Monday, August 11, 2025
Homeउत्तराखंडखरगढ़ी से विश्वामित्र गुफा......! जहाँ विश्वमित्र ने तपस्या कर गायत्री मन्त्र का...

खरगढ़ी से विश्वामित्र गुफा……! जहाँ विश्वमित्र ने तपस्या कर गायत्री मन्त्र का जाप किया। यहीं तपस्या से उन्होंने नए स्वर्ग की रचना कर त्रिशंकु ऋषि को स्वर्ग भेजा।

खरगढ़ी से विश्वामित्र गुफा……! जहाँ विश्वमित्र ने तपस्या कर गायत्री मन्त्र का जाप किया। यहीं तपस्या से उन्होंने नए स्वर्ग की रचना कर त्रिशंकु ऋषि को स्वर्ग भेजा

गतांक से आगे….

खरगढ़ी से विश्वामित्र गुफा……! जहाँ विश्वमित्र ने तपस्या कर गायत्री मन्त्र का जाप किया।

यहीं तपस्या से उन्होंने नए स्वर्ग की रचना कर त्रिशंकु ऋषि को स्वर्ग भेजा।

यहीं स्वर्ग अप्सरा मेनका ने विश्वामित्र की तपस्या भंग की व अपने प्रेम-पास में बांधकर उनसे विवाह रचाया।

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 07 फरवरी 2021)

खरगढ़ी जो अपने साथ बिशालकाय डोजर (पत्थर) लेकर मालन नदी के बहाव को रोकने को आतुर दिख रही थी इस समय उसका अस्तित्व किसी पहाड़ी गदेरे से कम नहीं था! यहीं से रास्ता खरगढ़ी, पत्थरैकी बसी (विश्वमित्र गुफा), बिस्तर-काटल, उल्याल, तिमल्याल, धूर- केष्ट इत्यादि गाँवों को निकलता है! मैंने हृदय से इस नदी को प्रणाम किया क्योंकि इसी नदी से लगभग दो से ढाई किमी. ऊपर पत्थरैकी बसी (विश्वमित्र गुफा) थी! जहाँ ऋषि विश्वामित्र ने तपस्या की व पूरे विश्व की गायत्री मन्त्र “ॐ भूर्भुवः स्वाहा, तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।” का मंत्रजाप दिया!

श्रीमती सजवाण की चिंता..?

अब यह कहना तो सम्भव नहीं है कि अधिवक्ता अमित सजवाण द्वारा अपनी श्रीमती पूर्व कमांडेंट को यह कहा होगा लेकिन इतना जरुर कहूंगा कि श्रीमती सजवाण को सबसे पीछे रहने वाले व्यक्ति व टुकड़ी की सबसे ज्यादा चिंता थी! उन्हें भी इस दुर्गम राह पर उस हर खतरे का अंदेशा था जो मुझे था! यहाँ जंगली जानवर, नदी की बड़ी बड़ी शिलाएं, फिसलन भरे पत्थर और दूरुर मार्ग हर बार आपको चुनौती देते नजर आ रहे थे! शायद इसीलिए श्रीमती सजवाण अपनी सहेलियों का साथ छोड़ बीच के दल में शामिल हो गयी थी ताकि सभी पर उनकी नजर रह सके! उन्होंने एक बार मुझसे कहा भी- भाई साहब, हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हमसे पीछे बूढ़े बुजुर्ग लोग छूट गए हैं व कुछ कम उम्र के युवा भी..! हमें उन लोगों का इन्तजार करना चाहिए!

