16 अगस्त ‘बुग्याल संरक्षण दिवस’!– बुग्यालो को लेकर पद्मश्री और मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत की अनूठी पहल..।
(ग्राउंड जीरो से संजय चौहान)
कोरोना काल भले ही आमजन के लिए दुश्वारी से भरा रहा हो लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से जंगलों, जीव जंतुओ, पक्षियों से लेकर मखमली घास के बुग्याल के लिए कोरोना काल वरदान साबित हुआ है। जिससे बुग्यालो की रौनक लौट आई है।
बुग्यालों के संरक्षण के प्रति आमजन में जागरूकता बढाने और भविष्य के लिए प्रकृति की इस अनमोल नेमत के संरक्षण और संवर्धन के लिए पद्मश्री और मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत नें अनूठी पहल शुरू की है, जिसके अंतर्गत हर साल 16 अगस्त को बुग्याल संरक्षण दिवस के रूप में मनाने का अनुरोध किया है।
उन्होंने लोगों से निवेदन किया है कि 16 अगस्त को अपने अपने घर के आंगन में खिल रहे किसी भी प्रजाति का सबसे खूबसूरत पुष्प की मोबाइल से फोटो खींच कर डिजिटल प्लेटफॉर्म /फेसबुक पर डालनी है यह आपके परिवार की ओर से मां नन्दादेवी को उपहार और समर्पण होगा, साथ ही बुग्यालों के संरक्षण के प्रति समर्थन भी। आज उनकी इस पहल का सैकड़ो लोगों नें समर्थन देते हुए डिजिटल प्लेटफॉर्म पर बुग्याल, फूलों की फोटो पोस्ट की है। लोगों नें मैती की इस अनूठी पहल का स्वागत किया है।
पहाडों में जैसे जैसे हम ऊपर चढ़ते हैं वैसे वैसे पेड़ो का आकार व पत्तियों का आकार भी बदलने व घटने लगता है। ऊँचाई बढने के साथ साथ पेड़ो की ऊंचाई भी कम होती जाती है। उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय में हिमशिखरों की तलहटी में जहाँ टिम्बर रेखा (यानी पेडों की पंक्तियाँ) समाप्त हो जाती हैं, वहाँ से हरे मखमली घास के मैदान आरम्भ होने लगते हैं। आपको यहीं पर स्नो और ट्रीलाईन का मिलन भी दिखाई देगा। जिसे टिम्बर रेखा कहते हैं। आमतौर पर ये ८ से १० हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित होते हैं। गढ़वाल हिमालय में इन मैदानों को बुग्याल कहा जाता है।
— क्या है बुग्याल!
बुग्याल हिम रेखा और वृक्ष रेखा के बीच का क्षेत्र होता है। स्थानीय लोगों और मवेशियों के लिए ये चरागाह का काम देते हैं तो बंजारों, घुमन्तुओं और ट्रैकिंग के शौकीनों के लिए आराम की जगह व कैम्पसाइट का। गर्मियों की मखमली घास पर सर्दियों में जब बर्फ़ की सफेद चादर बिछ जाती है तो ये बुग्याल स्कीइंग और अन्य बर्फ़ानी खेलों का अड्डा बन जाते हैं। गढ़वाल के लगभग हर ट्रैकिंग रूट पर इस प्रकार के बुग्याल मिल जाएंगे। जब बर्फ़ पिघल चुकी होती है तो बरसात में नहाए वातावरण में हरियाली छाई रहती है। पर्वत और घाटियां भान्ति-भान्ति के फूलों और वनस्पतियों से लकदक रहती हैं। अपनी विविधता, जटिलता और सुंदरता के कारण ही ये बुग्याल घुमक्कडी के शौकीनों के लिए हमेशा से आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। मीलों तक फैले मखमली घास के इन ढलुआ मैदानों पर विश्वभर से प्रकृति प्रेमी सैर करने पहुँचते हैं। इनकी सुन्दरता यही है कि हर मौसम में इन पर नया रंग दिखता है।
