जोहार घाटी के धरतीधार में अनूठा मंदिर..! जहाँ मन्नत पूरी होने पर चढ़ाए जाते हैं काठ के घोड़े!जोहार घाटी के धरतीधार में अनूठा मंदिर..! जहाँ मन्नत पूरी होने पर चढ़ाए जाते हैं काठ के घोड़े।
(मनोज इष्टवाल)
प्रथम दृष्टा ही दिमाग में एक बात कौंधती है कि कहीं यह दारती धार (धर्ती धार) का मन्दिर गोलज्यू देवता का तो नहीं? लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि गोलज्यू देवता मंदिर है तो इसका नामकरण दारती धार क्यों? जोहार घाटी के हिमालयी क्षेत्र में गाँवों से सुदूर 10000 फिट की ऊँचाई पर अवस्थित इस मन्दिर की खूबी यह है कि यह मन्नत पूरी होने पर बोना व गोल्पा गाँव के लोग काठ का घोड़ा बनाकर चढाते हैं!
गोरिल, गोलू, गोलज्यू, गौर भैरव, गोरिल कन्डोलिया और जाने कितने अन्य नामों से जाने गए गोलज्यू देवता के जागरों को जब आप ध्यान लगाकार सुनें तब पता चलता है कि गोलज्यू देवता के दादा हलराय व पिता झलराय भी धौली-धुमागढ़ के अधिपति थे! इतिहासकारों ने सुविधानुसार इसे धौली नदी व धुमागढ़ को धुमाकोट से जोड़ दिया व सारे वृत्तांत को उलझा दिया! कई इतिहासकारों ने तो हलराय झलराई व गोलज्यू को चम्पावत का राजा बता दिया जबकि चम्पावत की स्थापना कत्यूरी राजवंश के बाद लगभग 11वीं सदी में हुई बताई जाती है व गोलज्यू देवता को कत्युरी काल से पहले यानि सातवीं-आठवीं सदी का बताया जाता है! ऐसे में इतिहास का यह मिश्रण दिग्भ्रमित करता है! धौली-धुमागढ की अगर ढूंढ की जाय तो स्वाभाविक सी बात है कि वह मल्ला जोहार घाटी में होना चाहिए वह भी गोरी नदी के उद्गम के आस-पास ! क्योंकि गोलज्यू की जागर में स्पष्ट है कि सौतिया ढाह के चलते रानी कलिंगा की सात सौतों ने गोलज्यू को लोहे के बख्शे में बंद कर बहा गोरी नदी में बहा दिया था जिसे भाना धेवर नामक मछवारे ने कालि नदी-गोरी नदी संगम के पास अपने जाल में फंसाकर बाहर निकाल दिया था! बक्से में बालक को देखकर उसका क्या नाम दें इसी असमजंस में भाना धेवर ने गोरी नदी से बहकर आने के कारण बालक का नाम गोरिल रख दिया! स्वाभाविक सी बात है कि जौलजीवि पर काली व गोरी नदी का संगम है व गोरी नदी घाटी जिसे तल्ला-मल्ला जोहार कहते हैं शौका यानि शक जाति के नाम से जानी जाती है! जिसका सीधा सा अर्थ है कि धौली-धूमागढ़ मदकोट से लेकर हिमालयी दर्रे में कहीं होना चाहिए!
१- धर्तीधार मंदिर २- मंदिर में चढ़ाए गए काठ के घोड़े ३- बोना गाँव
हो न हो दारती धार (धर्ती धार) कालान्तर में वही स्थान रहा हो क्योंकि यहाँ पौराणिक काल से लेकर काठ के घोड़े चढाने का रिवाज है! काठ की कठघोड़ी के बारे में निम्नलिखित प्रसंग जोड़े जा सकते हैं जिनमें कुमाऊं में प्रचलित एक काव्यगीत या कहावत के अनुसार कहा गया है कि “गौंs गौंs घर कूड़ी आवा, यस चली हाउ! गोलू की कठघोड़ी घूमू, अजुगति काउ! जाँ काठैs कठघोड़ी जाँछ, लागि जाँछ म्याल! ओ भाना कुंवर त्यर, दूध कस ब्याल!!” (गाँव-गाँव घर-घर अब ऐसी अफवा चली है कि लकड़ी के घोड़े में गोलू घूमने जाता है! यह एक अनहोनी बात है! जहाँ कहीं भी यह काठ की कठघोड़ी जाती है, वहां देखने वालों का मेला लग जाता है! बहाना धेवर का यह कुंवर दिखने में अति सुंदर है, मानों दूध का कटोरा है!) श्री गोल ज्यू काथ(श्री गोलू देव की कथा, पृष्ठ ७२/कवि कृष्ण सिंह भाकुनी)!