मक्वा ठाट….जहाँ कुछ ने खाना खाया तो कुछ ने स्नान किया।

हम इस समय बिशाल पत्थरों के ऊपर बैठे लेटे व खड़े थे! कुछ साथी जो पीछे रह गए थे उनके इन्तजार में ! समय भी दो बजकर 13 मिनट हो गया था! मैंने मित्रों से कहा जो अपने साथ खाना लेकर चले हैं कृपया खाना खा लें! कुछ साहसी मित्रों का नहाने का मन हुआ तो वे नहाने नदी में उतर गए! उधर बंसल साहब कभी मेरी तरफ किन्नू उछालते तो कभी केला व बिस्कुट..! शुक्रिया बंसल साहब..! आप द्वारा सम्पूर्ण टीम के लिए फ्रूटी, अप्पी, फ्रूट्स की व्यवस्था रखी हुई थी! सबसे बड़ी बात यह कि ट्रैकिंग में आदमी सोचता है कि मेरे हाथ की लाठी भी कोई और पकड़कर चलता तो कितना अच्छा था! लेकिन आप यह सब सामान साथ लिए आगे बढ़ रहे थे! बस यहाँ पर सुस्ताये तो सुस्ता ही गए! लगभग आधा घंटा हम सबने यहाँ बिश्राम किया फिर आगे की राह पकड ली!

जब हमने मालिनी नदी को छोड़ पुराना राजबाट (जिला परिषद का पैदल पथ) पकड़ा!

लगभग पौन किमी. पैदल चलने के बाद नदी से कम से कम 200-300 मीटर उंचाई से हमें अपनी अडवांस टीम के साथियों की सीटियाँ सुनाई दी! वे दो या तीन युवा थे जो हमें ऊपर आने को कह रहे थे क्योंकि वे चाहते थे कि हम अब नदी के रास्ते न बढ़ें बल्कि अब जिला परिषद के रास्ते पर आयें! यह क्षेत्र शायद आमडाली का कहलाता है! हमारे दो मन थे! पहला यह कि ऊपर चढ़ते हैं लेकिन रास्ता है कहाँ से? दूसरा छोड़ो यार…उन्हें जाने दो हम नदी-नदी बढ़ते हैं! लेकिन यहाँ मुसीबत यह थी कि अब नदी नदी चलने का रास्ता बेहद दुरूह लगने लगा था क्योंकि अब तक हम कई दर्जन बार नदी के ओर और छोर बदल चुके थे जिससे जूते व आधी से अधिक पैंट, ट्रेक, जींस, पैजामा सभी का भीग चुका था क्योंकि अब तक सब पारंगत हो चुके थे कि यदि पानी से बचने की सोची तो जरुर कोई न कोई चोट खा जाएगा क्योंकि पानी के उपर दिखने वाले कई पत्थर आपको चोट खाने की दावत दे रहे थे व पानी के अंदर के पत्थर आपको फिसलने को उकसा रहे थे! इसलिए मेरे बचपन के वे अनुभव उन सभी लोगों के काम आ रहे थे जिन्हें नदी का अनुभव नहीं था! बचपन में हम अपने गाँव के नीचे बहने वाली नदी में मछलियां पकड़ने जाया करते थे तब ये अनुभव अच्छे से लिए हुए थे इसलिए मैं जिसे भी देखता उसे ही कहता कि पानी के अंदर दिख रहे पत्थरों की जगह ऐसी जगह पैर रखो जहाँ पत्थर न हों! एक सबसे कम उम्र के युवा ट्रैकर्स को पूर्व में लगा कि वह शायद उम्रदराजों से ज्यादा अनुभवी साबित हो सकता है लेकिन वह तेजी से फिसला और अपने आप को पूरा भिगो गया! मेरा फार्मूला आपस में पास होता हुआ धीरे-धीरे पीछे की तरफ बढ़ता रहा उससे एक अच्छी बात हुई कि कोई अनहोनी नहीं हुई!

सीटियों की आवाज में मैंने दो तीन युवाओं को कहा कि जो सीटियाँ बजा रहे हैं वे बमुश्किल हमसे 200 या 300 मीटर ऊपर हैं! इसलिए आप लोग ज़रा रास्ते की रैकी करके आओ! वे ऊपर बढे और मैं नदी के बहाव के साथ नीचे की ओर नदी का मिजान देखने निकल पड़ा! जो देखा उसने सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी! तब तक ऊपर से सीटी बजाते हुए युवा चिल्लाये – सर, रास्ता मिल गया है, अब हम इस रास्ते आगे बढ़ सकते हैं!

हाथियों का स्नान, ताज़ी लीद व नदी तट के बिशाल पत्थरों में गीले छाप! 

यहाँ आकर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि खतरनाक से खतरनाक जानवर भी सुबह दुआ करके निकलता होगा कि हमें इंसान ना ही दिखे तो भला! यहाँ कहूंगा कि पूरण भाई का हाका लगाने वाले व्यक्ति की आवाज से ही हाथियों ने अपना स्नान निबटाकर जंगल की ओट में कहीं दुबकने की जगह ढूंढी होगी क्योंकि उनकी लीद में तेज स्मेल थी और बहुत सारी ताज़ी लीद मेरे बिलकुल पास ही थी! वहीँ हाथियों के टापों के निशाँ में गीली रेत अभी भी शामिल थी तो नदी किनारे के बिशालकाय पत्थरों पर चिपकी गीली रेट में उनके बिशाल बदन का अक्स यह साफ़ दिखा रहा था कि यह झुण्ड ज्यादा दूर नहीं है अपितु नदी के आस-पास ही कहीं हम पर निगाह रखकर हमारी रैकी कर रहा है!मेरे अलावा यह कितने और मित्र समझ पाए होंगे मैं नहीं जानता लेकिन एक आध से ही मैंने इस बारे में चर्चा की और जरा भी कोशिश नहीं की कि मेरी नजरें उन्हें ढूंढें, क्योंकि ऐसा भी सम्भव था कि मेरी नजरों से सामना होने पर हाथी अगर पास हो तो हमला बोल सकता है! फिलहाल अब हम सब नदी छोर छोड़कर जिला परिषद के पुराने राजपथ पर पहुँच चुके थे व यहीं से फिर एक बार आवाज गूंजी….! पूरण भाई….ओs पूरण भाई! इस हाके ने मेरे थके बदन को प्रफुल्लित कर दिया क्योंकि मैं भी चाहता था कि ऐसी बुलंद आवाज नदी घाटी को चीरती रहे ताकि जंगली जानवर सावधान रहें व हमसे उनकी आँखें दो चार न हों!

सिद्धार्थ बंसल व महिमा सेमवाल!

दोनों ही स्कूली छात्र-छात्रा! सिद्धार्थ से कम मुलाक़ात हुई लेकिन महिमा अचानक सिद्धार्थ से आगे निकलकर मुझसे मिली व उससे थोड़ी गप्प-शप्प हुई! पता लगा वह नौवीं कक्षा की छात्रा है! उनके मम्मी पापा पूर्व में चंडीगढ़ रहते थे और अब कोटद्वार में व्यवसाय कर रहे हैं! महिमा को कोटद्वार शहर महानगरों की तर्ज पर उतना पसंद नहीं है क्योंकि कोटद्वार शहर में उसे 8 या 9 बजे के बाद रात्रि पहर में बाहर निकलना डरा देने जैसा लगता है! उसके अनुसार यहाँ बेटियाँ देर रात्रि सडक या बाजार में घूमे इस तरह का माहौल नहीं है! वह कुछ देर बतियाती हुई मेरे साथ कदमताल करती आगे बढ़ रही थी कि एक सूखी नदी पार करते ही उसका मित्र सिद्धार्थ प्रकट हुआ और उससे लगभग नाराज से तेज कदमों के साथ आगे बढ़ा! शायद महिमा उसे पीछे छोड़कर आगे बढ़ गयी थी! महिमा को भी लगा कि सिद्धार्थ नाराज हो गया है इसलिए उसका नाम पुकारती हुई वह भी तेजी से उसके पीछे लपक गयी! मेरे होंठ मुस्करा दिए क्योंकि यही तो बचपन की मिठास है, पल में तोला, पल में मासा! लेकिन इस गुस्से में हुआ यह कि वे गलत रास्ते पर नीचे निकल गए! मेरे साथ अब तक बड़ी बड़ी मूंछों के शानदार फोटोग्राफर व ट्रैकर दिग्विजय सिंह नेगी जुड़ चुके थे! सिद्धार्थ व महिमा को हमने कई आवाजें दी लेकिन प्रत्युत्तर नहीं मिला! सीटियाँ भी बजाई लेकिन कोई रिप्लाई नहीं! मेरी चिंता बढ़नी स्वाभाविक थी क्योंकि इस समय यह घनघोर जगह था! दिग्विजय बोले- आप रुको मैं उन्हें लाता हूँ! और उसी रास्ते झाडी में घुस गए! हम अब तक लगभग 200 मीटर आगे बढ़ चुके थे लेकिन कोई रिस्पोंस न मिलने पर श्रीमती उषा सजवाण भी चिंताग्रस्त दिखने लगी! लेकिन कुछ देर बाद मूछों वाला बांका जवान दिखा व उसके पीछे ये दोनों युवा..! सचमुच बड़ी राहत की सांस ली!

