देहरादून: तीन बाग़ियों (डाकुओं) का आतंक या देशभक्ति?
(स्वीटी टिंडे)
1822 में जब देहरादून पर अंग्रेजों का शासन शुरू हुआ तो घाटी में तीन डाकुओं का आतंक था। फ़रवरी 1823 में जब एफ जे शोरे को देहरादून-जौनसार भाबर और सहारनपुर का समग्र मजिस्ट्रेट बनाकर कर भेजा गया तो एक तरफ़ रानी धुन कौर विद्रोह पर उतारू थी वहीं कलुआ, कौर और भोरा का घाटी में आतंक था। रानी के विद्रोह की मंशा को तो आसानी से ख़त्म कर दिया गया पर ये डाकू पूरे क्षेत्र को से हफ्ता वसूलते रहे और लूटते रहे।
जब-जब अंग्रेज़ी सरकार उनके खिलाफ अभियान चलाते तो ये कालूवाला होते हुए पहाड़ी जंगलों में छुप जाते थे और जब पहाड़ी जंगलों से खदेड़ते तो रुड़की के पास कुंजा गाँव में स्थित स्थानीय गुज्जर तालुकदार बेजी सिंह के किले में छिप जाते थे। ये वही कालूवाला दर्रा है जो आज नरेंद्रनगर से रानी पोखरी होते हुए देहरादून जाती है और आज भी शाम के बाद इधर जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं माना जाता है। और ये वही कुंजा गाँव है जहां अक्तूबर 1822 में स्थानीय लोगों ने वहाँ के गुज्जर राजा विजय सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था वहां के स्मारक पत्रिका पर वर्ष 2020 में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कुंजा के विद्रोह को आज़ादी की लड़ाई लिखकर सम्बोधित किया था।
माना ये जाता है कि विद्रोह के कुचले जाने के बाद राजा के कुछ सैनिक और सेनापति देहरादून के जंगलों में छिप गए और वहीं से स्थानीय पहाड़ी लोगों के साथ साथ अंग्रेज़ी खजाने को लूटने लगे और डाकू कहलाने लगे l ये डाकू रुड़की के मैदानों के तो नायक थे पर पहाड़ों के खलनायक। कुछ समय बाद कलुआ डाकू राजा कुलैन सिंह कहलाने लगा और पहाड़ी किसानों से कर वसूलने लगा।
सितम्बर 1824 को कलुआ देहरादून से खदेड़े जाने पर कुंजा के क़िले में छिप गया जब क़िले का राजा बेजी सिंह ने कलुआ को सौंपने से मना किया तो अंग्रेजों ने 3 अक्टूबर को क़िले पर हमला किया जिसमें कलुआ मारा गया जबकि कौर और भोरा डाकू फिर से भाग गए। 9 अप्रैल 1825 को हरिद्वार से चार धाम यात्रा पर निकले 300 यात्रियों पर भोरा और कौर डाकू के नेतृत्व ने हरिद्वार से लगभग दस किलोमीटर दूर भूपतवाला के निकट हमला किया जिसमें ज्यादातर यात्री मारे गए।
इस घटना के बाद अंग्रेज़ी सरकार ने लछिवाला और मोतीचूर पहाड़ के बीच गोरखा छावनी बनवाई। अंग्रेजों ने डोईवाला और हँसूवाला के जमींदारों को डाकुओं को मदद नहीं करने के लिए सौ सौ रुपए का इनाम भी दिया। अब कौर और भोरा को ज्यादातर रुड़की और सहारनपुर के मैदान में ही समय काटना पड़ा जिसके कारण पहले कौर डाकू कुंजा के किले में मारा गया और बाद में 1828 में भोरा डाकू को पकड़कर फांसी दे दी गई।
चित्र: १) सहारनपुर ज़िला का मानचित्र जिसकी सीमा हरिद्वार तक थी और रुड़की सहारनपुर का हिस्सा था। (स्त्रोत: डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर ओफ़ सहारनपुर)
२) तीन डकैत (प्रतीकात्मक)(स्त्रोत:ब्रिटिश म्यूज़ियम)
३) दून वैली, 1850s (स्त्रोत: विकिपीडिया)