(मनोज इष्टवाल)
यों तो तुलनाएं हमेशा ही होती रही हैं लेकिन तुलनाएं तब ज्यादा सुखद लगती हैं जब वह कार्यरूप लेने के बाद आईना बनकर अपने वजूद को साबित करती नजर आती हैं। किंग ऑफ कुमाऊँ के नाम से प्रसिद्ध कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे अगर जसुली दताल को स्वर्ण मुद्राएं पानी में बहाते न देखते तो शायद आज न रैमजे अस्पताल नैनीताल में दिखता न रैमजे हाई स्कूल अल्मोड़ा (वर्तमान में रामजी कॉलेज) होता। न 1892 में नैनीताल कोषागार स्थापित होता, न अलाहाबाद बैंक की शाखा खुलती, न नैनीताल क्लब बनता और न वक्त रहते काठगोदाम तक रेलवे लाइन बिछती। लेकिन अफसोस कि अंग्रेज तो गजेटियर में यदा-कदा जसुली लला का नाम ही लिख गए लेकिन अपने हिन्दू अंग्रेजों ने तो उनका श्रेय भी क्रिस्चियन मिशनरी को ही दे दिया। जिस मिशनरी का मेथोडिस्ट चर्च भारत में पहली बार 1860 में नैनीताल में बनाया गया था।
(सर हैनरी रैमजे, जसुली लला व धिराज गर्ब्याल)
सर हैनरी रैमजे की तुलना जसुली दताल से हो सकती है क्योंकि उसी के पैसों का सदुपयोग कर हैनरी रैमजे ने कुमाऊँ से लेकर नेपाल तक जसुली देवी दताल के कहने पर लगभग 200 धर्मशालाएं बनवाई व कुमाऊँ के नैनीताल शहर का कायाकल्प किया। स्वास्थ्य और शिक्षा और तत्कालीन पर्यटन पर जितना अधिकार सर हैनरी रैमजे का रहा उसका लगभग 40 प्रतिशत का हिस्सा जसुली दताल का माना जाय तो दोराय नहीं होनी चाहिए।
कौन थी जसुली दताल व क्या किया उन्होंने ऐसा ? इस बिषय पर भी बताएंगे लेकिन एक सदी बाद फिर उसी जसुली लला के रं (शौका) समुदाय के एक बेटे ने नैनीताल को संवारने का जिम्मा ले लिया है। वे बेशक सर रैमजे न हों और न ही जसुली लला ..! लेकिन जितने अल्प समय में उन्होंने बतौर नैनीताल जिलाधिकारी रहते हुये नैनीताल का कायाकल्प करना शुरू किया है वह ऐसा कुछ लिखने को मजबूर कर देता है। जिलाधिकारी के तौर पर नैनीताल जिले की जिम्मेदारी संभालने वाले धिराज गर्ब्याल भी उसी दारमा घाटी के हैं जहां की जसुली देवी दताल थी।
कौन थी जसुली दताल।
1870 में कुमाऊँ कमिश्नर सर हैनरी रैमजे जब दारमा -जोहार घाटी दौरे पर थे तो देखते हैं एक स्वर्ण वर्ण वृद्ध महिला एक एक करके स्वर्ण/चांदी मुद्राएं न्यूनामति नदी में डाल रही हैं और मायूस हृदय के साथ कुछ बड़बड़ा भी रही हैं। यह इत्तेफाक तब हुआ जब रैमजे दुग्तु से दांतु जा रहे थे। उन्होंने दांतु गांव जाकर पड़ताल की तो पता चल उस महिला का नाम जसुली देवी दताल है व वह हर हफ्ते न्यूनामति नदी को अशर्फियाँ भेंट करती है। रैमजे ने अपने काफिले को दांतु गांव में ही रोका व महिला के पास जाकर उन्हें समझाया कि इस तरह आप पुण्य की भागीदार नहीं बन सकती बल्कि आप को यह धन समाज हित में लगाना चाहिए।
दारमा के दांतू गाँव में जसुली दताल की कहानी कुछ इस तरह सामने आती कि दारमा और निकटवर्ती व्यांस-चौदांस की घाटियों में रहने वाले रं (शौका) समुदाय के लोग शताब्दियों से तिब्बत के साथ व्यापार करते रहे थे जिसके चलते वे पूरे कुमाऊं-गढ़वाल इलाके के सबसे संपन्न लोगों में गिने जाते थे
अथाह धनसम्पदा की इकलौती मालकिन जसुली अल्पायु में विधवा हो गयी थीं और अपने इकलौते पुत्र की भी असमय मृत्यु हो जाने के कारण निःसन्तान रह गयी थीं। इस कारण अकेलापन और हताशा उनकी वृद्धावस्था के दिनों के संगी बन गए थे। इसलिए पुत्र व पति की असमय मौत ने जसुली जिसे लोग लला (माँ) के नाम से भी पुुुुकारते थे ने सोचा यह अथाह धन उसके किस काम का। सर हैनरी रैमजे ने जसुली लला से कहा कि सच्चा पुण्य वह है जो सबके काम आए। क्यों न आपके इस अथाह धन को आम लोगों के हित में लगाया जाए ताकि भूखा अन्न पा सके। आश्रयहीन आश्रय पा सके। विद्वान शिक्षा पा सके व बीमार स्वास्थ्य लाभ ले सके।
(कुछ यूं हो रहा है 200 साल भी अधिक पुरानी सरायों का कायाकल्प)