वहीँ जाने माने इतिहासकार शिब प्रसाद डबराल “चारण” अपनी पुस्तक “प्राग-एतिहासिक उत्तराखंड अध्याय –वैदिक आर्य, पृष्ठ 160 में लिखते हैं कि “इस (शक) जाति का देव चिह्न अश्व था! अनुमान किया जाता है कि पश्चिमी एशिया में अश्व पालने वाली सबसे पहली जाति यही थी!”
इतिहासकार सुरेन्द्र सिंह पांगती अपनी पुस्तक शौका प्रदेश का प्रागैतिहास (तथा इतिहास कालक्रम व जोहार के कुछ अछूते प्रसंग) के अध्याय-10 पृष्ठ संख्या 135/138 में क्रमशः लिखते हैं कि “गोरीगंगा घाटी के बोना गाँव के ऊपर 10 हजार फीट की ऊँचाई में स्थित दरती-धार में प्रति बर्ष दीवाली से पूर्व एक पूजा अनुष्ठान होता है, जिस में काठ का घोड़ा चढ़ाया जाता है!” वह आगे लिखते हैं- “कुमाऊं के चंदवंशीय राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा स्थित किला (जहाँ वर्तमान में जनपदीय मुख्यालय स्थित है, के मध्य में स्थित महा-लक्ष्मी मंदिर की दीवार पर उकेरी गयी अष्ट कमल-दल, नवग्रह कुंडली में कमल-दलों के बाहर उत्तर दिशा में घोड़ा अंकित किया गया है! पूर्व में मेंढा, दक्षिण में कव्वा तथा पश्चिम में हाथी अंकित किये गया है! कदाचित उत्तर दिशा में स्थित सीमान्त घाटियों के शौका निवासियों के अश्व देवचिन्ह को दर्शाया गया है!”
बोना गांव (जोहार मल्ला)
11 मार्च 2018 को मैं अपने सहयोगी जीवनचन्द जोशी व दिनेश भट्ट, श्रीमती कविता जोशी, गरिमा जोशी व हरीश जोशी के साथ इस क्षेत्र का भ्रमण किया था, पहले उक्कु महल और फिर हमने कोशिश की कि हम गोरी नदी के उद्गम स्थान की ओर बढ़ें लेकिन मदकोट को ही हम यह मानकर कि हो न हो यही जोहार घाटी गोरिल के पिता झलराय का धौली-धुमागढ रहा हो! उत्तराखंड का इतिहास लिखना वास्तव में बहुत टेडी खीर है क्योंकि यहाँ लिखित से ज्यादा मौखिक तथ्यों का किंवदन्तियों का व लोकगाथाओं का पीछा करते हुए आपको वृत्तांत जोड़ना पड़ता है जिस पर कई इतिहासकार सन्दर्भों की कमी के कारण पूरे शोध पर पानी फेर देते हैं! ऐसे में हम सबसे पहले शौका जाति अर्थात शक वंशजों के आगमन से इस पूरे प्रकरण को जोड़ते हैं! इतिहासविदों का मानना है कि यह जाति प्रथम सदी के प्रारम्भ में शकस्थान (ईरान के पूर्वी भाग) बाल्हिक से होकर भारत पहुंची! यहाँ आकर वह तक्षशिला, मथुरा व उज्जयनी में आ बसे! लेकिन अष्टाध्यायी से पता चलता है कि यह जाति विक्रम संवत पूर्व पांचवी सदी(शती) उत्तर पश्चिम भारत में आ बसी! यह ज्यादा बलबती इसलिए कही जा सकती है क्योंकि खस जाति कभी भी उच्च हिमालयी क्षेत्र में नहीं बसी सिर्फ शक जाति ने ही उच्च हिमालयी क्षेत्र पर अपना अस्तित्व स्थापित किया है!
