(विनोद मुसान)।
कंप्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट के इस दौर में किताबें पीछे छूटती जा रही हैं, पहले तो लिखी नहीं जा रही हैं, जो लिखी जा रही हैं, उन्हें पढ़ने वालों की संख्या लगातार घटती जा रही है। मैं अगर खुद की ही बात करूं तो पहले मैं बहुत सी किताबें लगातार पढ़ता था, लेकिन कुछ समय से विभिन्न कारणों से मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूं। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में सीनियर आईपीएस अशोक कुमार (डीजीपी, उत्तराखंड) द्वारा लिखी पुस्तक *खाकी में इंसान* पर चर्चा सत्र आयोजित किया गया था। मैं बतौर रिपोर्टर इस कार्यक्रम में शामिल हुआ।
सवाल-जवाब का सत्र चला तो अशोक कुमार जी बोले, विनोद तुम कुछ पूछना चाहोगे? लेकिन मैं कैसे कुछ पूछ सकता था, मैंने तो किताब पढ़ी ही नहींं थी। आत्मग्लानि हुई। आपके स्टेट के एक बड़े अधिकारी ने अगर लीक से हटकर एक किताब लिखी है तो वह पढ़ी जानी चाहिए थी। अपने प्रोफेशन में अपडेट रहने के लिए यह जरूरी है। बहरहाल, इच्छा तो थी, लेकिन यह भी सच है कि मैं किताब पढ़ ही नहीं पाया था। अगले दो दिन बाद ही डाक से किताब मुझ तक पहुंच गई। जो खुद पुस्तक के लेखक ने सप्रेम मुझे भेंट की थी। जैसे पुस्तक के लेखक ने खुद एक पारखी पाठक ढूंढ लिया हो।
साभार…! डीजीपी साहब।
इसके बाद भी बहुत दिन तक मैं किताब नहीं पढ़ पाया। अब पढ़ी तो उसके बारे कुछ लिखने से खुद को रोक नहीं पाया। खाकी में इंसान के बारे में मैं कुछ लिखूं, इससे पहले आपको एक किस्सा सुनाता हूं।
पत्रकारिता के करियर में आप भले ही क्राइम बीट न देख रहे हों, लेकिन गाहे-बगाहे ही सही आपका पाला पुलिस से पड़ ही जाता है। अब ये ‘पाला’ अच्छा था या बुरा, ये परिस्थितियों पर निर्भर करता है। अपनी बात करूं तो मेरा सामाना खाकी के दोनों ही रूपों से हुआ है। संक्षेप में एक रात की आपबीती सुनाता हूं।
…रात दो बजे दफ्तर का काम खत्म करने के बाद पैदल ही घर के लिए निकला था। पीछे से एक साथी बाइक पर आने वाला था। मैं अकसर ऐसा करता था। इस बहाने थोड़ी वाक हो जाती थी। लेकिन आज की रात मित्र पुलिस ने काली कर दी। अंधेरे में एक खोखे की आड़ में बैठे दो लोगों में से एक ने आवाज दी। ओ..ई, इतनी रात को कहां से आ रहा है?
समझते देर न लगी, पुलिस वाले हैं। तेज कदमों की चाल थोड़ी मद्धम हो गई, लेकिन वे रूके नहीं। यही बात मित्र पुलिस का खटक गई। मैंने चलते-चलते इस अंदाज में कहा, जैसे ये तो मुझे जानते ही होंगे। …भाई ऑफिस से आ रहा हूं। घर जा रहा हूं। फिर क्या था, उन्होंने बाइक स्टार्ट की और मेरे बगल में रोकते हुए पीछे वाले ने उतरते ही धकिया दिया। मैं कुछ समझते हुए खड़ा हुआ तो इतनी देर में एक लट्ठ भी धर दिया। लट्ठ धरने वाला मुजफ्फरनगरी था और बाइक चला रहा पहाड़ी।
मैंने बोला भाई क्या कर रहे हो? ऐसा कौन सा जुर्म कर दिया। कर्फ्यू थोड़े ही लगा है, जो कोई रात में सड़क पर नहीं चल सकता। बदतमीजी का ये सिलसिला और आगे बढ़ता, मुझे बोलना पड़ा, पत्रकार हूं भाई..। अभी ऑफिस से निकला हूं। पहाड़ी तो ठंडा पड़ गया, लेकिन मुजफ्फरनगरी अभी भी ऐंठ में था। वो लगातार बदतमीजी पर उतारू था। तभी मैंने फोन कर अपने एक सिनियर को भी बुला लिया। उन्होंने दोनों को आड़े हाथ लिया।
उस वक्त मन में ठान लिया था, इनकी इस गुस्ताखी की शिकायत कल प्रातः खुद जाकर इनके उच्चाधिकारियों से करूंगा। लेकिन जैसा कि मेरा स्वभाव है, अगले दिन मैं रात की घटना को किसी बुरे सपने की तरह भूल गया। ये खाकी के साथ मेरा बुरा पहलू था, अच्छे इतने हैं कि, लिखने लगूंगा तो एक किताब भर जाएगी। व्यावसायिक जीवन में मैंने अगर दोस्त कमाए हैं, तो उनमें से बहुत से लोग खाकी पहनते हैं, …और यह तब है, जब मैंने अपने करियर के 20 सालों में मुश्किल से एक साल क्राइम बीट देखी है।
उपरोक्त किस्सा मैंने लिखा है- मैं लिख सकता हूं, पत्रकार हूं…। मैं ही क्यों, कोई भी आम आदमी अपनी आपबीती लिख सकता है। लेकिन जब पुलिस से जुड़े ऐसे ही कई किस्से एक आईपीएस लिखता है, तो चीजों का मतलब बदल जाता है। समझने वाले के लिए पुलिस की पाठशाला में इससे बेहतर चेप्टर दूसरा नहीं हो सकता।