अश्विनी… डिस्कवरी का बेयर ग्रिल्स व “मैन वर्सेस वाइल्ड”!

हमारी टीम में एक युवा मेरी आँखों में काफी फोकस रहा! कारण यह भी था कि वह अपने से ज्यादा अपने साथ चल रही मित्र की चिंता कर रहा था! वह हर बार सम्भलकर चलने की टिप्स देता और बेहद सतर्क निगाहों से आगे बढ़ता! नाम….अश्विनी! हो सकता है इन्होने पहले भी ट्रैकिंग की हो लेकिन यह ट्रैक सचमुच दूर से दिखने में बेहद आसान था लेकिन था बेहद दुरूह! मुझे अश्विनी के मिजाज में केयरिंग पॉइंट बहुत पसंद आये लेकिन चेहरे पर उभरते व गिरते गुस्सैल स्वभाव के भाव उस मनोवृत्ति के खांचे में सही नहीं लग रहे थे! मैं खुश था कि वह पूरी जिम्मेदारी के साथ अपना व अपनी फ्रेंड का ध्यान रख रहा है!

यह क्या….! यहाँ तो आदमी क्या जानवर भी नहीं जा सकता! पूरा रास्ता नदी में समाया हुआ था! सच कहूँ तो इस समय मुझे ट्रैकिंग टूल्स याद आ गए! उम्मीद ही नहीं थी कि इस रास्ते में ऐसा भी कुछ होगा! पहाड़ की मनोदशा समझने में मेरी चिंता का बिषय अब फिर वर्मा जी थे कि सब तो आ ही जायेंगे लेकिन वर्मा जी कैसे निकलेंगे! यह तो डिस्कवरी का बेयर ग्रिल्स व “मैन वर्सेस वाइल्ड” जैसी स्थिति हो गयी! एक के बाद एक हम चार ने जैसे तैसे यह बेहद फिसलन भरा तीखा रास्ता (रास्ता कहना ही पड रहा है) पार किया! इसे रास्ता कहना रास्ते के साथ नाइंसाफी होगी! क्योंकि जरा सी चूक आपको 500 मीटर नीचे खाई में गिरा सकती थी जहाँ रुकने का कोई विकल्प नहीं था! अब बारी अश्विनी की थी! मुझे लगता है अश्विनी के लिए यह बेहद डरावना था क्योंकि अश्विनी ही क्या हम में से किसी ने भी जब यह रास्ता देखा तो डर अंदर पेट तक समा गया! गढवाली भाषा में कहूँ तो यह हृद्र कांप गये वाली बात थी! शायद हृदय कम्पा देने वाली…! सबसे बड़ी बात यहाँ पर उपर पकड़ने के लिए किसी पेट कि इतनी मजबूत टहनी भी नहीं थी कि व्यक्ति उसके सहारे आगे बढ़े! अश्विनी ज्यादा घबरा गए क्योंकि उन्हें पैर रखने ही नहीं आ रहे थे! उन्हें जहाँ पैर रखने को कहा जाता वहां वे उलटा पैर डाल रहे थे! उनके जूतों में फिसलन थी इसलिए पैर बार-बार संतुलन खो देते! वैसे ही वे ढीलडौल में भी मजबूत थे! लाख इंस्ट्रक्शन के बाद भी वे नाकाम होते नजर आये! ऐसे में कुछ दुस्साहसी युवा आगे बढे! जिनमें दिग्विजय सिंह नेगी, अभिषेक डबराल व एक अन्य शामिल