बी.डी पांडे अस्पताल में “BETTY HUMM ” की बेकद्री। पुनर्निर्माण पर चिल्ड्रन वार्ड के फर्श पर रखा गया है 1958 के डोनर का शिलालेख।
(मनोज इष्टवाल 24 मार्च 2018)
1958 या 1959 ब्रिटिश काल से आजाद भारत की तरफ अभी देश के कदम बढे ही थे। ज्यादात्तर अंग्रेज नैनीताल व आस-पास क्षेत्रों से अपना बोरिया बिस्तर बांधकर अपने देश लौटने लगे थे लेकिन कतिपय ऐसे भी हुए जिन्होंने यहाँ की आवोहवा में अपनी पूरी जिंदगी गुजार दी थी, ऐसे में वापस इंग्लैंड या अन्य देश जहाँ-जहाँ भी उन्हें लौटना था, वह उनके लिए किसी मुश्किल से कम नहीं था। नैनीताल में स्कॉटिश ज्यादा थे, यह सभी जानते हैं।
बर्कले कैलफोर्निया की मलाको जूलोजिकल सोसाइटी-1958 द्वारा “द म्यूजियम” उस दौर में नैनीताल के सात ताल में चलाया जाता था जो एक्स गलेर्कुलाटा नामक मंडारिन डक के संरक्षण हेतु कार्य कर रहा था और उसके द्वारा इस पर शोध कार्य भी चल रहा था। यह मंडारिन बत्तख मुख्यतः ईस्टर्न सिचुआन, पूर्व गांसू, ईस्टर्न रूस , जापान , नार्थ ईस्ट पार्ट हेलिओंग्जियांग चीन, ईस्ट जिलिन, नार्थ हेबी इत्यादि से ब्रिटिश काल में भारत लाये गए जिन्हें नैनीताल के सात ताल नामक झील में लाकर छोड़ा गया और उस पर रिसर्च भी चला। यहाँ इसके वातावरण में यह बतख प्रफुल्लित हुआ और उसके अण्डों ने यहाँ उसकी ब्रीड बढाने का कार्य किया।
इसके बाद या इस से पहले यह मंडारिन बतख असम के कोकराझार, बोंगाई गाँव, धुबरी, गोलपारा, मणिपुर के लोकताल झील, पागलदिया नदी, डिब्रू नदी व रंगगोरा नदी सुबनसिरी नदी लखीमपुर (असम) में भी यह पाए गए जो वर्तमान में भी दिखाई देते हैं। वहीँ मणिपुर के सुगनू चंदेल जिला तौबुल क्षेत्र लोकपाल लेक में भी 112 साल पहले का इन बतखों का उल्लेख मिलता है।
यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि सात ताल या फिर नैनी झील में चलने वाली वोटों में जो बतख के आकार के डिजाईन बनाए गए हैं वे मंडारिन बतख की ही देन है। इनकी खूबसूरती से प्रभावित होकर “द म्यूजियम” सात ताल झील ने ऐसी वोट प्रचलन में लाने का फैसला किया व उन्हें स्पेशल डिजाईन करवाया।
BETTY HUMM या बेटी हम यह किसी अंग्रेज महिला या पुरुष का नाम था यह तो ज्ञात नहीं हो पाया लेकिन यह तय है कि लास एंजिलिस कैलिफोर्निया में आज भी यह सोसाइटी कार्यरत है। भले ही साथ ताल के आस-पास आज इसके अवशेष ज़िंदा न हों। BETTY HUMM ने इन्हीं मंडालिन बतखों की याद में 1958-1959 में बी.डी. पांडे हॉस्पिटल के निर्माणकाल में बच्चा वार्ड निर्माण हेतु चंदा दिया था जिसका शिलापट इस बात की गवाही है लेकिन अफ़सोस की पुनर्निर्माण में यह शिलापट उतारकर एक किनारे कर दिया गया है जोकि सरासर गलत लगता है।
आज भी जबकि भारत आजाद हुए लगभग 71 बर्ष हो गये हैं इन मंडालिन बतखों पर हर काल में शोध होता रहा है। ईसीएस (1902) ओच्कुरेंसऑफ़ मंडारिन डक इन इंडिया नामक पहला शोध जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (14:626-627) छपा! तब से वर्तमान तक इन पर लगातार शोध कार्य जारी है और कई पक्षी प्रेमियों की किताबें भी प्रकाशित हुई हैं।
साइवेंस एच. (1915) द्वारा नोट्स ऑफ़ बर्ड्स अपर असम, गिमसन सी. (1934) जर्नल ऑफ़ द बोम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी, madge एस. एंड एच बर्न (1988) द डक्स, चौधरी ए. (2009) ओर्निथोलोजिकल रिकार्ड्स फॉर्म मणिपुर नार्थ-ईस्ट इंडिया, सीसीएनसीएस (2013) मंडारिन डक रिपोर्टेड फ्रॉम लोकताल लेक, बोस, के.डी. चौधरी, पटगिरी एंड डी. रॉय (2014) एशियन वाटरफ्लो सेन्सस (2014) वेस्टलैंड ऑफ़ मानस बायोस्फियर रिज़र्व एंड इन द आईबीए ऑफ़ बोंगाईगाँव, कोकराझार, धुरबी, गोलपारा (असम) सहित दर्जनों शोध जहाँ आज भी इन मंडारिन बतखों पर जारी हैं वहीँ दुःख की बात यह है कि हमारे उत्तराखंड में न सिर्फ इन बतखों को आम बतखों की श्रेणी में समझा गया है बल्कि उन बतखों के भारत आगमन के 116 सालों बाद भी हम सिर्फ नैनी झील की वोटों में उनके प्रतीक चिन्हों को जरुर ढो रहे हैं, लेकिन एक भी व्यक्ति यह बताने को तैयार नहीं कि ये प्रतीक चिन्ह कब से प्रचलन में लाये गए व इनकी शुरुआत किस काल में हुई थी। वहीँ उस से भी बड़ी शर्म की बात यह है कि एक हिस्ट्री के रूप में “BETTY HUMM” की वह तख्ती भी हम नैनीताल के बी.डी. जिला अस्पताल के बच्चा वार्ड की मरम्मत में उखाड़ फैंकते हैं जिसने कभी इस वार्ड को बनाने में चंदा शायद इसलिए दिया हो कि यहाँ से जाते जाते हमारी यादों के कुछ निशाँ तो रहे कि हम समाज के प्रति कितने संवेदनशील थे।