिले लाल चावल व कौणी का ही बीज अब संग्रहित रहा। और तो और आज की जनरेशन को ये तक पता नहीं है कि चावल में ख्वीड कौन सा है और बांकुली कौन सा। ऊखड़ खेती में उगने वाली धान की यह किस्म जहां भात बनने में अक्सर गले में फंसती सी महसूस होती थी आज यह अंतराष्ट्रीय बाजार में इनकी कीमत ₹150 से लेकर ₹180 की कीमत पर बिकती है।
आज यह ड़वारे घरों में खाली पड़े चिड़ा रहे हैं। लेकिन इतना शुकुन तो है कि अभी हमारा गॉव बंजर नहीं हुआ है। लगभग 30 प्रतिशत सरहद पर आज भी हल जोत लग रही है। जबकि सरहद पार का सम्भ्रान्त कहा जाने वाला गॉव नैल में एक भी खेत आबाद नहीं है जहाँ का अन्न धन वहां की संपन्नता का बखान करता था।
आज जहाँ खेत हमारे हैं बैल व हल चलाने वाले पड़ोस के गॉव के । वहीँ मात्र 15 साल पूर्व तक यहाँ सब अपना होता था। भले ही आज भी गॉव की माँ बहनें दिन भर आजकल काम ही काम में जुटी हुई हैं क्योंकि उनको इतना यकीन तो है ही कि यही भूमि उनके पुर्खों की हाड़तोड़ मेहनत से बनी हुई है और इसी भूमि के बलबूते उनके वर्तमान ने सुख होगा है। अतीत के परिश्रम व वर्तमान के श्रम में आये अंतर में उन्हें कहीं न कहीं गांव का भविष्य सुनहरा दिखाई देता है। बुजुर्ग माँओं का मानना है एक दिन अपने न भी लौट सके तो क्या हुआ इस जमीन को संवारने वाला कोई बाहरी मानुष या सभ्यता मैदानी भूभाग से चलकर गांव तक पहुंचेंगी और उन बंजरों को फिर आबाद करेगी जो अपनों की उपेक्षा के शिकार हैं। जमीन ने सब खाये भला जमीन को कौन खा सका अब तलक…….!
पलायन की इस आंधी के बावजूद भी चलो इतनी तसल्ली तो है कि हाल फिलहाल आबाद है मेरा गॉव।