पहले तो सोचा किताब एक आईपीएस ने लिखी है, वहीं घिसी-पीटी मोटा-मोटी ज्ञान की बातें होंगी, जो अकसर उच्च पदों पर बैठे लोग करते हैं। ऐसा ज्ञान, जिसे समझने में ज्ञानी में बगले झांकने लगे। लेकिन, चूंकि ज्ञान की बात उच्च पद पर बैठे व्यक्ति ने लिखी है, समझ आए या न आए, तारीफ तो करनी ही है, यह मानव सभ्यता का वह गुण है, जो उसे विरासत में मिला है।
लेकिन, यहां तो मामला उलट ही निकला। आप तो बिल्कुल देहाती निकले डीजीपी साहब! माना कि आपने अपने जीवन की शुरूआत ग्रामीण परिवेश से की है। हरियाणा के छोटे से गांव से निकलकर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ तकनीकी संस्थान आईआईटी दिल्ली और उसके बाद भारतीय पुलिस सेवा में कार्य करते हुए सर्वोच्च पद पर विराजमान हुए। लेकिन आप ऐसा कैसे लिख सकते हैं, जिसे दिन में सुस्ताते हुए एक रिक्शा वाला भी अपनी कमर सीधे करते हुए किसी पेड़ की छांव में वैैसे ही पढ़े, जैसे एसी चेंबर में बैठा कोई आईएएस या आईपीएस।
सच कहूं तो मुझे आपसे जलन हो रही है। जलन हो रही है, उन मठाधीशों को, जो जन लेखनी पर अपना एकाधिकार समझते हैं। सच कहूं तो किताब पढ़ने के बाद मुझे अब भी यकिन नहीं हो रहा है कि कोई पुलिसिंग में रहते हुए भी इतनी सरल भाषा में एक आम आदमी की कहानी लिख सकता है। किताब में वास्तविक घटनाओं को जिस अंदाज में पिरोया गया है, काबिलेतारीफ है। किताब पढ़ने के बाद कोई भी व्यक्ति इस नतीजे पर पहुंच सकता है, यदि सोच अच्छी हो तो खाकी में रहकर भी इंसान बने रहना इतनी भी मुश्किल नहीं है। आपने किताब में समाज के ज्वलंत मुद्दों जैसे-आतंकवाद, अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई, महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, कानून के दुरपयोग के साथ खाकी के द्वारा ही जाने-अनजाने में की जाने वाली नाइंसाफी को जिस अंदाज में उकेरा है, उससे आने वाली पीढ़ियों को जरूर सीख मिलेगी। मेरे हिसाब से आम आदमी को तो यह पुस्तक पढ़नी ही चाहिए, लेकिन पुलिस सेवा में कार्यरत हर छोटे-बड़े कर्मचारी, अधिकारी को तो यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए।
किताब में आपने अपने पुलिस करियर के विभिन्न पड़ावों पर घटने वाली घटनाओं को बहुत ही सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। पंच परमेश्वर वाली घटना ने मुझे काफी प्रभावित किया। कैसे समाज में बैठे ठेकेदार अपनी नाक की साख को बचाने के लिए किस गर्त तक जा सकते हैं। उस पर एक पुलिस वाले द्वारा पर्दा डालने की कोशिश और दूसरे पुलिस वाले द्वारा पर्दा उठाने की कोशिश बताती है कि अंधियारे के जंगल में रोशनी की एक किरण हमेशा मौजूद रहती है। बस समय रहते उसे ढंढूने की जरूरत होती है। जेलर जेल में और आतंकवाद के साए में खाने-पीने के बाद बिस्तर गर्म करने के लिए घर की बेटी को भेजने की डिमांड अंदर तक झकझोर देती है। बच्ची के बलात्कार में पत्नी द्वारा पति का साथ देने की घटना शर्मशार होने को मजबूर कर देती है तो रिश्वत के लिए ट्रक ड्राइवरों को पांच से छह दिन तक नाके पर रोककर रखने के साथ विजलेंस के एक अफसर द्वारा रिश्वत के लिए चोरी के मामले में फंसाने की घटना बताती है कि कैसे आम आदमी भ्रष्ट अधिकारियों के चंगुल में फंसकर अपना सुख चैन गंवा देता है।
लेकिन किताब का एक पहलू यह भी साथ-साथ बताता चलता है कि अगर आप अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं और आपके भीतर अन्याय के खिलाफ लड़ने का जरा सा भी मद्दा है तो मुश्किलें आसान होती चली जाती हैं। यह किताब का सार्थक पहलू है, जो समस्या बताने के साथ निदान के उपाय भी सुझाता है। अकसर लोग अन्याय के खिलाफ आवाज न उठाकर खुद भी उस अन्याय का हिस्सा बन जाते हैं। जैसे यदि कोई रिश्वत मांग रहा है तो हम रिश्वत देकर खुद भी उस पाप के भागीदार बन जाते हैं। लेकिन जब हम थोड़ी सी हिम्मत बटोरकर अन्याय के खिलाफ लड़ने की ठान लेता है, तो दूसरे लोग खुद-ब-खुद जुड़ते चले जाते हैं, जो आपकी इस हिम्मत को मुकाम तक पहुंचाने में मददगार साबित होते हैं।
आखिर में, इतना कहना चाहूंगा- आपने लीक से हटकर लेखनी का जो कदम आगे बढ़ाया है, इसे निरंतर जारी रखें। आपकी पोटली में जाने ऐसे कितने किस्से-कहानियां और होंगे, जिन्हें अभी आपकी कलम के माध्यम से बाहर आना है। खाकी में इंसान रचना के लिए आपको पुनः बधाई और शुभकामनाएं।