जसुली लला को रैमजे की युक्ति पसन्द आ गयी। किंवदंतियाँ हैं कि दारमा घाटी से वापस लौट रहे अँगरेज़ अफसर के पीछे-पीछे जसुली का धन लादे बकरियों और खच्चरों का एक लंबा काफिला चला। रैमजे ने इस पैसे से कुमाऊँ, गढ़वाल और नेपाल-तिब्बत तक में व्यापारियों और तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अनेक धर्मशालाओं का निर्माण करवाया।
इतिहासकार बताते हैं कि मुगलों की सराय शैली में बनाई गयी। एक ज़माने तक ये धर्मशालाएं ठीक-ठाक हालत में समूचे कुमाऊँ-गढ़वाल में देखी जा सकती थीं। रैमजे ने इसी धन से नारायण तेवाडी देवाल, अल्मोड़ा, वीरपट्टी नैनीताल, हल्द्वानी, रामनगर, कालाढुंगी, रांती घाट, पिथौरागढ़, भराड़ी, सोमेश्वर, बागेश्वर, लोहाघाट, टनकपुर, ऐंचोली, थल, अस्कोट, कलुवाकोट, धारचूला, कनालीछीना, कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग, तवाघाट, खोला, पांगु, नेपाल के महेन्द्रनगर और बैतड़ी जिलों के अलावा तिब्बत में लगभग 200 से 300 के बीच धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। इन में पीने के पानी वगैरह का समुचित प्रबंध होता था। इस सब कार्य में 20 बर्ष की अवधि लगी। इस सत्कार्य ने जसुली दताल को इलाके में खासा नाम और सम्मान दिया जिसके चलते वे जसुली लला (अम्मा), जसुली बुड़ी और जसुली शौक्याणी जैसे नामों से विख्यात हुईं।
फिर एक ऐसा दौर भी आया जब उत्थान के बाद पतन शुरू हुआ और समय के साथ-साथ ये धर्मशालाएं खंडहरों में बदलती गईं, फिलहाल इनमें से कुछ ही संरचनाएं बची हैं और जो बची हैं उनकी स्थिति सोचनीय है।
अब आते हैं हैनरी रैमजे व जसुली लला के काल को छोड़कर वर्तमान की ओर! इसी दारमा चौंदास घाटी में जन्में रँ समुदाय के नैनीताल जिले के वर्तमान जिलाधिकारी ने सर हैनरी के कार्यों को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। सर हैनरी ने नैनीताल का कायाकल्प कर जहां इसे हिंदुस्तान का हिल स्टेशन बनाने में अपने कई बर्ष लगा दिए वहीं उनकी मृत्यु के बाद से ब्रिटिश काल में जो कुछ नैनीताल शहर ने पाया या उसके आस पास के क्षेत्रों का विकास हुआ उसकी गवाही तत्कालीन भवन शैली दे रही है लेकिन स्वतंत्र भारत में बर्षों बाद फिर नैनीताल के आस पास पहाड़ी काष्ठ पाषाण व शिल्प कला को जीवन मिलने लगा है जिस पर सबकी नजरें टिकी हैं। जिलाधिकारी धिराज गर्ब्याल ने जहां असहाय हो चुके नैनीताल-भवाली व उसके आस पास के कई एकड़ सेब बागानों में सेब की उन्नत किस्म की प्रजातियों को पनपाने का कार्य प्रारंभ करवा दिया है। वहीं नैनीताल शहर के रिक्शा स्टैंड हो या फिर भवन शैली में पाषाण तब्दीलियां वह पर्यटकों का मन हर्षित कर लेती हैं।
(कुछ यूं हो रहा है 200 साल भी अधिक पुरानी सरायों का कायाकल्प)
यहां सबसे बड़ा कारण अगर सर हैनरी रैमजे, जसुली लला से जोड़कर जिलाधिकारी धिराज गर्ब्याल को मैं व्यक्तिगत रूप से देखता हूँ तो वह यह है कि उन्होंने 200 साल से भी अधिक पुरानी उन सराय, धर्मशालाओं को पर्यटन के मानचित्र में लाने की पहल शुरू कर दी है जो जीर्ण शीर्ण अवस्था में भी जसुली लला व सर हैनरी रैमजे के प्रयासों व अथक परिश्रम की कहानी हमारी आंखों के आगे पेश करते दिखाई देते थे। जो आकार व डिज़ाइन 2 सदियों पूर्व के थे वे फिर से मूर्तरूप लेने लगे हैं। मुझे बेसब्री से इंतजार है कि कब ये धर्मशालाएं या सराय पर्यटन के मानचित्र में दर्ज होगी व कब मैं यहां पहुंचकर उन पाषाणों में जसुली लला व सर हैनरी रैमजे की खुशबू तलाश पाऊंगा।
आपकी सोच को प्रणाम जिलाधिकारी धिराज गर्ब्याल। क्योंकि आप जब भी जहां भी रहे आपने अपनी कार्यशैली से सभी को प्रभावित किया। चाहे कुमाऊँ मण्डल विकास निगम हो या फिर जिलाधिकारी पौड़ी या वर्तमान में जिलाधिकारी नैनीताल। आपके कार्य यूँहीं पीढ़ी-दर-पीढ़ी आपको याद रखेंगे ठीक वैसे ही जैसे सर हैनरी रैमजे, जसुली लला आज भी हम सबके बीच जिंदा है।
जिलाधिकारी धिराज गर्ब्याल की ये पहल भी आपको प्रसन्न कर देगी:-