बरसात के बाद इन ढ़लुआ मैदानों पर जगह-जगह रंग-बिरंगे फूल खिल आते हैं। बुग्यालों में पौधे एक निश्चित ऊँचाई तक ही बढ़ते हैं। जलवायु के अनुसार ये अधिक ऊँचाई वाले नहीं होते। यही कारण है कि इन पर चलना बिल्कुल गद्दे पर चलना जैसे लगता है। ये बुग्याल बरसों से स्थानीय लोगों के लिए चारागाह के रूप में उपयोग में आतें हैं। जिनकी घास बेहद पौष्टिक होती हैं। इन मखमली घासों में जब बर्फ की सफ़ेद चादर बिछती है तो ये किसी जन्नत से कम नजर नहीं आती है। बुग्यालों की खासियत यह है कि इनकी ऊपरी सतह 10 से 12 इंच तक मोटी होती है और उसके नीचे नमी से भरपूर अत्यधिक उपजाऊ मिट्टी होती है। सतह के नीचे एक से डेढ़ फुट तक की परत भूरी मिट्टी की होती है। इस परत को बनने में दो सौ से दो हजार तक साल लगते हैं। बुग्याल चूंकि अधिकतर बर्फ से ढके रहते हैं, इसलिए उनकी सतह के नीचे का तापमान हमेशा शून्य डिग्री ही बना रहता है। बुग्याल की सतह का तापमान 4 डिग्री से ज्यादा नहीं होता।
हर मौसम में बुग्यालों का रंग बदलता रहता है। बुग्यालों से हिमालय का नजारा ऐसे दिखाई देता है जैसे किसी कलाकार ने बुग्याल, घने जंगलों और हिमालय के नयाभिराम शिखरों को किसी कैन्वास पर उतारा है। बुग्यालों में कई बहुमूल्य औषधि युक्त जडी-बू्टियाँ भी पाई जाती हैं। इसके साथ-साथ हिमालयी भेड़, हिरण, मोनाल, कस्तूरी मृग जैसे जानवर भी देखे जा सकते हैं।
उत्तराखंड के हिमालय में कई छोटे-बड़े बुग्याल मौजूद हैं। औली, गोरसों बुग्याल, बेदनी बुग्याल, आली बुग्याल, मोनाल टाॅप, हिलकोट बुग्याल, बंडीधूरा बुग्याल ट्रैक, चिनाप फूलों की घाटी, दयारा बुग्याल, पंवालीकाण्ठा, चोपता, दुगलबिट्टा सहित कई बुग्याल हैं जो बरबस ही सैलानियों को अपनी और आकर्षित करते हैं।
मैती आंदोलन के जनक, पदमश्री और पर्यावरणविद्ध कल्याण सिंह रावत कहते हैं कि हर साल 16 अगस्त को बुग्याल संरक्षण दिवस मनाया जायेगा। प्रकृति नें दुनिया की सबसे खूबसूरत और अनमोल विरासत उतराखंड वासियों को सौंपी है। इसको सम्मान देना और संरक्षित रखना हमारा नैतिक कर्तव्य है। अगस्त के मध्य पूरे उतराखण्ड के सैकड़ो बुग्याल रंग बिरंगे फूलों से लद जाते हैं, ब्रह्म कमल की बगिया महकने लगती हैं और हजारों प्रकार की अनमोल जडी बूटियां अपनी महक बिखेरती हैं जिससे यही बुग्याल अमृत तुल्य बन जाते हैं। यही बक्त होता है जब उतराखण्ड की अराध्य देवी नंदा की हिमालय की ओर बिदाई इन्ही बुग्यालों से होती है। प्रकृति और आध्यात्म का यह अद्भुत समन्वय शायद ही दुनिया में कहीं दिखाई दें।
कल्याण सिंह रावत कहते हैं कि कि अमृत तुल्य इन बुग्यालों को सम्मान देने के लिए तथा संरक्षण प्रदान करने के लिए 16 अगस्त को सभी की सहभागिता जरूरी है। 16 अगस्त को सांय 8 बजे आप सपरिवार मैती फेस बुक पर लाइव कार्यक्रम से जरूर जुड़ें। हम बुग्यालों और वहाँ के अद्भुत आलौकिक संसार से आपका परिचय करायेंगेऔर यह भी बताएंगे कि 16 अगस्त को बुग्याल संरक्षण दिवस मनाने का औचित्य क्यों है? उन्होने कहा कि प्रकृति के इस अमृत रुपी बुग्यालों को बचाने और संवारने में जिन उतराखण्ड के प्रकृति प्रेमियों, वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं, साहित्यकारों, छाया कारों ने समर्पित रूप से काम किया है उन्हें इस दिवस पर “गिरि गौरव” सम्मान से नवाजा जायेगा। इन नामों की घोषणा 16 अगस्त को सांय 8 बजे फेस बुक लाइव कार्यक्रम में किया जायेगा. प्रति वर्ष 16 अगस्त को “बुग्याल संरक्षण दिवस” मनाया जायेगा और गिरि गौरव सम्मान भी प्रदान किया जायेगा।
बुग्यालो को लेकर पद्मश्री और मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत की 16 अगस्त को बुग्याल संरक्षण दिवस के रूप में मनाने की अनूठी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और इसको व्यापक समर्थन दिया जाना चाहिए। अगर बुग्याल रहेंगे तो ही जीवन रहेगा। कल्याण सिंह रावत जी को इस अनूठी पहल के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ।