Friday, March 14, 2025
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रूपकुंड का छोरा ‘परू’…….! पार्ट-4

4.रूपकुंड का छोरा ‘परू’…….!

(केेेेशव भट्ट की कलम से)

मीठी सी ठंड दस्तक देने लगी तो हम सभी अपने-अपने कमरों में चले गए. सुबह जल्दी उठे तो बाहर का नजारा बेहद चित्ताकर्षक था. सामने बांहे फैलाए नंदाघुंटी मानो बुला रही थी. नीले आसमान में चांद और सूरज की जुगलबंदी चल रही थी. नीचे पहाड़ की ढलान पर सीढ़ीनुमा खेत याद दिला रहे थे कि इन्हें तैयार करने के लिए किसानों को पहाड़ों के साथ कठिन संग्राम करना पड़ता है और शरीर से प्राण निकलने तक उनका यह संग्राम जारी रहता है.
लोहाजंग का छोटा सा कस्बानुमा बाजार सुबह-सुबह जैसे अलसाया हुआ जग रहा था. कुछेक दुकानों के किवाड़ धीरे-धीरे अंगड़ाई लेते हुए खुल रहे थे. 1998 में जब मैं पहली बार यहां आया तो यहां बमुश्किल चार-पांच दुकानें थीं और आगे वाण गांव के लिए पैदल रास्ता था. अब वाण गांव तक पतली सर्पिलाकार मोटर रोड बन चुकी है. भले ही वह हर बरसात के बाद महीनों तक बंद ही रहती है. विकास की किरणें भी हिमालय के बीहड़ कन्दराओं में जैसे कहीं गुम हो जाती है.
शाम को बताया गया था कि सुबह नाश्ते के बाद नौ बजे लोहाजंग से दीदिना गांव के लिए ट्रैकिंग शुरू हो जाएगी, लेकिन पराठे बनाने वाला भी पूरी तन्मयता से पराठे बना रहा था. जैसे हर किसी को गर्मागर्म पराठे खिलाए बिना मानने को तैयार नहीं. प्लेट जितने पराठे के साथ अचार और दही से खाने वाले तृप्त होते तो कारीगर भी गर्व से भर उठता. दीदिना गांव से कूच करते-करते दस बज गए.
करीब 8100 फीट की उंचाई पर बसा दीदिना गांव, लोहाजंग से साढ़े आठ किलोमीटर की दूरी पर है. बीच में कुलिंग गांव पड़ता है. रकसैक कंधों पर डाल सड़क नापनी शुरू की. 2014 की राजजात यात्रा के वक्त लगा डामर सड़क से गायब था. किलोमीटर भर आगे सड़क के गड्ढों पर पड़े कंकड़ों पर डामर की कालिख पोतते मजदूर दिखाई दिए. मजदूर भी उस रसोइये की तरह होते हैं जो मेहनत तो पूरी करते हैं, लेकिन जब मालिक ही अच्छा राशन नहीं देगा तो उनके हुनर पर क्या अंगुली उठाना..!
घंटे भर में हम कुलिंग गांव के पास थे. सड़क से नीचे कुलिंग गांव बसा हुआ है. अब गिने-चुने परिवार ही यहां रहते हैं, वह भी अपनी गाय-भैंसों की देखरेख के लिए. गांव के नीचे हो रहे भूस्खलन से कुलिंग और वेदना गांव वालों को अब दीदिना में बसा दिया गया है. सड़क किनारे गांव के रास्ते में बना खूबसूरत प्रवेश द्वार के बाद का रास्ता टूटने से अब बंद कर दिया गया था. घोड़े-खच्चरों में ट्रैकिंग का सामान लादा जा रहा था. उनके मालिकों ने हमें बताया कि आगे मोड़ से नीचे कच्चे रास्ते से उतरते चले जाना है. नीचे ढलान में बेतरतीब पगडंडी को पार कर मुख्य रास्ते में पहुंचे तो लाल-पीली छटा बिखेरते चौलाई-फाफर के लहलहाते सीढ़ीदार खेतों को देखकर मन खुश हो गया. खेतों को पार करने के बाद आगे चौड़ा रास्ता था. बरसात में यह रास्ता कई जगहों पर टूटकर नीचे बेदनी गंगा में समा गया था. नया रास्ता उसके ऊपर पहाड़ को काट कर बनाया था. अनगढ़ पत्थरों के खडंजे वाली घंटेभर की तीखी उतार के बाद हम बेदनी गंगा के किनारे पहुंच गए. सामने कल-कल बहती पतली सी कैल नदी के दोनों ओर साथियों का झुंड पसरे हुए दिखा. रकसैक किनारे रखकर बोतल में पानी भरा तो बर्फीली ठंडक से सिहरन सी दौड़ गई. यहां कैल नदी मानो वेदनी गंगा से मिलने को आतुर होकर दौड़ती सी प्रतीत होती है.
जारी…

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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