थे जबकि पीछे से पूरे कांफिडेंस के साथ अजय अधिकारी उन्हें आगे को पुश करते व सभी निर्देश देते! इसके बाद भी अश्विनी के पाँव कांप रहे थे! यह अक्सर सभी के साथ होता है क्योंकि जब हर तरफ से गाइडेंस मिलनी शुरू हो जाती है तो आपातकाल में आदमी का दिमाग काम करना छोड़ देता है! बहुत देर कमर पर हाथ टिकाये ब्रह्मास्त्र जुयाल जी यह सब देख रहे थे, वे अचानक नीचे की तरफ उतरे! मेरे मुंह से छूटा- अरे सम्भल के! उन्होंने मेरी बात को नजरअंदाज किया और बोले! बढ़ो-बढ़ो, मैं हूँ नीचे खड़ा! कहीं नहीं गिरने देता! मैंने एक लम्बे से लट्ठ से वहां सीढियां बनाने की कोशिश भी की लेकिन सब निरर्थक! आखिर दिग्विजय, अभिषेक व अजय ने निजी बेहद तालमेल के साथ वहां पैर रखने लायक जगह बना ही दी!

थैंक्स गॉड, अश्विनी आखिर पार कर ही गए! उनके बदन में पसीना इतना नजर आया मानों नहाकर बाहर निकलें हों! वहीँ छोटे सिद्धार्थ बंसल को मैंने वर्मा जी को सम्भालकर लाते हुए देखा तो मन प्रसन्न हो गया! इस जगह सिर्फ अश्विनी ही नहीं हम सबकी अश्विनी जैसी ही हालत थी! सच ये है कि हम अपने भाव छुपा गये!

एक और आफत ठंडू पानी…व लाल पुल!

अडवांस टीम में बहुत अडवांस निकल चुके अधिवक्ता अमित सजवाण व उनके छोटे पुत्र की झलक दिखी तो लगा पूरी अडवांस टीम यहीं बैठी हमारा इन्तजार कर रही है लेकिन मैं  दिग्भ्रमित हो गया था! अचानक ध्यान आया कि अडवांस टीम में एक शख्स ऐसा भी है जो जब चलता है तो घोड़े के मानिंद चलता है! ध्यान आया रतन असवाल जी का…! आंकलन सही निकला! अमित सजवाण जी शक्ल दिखाकर गायब हो गए और बेटा अपनी माँ की खबरसार पूछता हुआ हम सबके साथ टीम में शामिल हो गया! शायद अमित जी को लग रहा था कि काफी देर हो चुकी है! मैं खुश था कि अब पीछे की सारी टुकड़ियां मध्य टीम में शामिल हो गयी हैं।

एक आफत से अभी निबटे ही थे तो मुंह बाए दूसरी आफत नजर आई! यहाँ चट्टान के कई हिस्सों में रेशों के आकार में पानी टपक रहा था! स्थानीय इसे ठंडू पानी के नाम से जानते हैं! यहाँ भी बेहद संकरा व खतरनाक रास्ता था! कहीं पर दोनों हाथ टेककर नीचे उतरना पडा तो कहीं पर बंदर या कुत्ते की तरह हाथ पैर मजबूती से रखकर चट्टान पकड़कर आगे बढना पड़ा! फिर उसके बाद एक ढाल आया और दूर लाल पुल दिखाई दिया जिसमें हमारी अडवांस टीम आराम फरमा रही थी!

