(मनोज इष्टवाल)
ट्रैकर्स ग्रुप कोटद्वार ने आखिर राज्य स्थापना दिवस की शाम तय किया कि वे अपने राज्य स्थापना के 20वें बर्ष की यादें ऐसे ट्रैक के साथ साझा करेंगे जो चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली से सम्बन्ध रखती हो। फिर क्या था गढ़वाल मंडल विकास निगम की रीजनल मैनेजर सरोज कुकरेती ने इसे क्षेत्र में पर्यटन विकास की सुनहरी सीढ़ी बताते हुए फौरन इस ट्रैक की तैयारी की और आखिरकार 15 सदस्यीय टीम ने 10 नवंबर 2020 को सुबह लगभग सवा नौ बजे कण्वाश्रम की धुली को चूमते हुए कण्वाश्रम से राजदरबार तक के ट्रैक की तैयारी की।
सच कहूं तो इस ट्रैक के लिए मुझसे जीएमवीएन की रीजनल मैनेजर सरोज कुकरेती जी की पूर्व चर्चा हुई थी व उन्होंने जानकारी देते हुए बताया था कि उनके एमडी आशीष चौहान चाहते हैं कि कण्वाश्रम घाटी के वो ट्रैक चिन्हित हों जो चक्रवर्ती सम्राट भरत, ऋषि कण्व, मेनका-विश्वमित्र, शकुंतला- दुष्यंत से जुड़े हों।
बात वैदिक काल की हो और उसकी किस्सागोई यूँही शांत हो जाए, भला इसे कैसे हो सकता था। मुझे फौरन से अपने एक अधिवक्ता मित्र अमित सजवाण व छोटे भाई समान संजय थपलियाल याद हो आये। उन्हें फोन किया और रातों-रात एक टीम ट्रैक्टर्स ग्रुप कोटद्वार की तैयार हुई और हम निकल पड़े कण्वाश्रम जीएमवीएन के बंगले से राज दरबार के लिये। अमित सजवाण यूँ भी मालन घाटी के उद्गगम मलनिया से लेकर चौकी घाट कण्वाश्रम तक की वैदिक कालीन सभ्यता व चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली को लेकर काफी समय से इस क्षेत्र की यात्राएं कर रहे हैं।
हमारे 15 सदस्यीय दल का नेतृत्व करने वाले हमारे गाइड 6 फिट से भी ऊंचे चंद्रमोहन के हाथ थी, जो पूरे मालन क्षेत्र के जंगल के चप्पे-चप्पे से वाफिक थे।
मालन नदी के बहाव के दांयी ओर हमारा ट्रैक प्रारम्भ हुआ जो शून्य शिखर के बिल्कुल विपरीत दिशा में साल-सागौन के घने जंगल से होकर निकलता है। यह वन्य क्षेत्र कण्वाश्रम स्थित जीएमवीएन के बंगले के पीछे से निकलती कच्ची पगडंडीनुमा सड़क से आगे बढ़ती हुई उदयरामपुर के घुमाव सड़क मोड़ पर मिलती है। यहीं से चंद्रमोहन अपनी लम्बाई से भी लंबे डंडे के साथ जंगल की ओर मुड़ गए। बमुश्किल 50 मीटर चढ़ने के बाद नाक की तरह खड़ी चढाई से आपको मुकाबला करना होता है। यह काम तब दूभर हो जाता है जब आप बर्षों से मैदानी भू-भाग की जिंदगी जी रहे हों, क्योंकि पहाड़ की ओर बढ़ते कदम के साथ-साथ वहां आक्सीजन की कमी व पर्यावर्णीय शुद्धता आपकी साँसों को धौकनी की तरह बना देती हैं। आपके फेफड़ों व गुर्दों में जमा चर्बी आपसे मुठभेड़ करने को तैयार हो जाती है। यही हमारे कुछ मित्रों के साथ भी हुआ। बमुश्किल पौन किमी. चढ़ने के बाद कई की हालत ऐसी हो गई थी कि वे वापसी के लिए तैयार दिखे। दरअसल ये सब वे मित्र हुए जिन्होंने पहाड़ पूर्व में कभी चढ़ा ही नहीं। मेरा मतलब इस तरह की दुरूह चढाई उन्होंने कभी नहीं चढ़ी। खैर जैसे ही 300 मीटर सामांतर रास्ता मिला इनका विचार बदल गया क्योंकि अब तक वह चर्बी पिघलकर पसीना बन गयी थी जो खुंदक में सिर्फ हम सबके कपड़े व चेहरा ही भिगो सकती थी। अब मैने भी राहत की सांस ली क्योंकि यह पहला इत्तेफाक था जब हमारी ट्रैकिंग यूनिट के कुछ नए ट्रैकर्स हमसे जुड़े थे। 15 सदस्यीय टीम में जीएमवीएन की रीजनल मैनेजर सरोज कुकरेती, प्रणिता कंडवाल, अधिवक्ता अमित सजवाण, संजय थपलियाल, दिग्विजय सिंह नेगी, सौरभ गोदियाल, प्रशांत कुकरेती, कपिलराज निषाद, रोशन कोटनाला, रवि अग्रवाल, यश सजवाण, मनोज नेगी, संदीप रावत और मैं स्वयं मनोज इष्टवाल शामिल हैं।
घसियारी मन्दिर….!
