Thursday, November 21, 2024
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जौनसार के ठाणा डांडा का बिस्सू…एक ऐसा मेला जो झगडे के बाद शुरू हुआ।

जौनसार के ठाणा डांडा का बिस्सू…एक ऐसा मेला जो झगडे के बाद शुरू हुआ।

(मनोज इष्टवाल)

बात जब जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र की आती है, तब वहां के तीज त्यौहारों की खुशबु मनोमस्तिक पर यूँ छा जाती है, मानो एक ऐसे लोक की लोक संस्कृति के दर्शन हो रहे हों जो आज भी अपनी परम्पराओं के लिए जुटती है और उनके अनुशरण के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने को आतुर रहती है।

फूलियात से यानि बैशाखी के दिन से शुरू होने वाला बिस्सू मेला यूँ तो जौनसार बावर की हर ऊँची थात में उसकी खत्तों के अनुसार जुटता था, लेकिन कालान्तर से वर्तमान तक आते आते यहाँ भी संस्कृति में बाहरी सभ्यता का पदार्पण होने से अब ये मेला सिमटने लगा है।

खुरुडी थात में जुटने वाला बिस्सू मेला पुन: प्रारम्भ हुआ तो ऐसे हुआ कि अब यह विराट रूप लेने लगा है, जबकि रामताल गार्डन (चौली थात) का प्रसिद्ध बिस्सू मेला लगभग ख़त्म हो गया है। जिसकी यादों की कशिश मैंने खुद महसूस की है क्योंकि इसके अंतिम चरण का बिस्सू मैंने अपनी आँखों से देखा है।

लखवाड की ऊँची थात का बिस्सू हो या फिर नौगांय की थात का बिस्सू जाने क्यों ये सिमटने लगे हैं। वहीँ सुप्रसिद्ध खत भरम के कांडोई का बिस्सू कई बर्षों बाद पुन: शुरू हुआ है यह खुशखबरी की बात है। काण्डोई के बिस्सू में यहाँ प्रचलित थाउड़ा व जूडा नृत्य देखते ही बनता था। साथ ही महासू देवता के मंदिर के पास जुटने वाले इस बिस्सू की बानगी यह थी कि यहाँ महिलायें पुरुषों को ललकारती थी कि है हिम्मत तो आओ हमारे साथ नृत्य करके दिखलाओ। वहीँ ऐसा ही पुरुष वर्ग भी करता था और यह प्रतिस्पर्दा देखते ही बनती थी लेकिन समाज के वैश्वीकरण ने अब क्या सुरक्षित रखा है कह पाना मुश्किल होगा।

बहरहाल ठाणा डांडा जोकि चकराता शहर के कैंटोमेंट बोर्ड की सरहद में पड़ता है और यहाँ आज भी मेला जुड़ने से पहले छावनी परिषद की स्वीकृति लेनी पड़ती है। आपको बता दें कि यहाँ का बिस्सू सबसे पुरातन माना जाता है क्योंकि इसका लगभग 218 साल का इतिहास आज भी यहाँ के लोगों को पता है। अन्य बिस्सू स्वाभाविक तौर पर और अधिक पौराणिक हो सकते हैं क्योंकि मेले-कौथीग हमारी लोकसंस्कृति के वे हिस्से हैं जिनका ऐतिहासिक व सामाजिक महत्व कालान्तर से चला आ रहा है। ब्रिटिश काल में अंग्रेजों द्वारा इसे अपने दस्तावेजों में शामिल किया है।

बिस्सू न सिर्फ जौनसार बावर बल्कि छतीसगढ़ का भी मेला रहा है। ठाणा डांडा में बिस्सू की शुरुआत का जन्म एक झगडे की वजह से हुआ है। स्थानीय अख़बार गढ़ बैराट के सम्पादक भारत चौहान (बारू चौहान) बताते हैं कि सन 1803 में साहिया क्षेत्र में पड़ने वाली अमलाव नदी के बिस्सू में खत्त अठ्गॉव के ठाणा गॉव और साहिया के आस-पास की विभिन्न खत्तों में मत्स्य आखेट के इस त्यौहार में बड़ा झगड़ा हो गया जिसमें ठाणा गॉव का बीच बचाव करने के लिए पूरी बणगॉव खत्त के लोग उनकी ओर हो गए। झगडा निबटने के बाद ठाणा गॉव के सयाणा ने बणगॉव खत्त को अपनी मित्रता को चरम तक कायम रखने के लिए कुछ ऐसा करने का सुझाव दिया ताकि यह मित्रता कालान्तर तक चिरायु रहे। आखिर तय हुआ कि ठाणा डांडा की ऊँची थात में बणगॉव खत्त मेला लगाएगी जिसकी जिम्मेदारी ठाणा गॉव लेगा। फिर क्या था तब से अब तक निरंतर यह मेला आयोजित होता है और यह भाई चारा आज भी वैसा ही कायम है जैसा सदियों से चला आ रहा है।

जहाँ फुलियात के दिन यहाँ तडके जंगलों से बुरांस के फूल लाकर मंदिर व घर फूलों से सजाने की परंपरा रही है। वहीँ मेले के दिन या अंतिम दिन यहाँ की गनियात का शरूर ही कुछ अलग होता है, लेकिन गनियात अब बहुत ही सूक्ष्म रूप में दिखती है। पहले ग्रामीण महिलायें ढ़ोल बाजों के साथ चुराणी थात जोकि गढ़ बैराट के पास पड़ती है से गानी के फूलों की कोंपल तोड़कर लाती थी जिनका साग बनाया जाता था लेकिन अब चुराणी का स्थान बदल गया और चौली थात के आस-पास सांकेतिक रूप से गनियात की परम्परा मनाई जाती है। कभी चौली थात पर जुड़ने वाला बिस्सू देखते ही बनता था लेकिन अब यहाँ 3 मई को लगने वाले शहीद केशरी चंद मेले की वजह से यहाँ का बिस्सू समाप्त हो गया है, जोकि एक लोकपरम्परा के लिए अच्छा संकेत नहीं है। ठाणा के बिस्सू में विगत बर्ष लगभग 30 हजार लोग जुटे यह अनुमान लगाया गया है। इस बर्ष भी ऐसा ही कुछ उम्मीद की जा रही थी लेकिन खुरुड़ी थात में जुटने वाले बिस्सु मेले के कारण इस बर्ष यह आमद पिछले बर्ष की भाँति कम रही.

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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