धर्तीधार मंदिर के पास ही जस्सू उडियारी है! कूच लोगों का मानना है कि यहाँ गोरिल देवता के पिता अक्सर हिमालयी मृगों का शिकार करने के लिए रुका करते थे तो कुछ इसे सत्रहवीं सदी-अठाहरवीं सदी के शौका जनजाति के जसपाल बूढा से जोड़कर देखते हैं जिसने 9 बार गोरखाओं की जोहार पर कब्जा करने की नीति को फेल कर दिया और हर बार गोरखा हारकर वापस लौटे! 10वीं बार गोरखाओं को सफलता मिली! जोहार के शौकाओं के हूणियों (तिब्बतियों) से ब्यापारिक सम्बन्ध काफी मजबूत रहे हैं! इसीलिए इस क्षेत्र को धन सम्पन्न माना जाता रहा है! यहीं से मंछु शौका के साथ जोहारी नया जोहार बसाने गढवाल क्षेत्र के नीति घाटी में गए जहाँ उन्होंने गिरथी-डोब्ला गाँव बसाए! जोहारी बोलियों में भी अंतर है! हर घाटी में बोलियाँ बदल जाती हैं जैसे जोहार घाटी में बोली जाने वाली भाषा रडकश (रंकश), ब्यांस, चौंदास व दारमा घाटी में रड-ल्वू (रं-लू) व नीति माणा घाटी में इनकी बोली को रौंडपा कहा जाता है!
फिलहाल मुख्य बिषय पर लौटते हैं! क्षेत्रीय विधायक हरीश धामी का मानना है कि काठ के घोड़े चढाने की परम्परा जोहार घाटी में प्रागैतिहासिक काल से है! यहाँ गोरिल देवता के अलावा छुरमल व काला सेम के मंदिरों में भी काठ के घोड़े चढ़ाए जाते हैं! ब्यांस घाटी के ही जिलाधिकारी पौड़ी धिराज गर्ब्याल जानकारी देते हुए बताते हैं कि उनका ननिहाल भी इसी क्षेत्र में है और पूर्व में यहीं से जोहार घाटी के लोग तिब्बत में ब्यापार करने जाया करते थे! वहीँ बोना गाँव की ग्राम प्रधान श्रीमती उषा देवी बताती हैं कि उनके गाँव व गोल्पा गाँव से हर बर्ष धर्तीधार मंदिर में मन्नत पूरी होने पर काठ के घोड़े चढाने का रिवाज है! यही बात बोना गाँव के ही बाला सिंह जेष्ठा भी दोहराते हैं! वे बताते हैं कि धर्तीधार मंदिर के पास ही जस्सू उडियारी है! अक्सर मौसम खराब होने के कारण ग्रामीण जस्सू उडियारी में आश्रय लेते हैं!
यहाँ एक बात अभी भी स्पष्ट नहीं हो पाती कि क्या धौली धुमागढ ही वर्तमान में धर्तीधार है या फिर गोरी घाटी में यह स्थान वह है जहाँ गोरिल देवता ने अपनी सातों सौतिया माँओं को अपने काठ के घोड़े को पानी पीने देने की बात कही थी? आज भी यह एक बड़े शोध का बिषय है!
बहरहाल हमें धर्तीधार तक की यात्रा करने के लिए पिथौरागढ़ से जौलजीवि, जौलजीवी के पुली से गोरी नदी के उद्गम की ओर बढ़ने के लिए 35 किमी. की यात्रा करते हुए बरम-बंगापानी-सेराघाट होकर मदकोट पहुंचना होगा! यूँ तो आप सेराघाट से गोल्पा सडकमार्ग से पहुंचकर 3 किमी. ट्रैक कर बोना गाँव पहुँच सकते हैं! लेकिन ज्यादात्तर लोग मदकोट-से व्वाल्की-मिर्तोली होकर तोमिक-झापली का 24 किमी का सडक मार्ग का सफर करना पसंद करते हैं जहाँ से (तोमिक-झापली) से 4 किमी ट्रैक कर बोना गाँव पहुंचा जाता है! रात्री बिश्राम आप बोना गाँव में ही कर सकते हैं व अगली अलसुबह आप करीब 7से 10 किमी ट्रैक करने के लिए तैयार रहिये क्योंकि आपको खारी-मोखलखान धार- तोमिकचैन धार होकर धर्तीधार तक का ट्रैक करना होगा! जहाँ मन्दिर में काठ के घोड़े चढाये जाते हैं! यह हिमालयन क्षेत्र का वह खूबसूरत स्थान हैं जहाँ से ट्रेल पास निकलता है! यहाँ से आप हूणदेश (तिब्बत) पहुँच सकते हैं बशर्ते चीनी सिपाही बन्दूक ताने खड़े न हों व भारतीय सेना आपको ट्रेल पास जाने दे!
(गोल्जू की उदयपुर के इस ढोली समाज ने लगाई वह जागर कम वृदावली ज्यादा लगी जिसमें उन्होंने गोरिल देवता के पिता को गोरी नदी के उद्गम धौली-धुमागढ़ का राजा बताया था, उनकी जागरों में स्पष्ट था कि वह शिकार के लिए उच्च हिमालयी क्षेत्र में जाया करते थे! हो न हो यह धर्तीधार मंदिर गोरिल देवता का ही हो!)