लगभग पौने दो घण्टे लगातार चलकर आपके कदम एकाएक एक जगह रुक पड़ेंगे क्योंकि यहां एक बड़े से पत्थर के नीचे कुछ मूर्तिनुमा पाषाण हैं। यह प्रथम दृष्टा ही लगता है कि कोई मन्दिर है। लेकिन यह कैसा मन्दिर है जिसमें फूल-फल व धन की जगह घास चढ़ाई हुई है। यह हमारी पूरी टीम के लिए अचरज भरी खबर थी क्योंकि कोई पाषाण मूर्तियों के मंदिर में गन्ध पुष्प की जगह घास की एक मुट्ठ चढाई जाय यह पूरी टीम के लिए नया अनुभव था।
इसी जिजीविषा को शांत करने की आवश्यकता पड़ी तो उदयरामपुर के दो योगा अध्यापक याद हो लिए जो हमारी टीम के सदस्य थे वे जड़ी बूटियों की तलाश में वैदिक गुरुकुल आश्रम महाविद्यालय के गुरुजी के साथ अक्सर मालन घाटी के पर्वत शिखरों पर विचरण करते रहते हैं। ये योगा शिक्षक मनोज नेगी व संदीप रावत हुए। संदीप रावत बताते हैं कि यह मंदिर सिद्ध बाबा का हो सकता है क्योंकि जंगल के वही राजा हुये जिनके अधीन यहां की प्रकृति जंगली खूंखार से खूंखार जानवर हैं। यहां हमारी माँ बहनें जब जंगल में घास लकड़ी काटने जाती हैं तब उनकी आस्था इन्हीं पाषाणों में निहित है। उनके पास चढ़ाने के लिए न फूल होते हैं न फल या गन्ध पुष्प, धन इत्यादि। ऐसे में यह उनकी आस्था व परिश्रम की एक मिसाल है कि वह चढ़ावे में एक मुट्ठी घास यहां चढ़ाया करती हैं और सिद्धबाबा से जंगल में अपने को सुरक्षित रखने की कामना करते हैं।
गाइड चन्द्रमोहन के अनुसार यह घास की मुट्ठ माँ बहनों की प्रकृति व यहां के पाषाणों के प्रति वह आस्था है जिसकी कोई मिशाल देनी बहुत मुश्किल है क्योंकि अपनी दरांती को घास छुवाने तक उनके रोवें रोवें में प्रकृति के प्रति एक श्रद्धा होती है। वह जंगल, प्रकृति व पाषाणों से अपने को जंगली जानवरों से सुरक्षित रखने के लिए के साथ साथ सिद्धबाबा से अपने पशुधन की रक्षा की भी कामना करते हैं, ताकि इन औषधीय पादपों के साथ भूलवश कोई जहरीली घास उनकी घास के साथ उनके पशुओं के मुंह लग जाय तो उन्हें कोई नुकसान न हो।
सच कहूं तो यह कहानी दिल को छू लेने के लिए काफी थी क्योंकि पहाड़ और पहाड़ की नारी का जंगल प्रेम भी उतना ही बड़ा आदर्श है जितना उनके लिये उनका पशुधन। ये माँ बहनें इस जंगल में शेर, बाघ, चीता, सुअर, भालू, ग्वीड-काखड़, अजगर, सांप व जाने अन्य कैसे कैसे जंगली जानवरों नित दो चार होती हैं। हाथी का तो यह कॉरिडोर क्षेत्र है। यहां जहां जाओ पूरी जंगली रास्तों में हाथी की लीद बिखरी रहती है। ऐसे में जंगल के प्रति व यहां के पाषाणों के प्रति ये माँ बहनें उतनी ही आशावान व विश्वास रखती हैं जितना अपने घर परिवार के प्रति। और यह उनकी श्रद्धा का प्रतिफल ही है कि मीलों फैले इस जंगल में कभी ऐसी अप्रिय घटना नहीं घटी जिससे माँ बहने कभी जंगली जानवरों की शिकार बनी हों। यहां प्रकृति आपको जितना प्रफुल्लित करती है उतने ही शांत प्रकृति चित्त यहां जानवर भी विचरण करते हैं।
यहाँ हर पत्थर जहां भी आप आराम करते नजर आते हैं वह हर घसियारी का आराम करने का स्थल कहा जा सकता है क्योंकि यहां के पत्थरों दराँतियों को धार लगाने वाले निशाँ मिलते हैं, जिन्हें पल्यन्थर कहा जाता है। सिद्ध बाबा के प्रति इसे आस्था कहें या फिर जंगल व प्रकृति के प्रति परिश्रम की एक मुट्ठी घास. .! यह वह अनमोल उपहार है जिसका कोई मोल नहीं। सच में इस मंदिर जो घसियारियों की आस्था का केंद्र है। वहां चढाई गई घास साबित करती है कि आस्था की एक चुंगटी धूल भी सच्चे मन से चढाई जाय तो वह ईश्वर अंगीकार कर लेते हैं। घसियारियों के इस अनूठे मन्दिर के प्रति हमारा नतमस्तक होना लाजिम था। यह मंदिर हमें वह अनुशासन प्रकृति के प्रति सिखा गया जिसका हम अपनी यात्रा में अब अनुशरण करने को बाध्य हो गए।
क्रमशः……!