Friday, August 22, 2025
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उत्तराखंडी लोक विरासत की घुघूती-बसूती में विराजते च्वाँ चिलँगी, भाना-कूड़ी जैसे शब्द।

(मनोज इष्टवाल)

घुघूती-बासूती.
क्य खांदी-
दुदभाति.!
क्ये हुंदा..
कांसे थकुली.!
घुल्येली …
ब्वे मेरी!
माँ कख छ.
झुल्ला धूणु.!
झुल्ला कख छन ?
धारा मूडी.!
धारू कख छ.?
बल्दल उज्याड़ेली.!
बल्द कख छ.?
च्वां चिलंगी ..!
सर्ग पात़ाळ !
च्वां चुलंगी…
भाना कूड़ी..।। (गढवाळी)0

घुघूती बासूती
भउवा खालो दूद भाति।
निनुरी आ निनुरी
कथा हुनी भाजी।
घुघूती बासूती
भउवा सैs जा ओs…!
जुन्यालि का डवारा बांधी,
पलना बढूं लो।
मठु-मठु ठुम्मा-ठुम्मा,
झूलना झुलौलो।
भउवा कै निनुरी आली,
तू जै होलि साची।
घुघूती बासूती
भउवा खालो दूध-भाती।
निनुरी आ निनुरी,
कथा हूनि भाजी,
घुघूती बासूती
भउवा सैs जा ओs।। (कुमाउनी)

सच में उत्तराखंडी बिरासत में रचे बसे ताने-बाने अपने आप में जीने की एक ऐसी कला हैं जिनका कोई तोड़ नहीं है। आज पान्डवाज श्रीनगर के भाइयों की प्रस्तुति दिखाते हुए चन्द्रशेखर चौहान ने मुझे मेरे बचपन में ला दिया। इसे इत्तेफाक ही समझिये कि दीदी व भाबी के बीच चर्चा करते वक्त अनुष्का शर्मा की माँ पर केन्द्रित एक डायलाग लिल्ली वैरी सिल्ली…! यह डायलॉग मुझे शनिधाम के महान ज्योतिष व विश्व प्रसिद्ध पंडित बड़ोनी जी के मुखारबिंद से सबसे पहले सुनाई दिया था।

इसी पर जब चर्चा कर रहा था कि हमारी बिटिया छुटकी बोल पड़ी चाचाजी अनुष्का शर्मा तो कई बार अपनी लोकसंस्कृति की चर्चा करती है, जैसे उसने टीवी प्रोग्राम में घुघूती- बसूती सुनाकर सबको गद्गद कर दिया था। मैं फट से बोला – देखा अनुष्का की माँ कितनी संस्कारिक होंगी जिन्होंने उन्हें घुघूती-बसूती सिखाया है। अगर छुटकी तू अनुष्का की जगह फेमस होती तो तू कहाँ से सुनाती घुघूती बासूती..!
वह तपाक से बोल पड़ी – ऐसा मत ही बोलो चाचा जी, यहाँ तो मम्मी हर रोज घुघूती-बसूती सुनाती है। दीदी के बेटे को कभी पैरों में उठाकर तो कभी कंधे में झुलाकर। हम देहरादून रह रहे हैं तो क्या अपने संस्कार भूल जायेंगे!
लाजवाब मैं कुछ बोल पाता तब तक बिट्टू बीच में बोल पड़ा- अरे चाचा जिस दिन अनुष्का का यह प्रोग्राम आ रहा था, उस दिन जेठी भी सुन रही थी। जेठी कहने लगी ये आगे का पीछे, पीछे का आगे बोल रही है। ये अभी चल रहा था कि किचन गार्डन से भाबी व दीदी भी आ गयी बिट्टू मुझे छेड़ता हुआ बोला- जरा आप ही सुनाओ तो..! क्या है घुघूती बासूती……..?

मैंने कोशिश की लेकिन दंग रह गया, तब तक भाबी और दीदी बोल पड़ी कि यह इस तरह नहीं बल्कि इस तरह है। यानि जो मैंने ऊपर लिखा वही उन्होंने सुनाया। भला मैं अपनी इस लोक व्यवहार में बर्णित शब्दावली का श्रृंगार करने से कैसे चूकता। मैंने फटक से कलम निकाली और कलम कागज़ पर दौड़ पड़ी। सब तो समझ आया लेकिन बाद का च्वां चुलंगी या च्वां चिलंगीभाना कूड़ी शब्द ने मुझे विस्मित कर दिया ।

अब च्वां चिलंगी का शाब्दिक अर्थ अगर ढूँढा भी जाय तो उडती हुई चील या कौवा हुआ लेकिन ये चुलंगी शब्द क्या है इस पर उलझ पड़ा..! मुझे लगता है यह शब्द चुलंखी होगा यानि ऊँचे हिमालयी पर्वत ! लेकिन यह भाना कूड़ी क्या हुआ…?

दिमाग चकरा गया जब मैंने भाबी से मतलब पूछा तब उन्होंने जवाब दिया- भाना कूड़ी का मतलब जब छोटे बच्चे के हम लेटे-लेटे हाथ पकड़कर पैरों के छत्ते पर उठाकर उसे खुश करते हैं तब भयां न पोड़ी शब्द को भाना कूड़ी कहा गया।  यानि नीचे मत गिरना। 

ओहो तो ये भाना कूड़ी शब्द भय्यां न पोड़ी  का अपभ्रंश है। अब पूरी तरह समझ गया कि इस च्वां चुलंगी या चिलंगी या भाना कूड़ी से की परिकल्पना का क्या संसार रहा होगा। दैनिक दिनचर्या को निबटाती माँ के लिए जब बच्चा रोता है, तब दादी या दादा या फिर नानी-नाना या पिता-चाचा जो भी हो इस तरह बच्चे का दिल बहलाता था। उसे भूख के लिए खीर, तो प्रकृति प्रदत्त खिलौने के रूप में बैल,पाणी, कपडे सबसे रूबरू करवाकर धरती से अनंत आकाश की ऊँचाइयों में ले जाने का जो स्वांग रचता है यह सब…!  जो वास्तव  में अतुलनीय है।

गरुड़, कौवा व भानुपंखी आकाशगामी पक्षियों के मध्य अपने बच्चे को परिकल्पना संसार में भेजने का यह सगुफा यकीनन हैरत में डालने वाला है। ये शब्द जाने कितनी पीढियों से गुजरते हुए इस पीढ़ी तक आज भी ज़िंदा हैं।
और जब वहां से उठाकर मैं चन्द्रशेखर चौहान जी के स्टूडियो पहुंचा तो ताजुब ये कि उन्होंने भी मुझे घुघूती-बसूती गीत सुनाया। बोले- देखिये भाई साहब, किस तरह पांडवाज के ये भाई ईशान, शलिल, कुणाळ डोभाल और उनके पिताजी काम कर रहे हैं। यकीन नहीं होता…!

जब मैंने अमित थपलियाल की आवाज में नए प्रयोगों के साथ लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी जी का देवू रावत निर्देशित व निर्माण का गीत सुना- “कथा कथगुली आणा-पखाणा, स्ये ग्येनी तेरा खेल खिलौणा.. दिवा- बाती जून गैणा हे…स्ये जा स्ये जा बाळआ तू भी स्ये जा हे..” सुना तो आत्ममुग्धता के चरम पर पहुँच गया। 

निर्माता निर्देशक पांडवाज ने जिन फीलिंग्स के साथ कार्य किया है वह अतुलनीय है। वहीँ घुघूती-बसुती का झुला जब पुरानी यादों को ताजा करता हुआ घर के पौराणिक स्वरूप को छूता कुर्सी के साथ झूलता है तो यकीनन कोई भी अपनी बढती धडकनों को काबू करने की कोशिश जरुर करेगा लेकिन सिर्फ वही जिसने अपने पिताजी, चाचा जी, ताऊ जी, ताईजी, दादा दाई नाना नानी और माँ सहित जाने कितने पारिवारिक सदस्यों के गले में बान्हे डाले यह झूला झूले होंगे।
प्रकृति प्रदत्त अपने उत्तराखंड के लोक समाज में जाने ऐसे कितने ताने बाने हैं जो सुनने और सुनाने में बहुत छोटे लगते हैं लेकिन जब उनकी ब्याख्या का मन हो तो पूरा लोक संसार रच देते हैं।

आज सचमुच देहरादून के आवास में तैरते ये शब्द इस बात का गर्व करवा गए कि सिर्फ हमारे संस्कार हमारी पीढी जिन्होंने गांव में कई बर्षों तक जीवन यापन किया, उन्ही के साथ समाप्त नहीं हुए बल्कि हमारी बहनें जो अब माँ या दादी-नानी बन गयी हैं वे भी अपने संस्कारों के ताने-बानों के साथ इस परंपरा को भानुपंखी बना अनन्त आकाश तक पहुंचाने की कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही हैं।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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