लाल पुल के लिए नीचे उतरना था! अडवांस टीम एक एक करके ही पुल में आने की इजाजत दे रही थी! आखिर ऐसा क्यों..! प्रश्न बाद में दिमाग में उठा पहले पुल के बीच के लगभग 6 फिट से अधिक हिस्से का भाग देख जबाब मिल गया था! यहाँ पूरा एक टुकडा नदी में समाया था! हलकी सी गलती आपको सैकड़ों फिट नीचे नदी में आपका कचूमर निकालने के लिए काफी थी! पुल को पार करने के लिए उसमें दो बड़े-बड़े सूखे वृक्ष रखे हुए थे, जिन पर चलने के लिए आपको पुल का ऊपरी हिस्सा मजबूती से पकड़कर आगे बढना था! अब टप्पी की बारी थी! उसने मौक़ा मुहाइना किया और लम्बी जीब निकालकर पीछे खड़े व्यक्ति को हाँफते हुए देखा, लेकिन कोई रिस्पोंस न पाकर चुपचाप वापस मुड़ा व नदी में घुस गया! मैं टप्पी को देखता रहा और वह नदी पार कर दूसरी ओर पुल में पहुँच गया! उसे लग गया था कि इंसानों से ऐसे मौके पर उम्मीद करनी बेकार है जब उसी की जान आफत में हो! टप्पी की ललचाई नजर ने शायद इसलिए देखा था कि मनुष्य उसे गोद में उठाकर पार ले जाए लेकिन यकीन मानिए यहाँ टप्पी का यह आरोप बेबुनियाद था क्योंकि यहाँ दोनों हाथ पुल का उपर हिस्सा पकड़कर ही पार करना पड़ता!

जीएमवीएन व रीजनल मैनेजर सरोज कुकरेती!

लाल पुल पार अडवांस टीम के ज्यादात्तर सदस्य अब तक बंगले में पहुँच चुके थे! यहाँ से जीएमवीएन का बंगला लगभग 3 किमी. था! अब मुझे कोई चिंता नहीं थी इसलिए तेज डग बढाता मैं अब अपनी टीम को पीछे छोड़ आगे बढ़ने लगा! कुछ ही मीटर आगे बढ़ा था कि मोबाइल की घंटी घनघना उठी! बहुत समय बात फोन की आवाज सुखद लगी! देखा जीएमवीएन की रीजनल मैनेजर सरोज कुकरेती जी का फोन है! फोन पर उन्होंने हाल चाल पूछा! व सम्पूर्ण यात्रा की अपडेट ली! दरअसल उनका भी चिंतित होना लाजिम था क्योंकि हमने उन्हें डेढ़ बजे तक पहुँचने का समय दिया था और यहाँ हमें तीन से ज्यादा बज चुके थे! उन्होंने बताया कि यहाँ सबके लिए हलवा पूड़ी, सब्जी, छोले, रायता व मेरे कहे अनुसार दो तीन लोगों के लिए दाल चावल की व्यवस्था की गयी थी!

मैं मन ही मन बोला-काश…मैडम, आइटम न गिनाती तो अच्छा ही था क्योंकि भूख से आंत पेट पर चिपक गयी थी व पेट के भूखे कीड़े कुलबुला रहे थे!

 

Himalayan Discover
Himalayan Discoverhttps://himalayandiscover.com
35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
RELATED ARTICLES