आस्था और पर्यावरण!– हिमालय में आयोजित लोकजात यात्राओं का प्रकृति और पर्यावरण से होता है गहरा सम्बन्ध…
(ग्राउंड जीरो से संजय चौहान)!
(नंदा की वार्षिक लोकजात यात्रायें– किस्त–3)
उत्तराखंड में हिमालय की अधिष्टात्री देवी माँ नंदा के लोकोत्सवों की अलग ही पहचान है। इन दिनों नंदा का मायका लोकोत्सव में डूबा हुआ है चारों ओर नंदा के जयकारों से नंदा का लोक गुंजयमान है। हजारों सालों से उच्च हिमालयी क्षेत्रों में आयोजित लोकजात यात्राओं का उद्देश्य जहां परंपराओं और संस्कृति का निर्वहन करना है वहीं इन यात्राओं के माध्यम से हमें प्रकृति और पर्यावरण को करीब से जानने और समझने का अवसर मिलता है साथ ही हिमालय के संरक्षण और संवर्धन की शिक्षा भी मिलती है।
बेहद कठिन नियम होते हैं इन लोकजात यात्राओं में!
लोकजात यात्राओं के दौरान हिमालयी बुग्याल में जाने पर बेहद पाबंदी के साथ साथ सख्त नियम होते हैं जिनका पालन किया जाना अनिवार्य होता है। जिसके अंतर्गत फूलों को तोडने से पहले स्नान करके उनकी पूजा की जाती है, तत्पश्चात फूल तोडे जाते हैं। नंदा सप्तमी/ नंदा अष्टमी के दिन फुलारी देव पुष्प ब्रहमकमल को भी इसी नियम के तहत तोडते हैं। सबसे अहम पहलू ब्रहमकमल के एक पौधे से केवल एक ही फूल तोडा जाता है जो इस बात को चरितार्थ करता है कि हमारे पूर्वज पर्यावरण संरक्षण को लेकर कितने गंभीर थे। इसके अलावा लोकजात यात्राओं के दौरान उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ज्यादा आवाज करने पर भी पाबंदी होती है, इसके पीछे माना जाता है कि इससे हिमालय में विचरण करने वाले वन्यजीवों को परेशानी और ग्लेशियरों को नुकसान उठाना पड सकता है, इसलिए लोकजात यात्राओं में हिमालय में शोरगुल ना के बराबर होता है। यही नहीं लोकजात यात्राओं में सम्मिलित हर व्यक्ति के लिए खाने पीने से लेकर शौच, स्नान तक के लिए बेहद सख्त नियम कानून होते हैं जिनका सभी लोग पालन करते हैं। लोकजात यात्राओं का प्रकृति और पर्यावरण से गहरा संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में देवस्थली और विनायक नाम भी देवताओं का प्रकृति से गहरा जुड़ाव परिलक्षित होता है। हर साल आयोजित होने वाली लोकजात यात्रा के पीछे देव डोली और छंतोली का हिमालय में जाने से लोगों को उस परिक्षेत्र में हो रही प्राकृतिक गतिविधियों और परिवर्तन के बारे में जानकारी भी मिलती है।
लोकजात यात्राओं में सम्मिलित होने वाले हर व्यक्ति का दायित्व होना चाहिए की वे परम्पराओं के निर्वहन के साथ-साथ प्रकृति और पर्यावरण को लेकर भी गंभीर रहें। जब ये हिमालय रहेगा, बुग्याल रहेंगे, ग्लेशियर रहेंगे तभी धरती पर जीवन संभव है। ये हिमालय हमारे वाटर बैंक का भंडार है, इसलिए इनके संरक्षण और संवर्धन की जिम्मेदारी भी हमारी है। लोकजात यात्राओं में हिमालय को साफ सुथरा बनाने मे सहयोग करें। यात्रा के दौरान वहां पडे प्लास्टिक और कूडा करकट को अपने साथ वापस लायें..
जय मां नंदा.. सबकी मनोकामना जरूर पूरी करना..।