Friday, August 22, 2025
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रात घनाघोर मांजी रात घनाघोर…! अब क्यों नहीं रचे जा रहे हैं समसामयिक बिषयों ऐसे गीत!

(मनोज इष्टवाल)

दीप डांडा नहीं साहब दीबा डांडा है वो!

एक गीत जिसने लगभग सौ बर्ष की जिन्दगी जी ली है लेकिन आज भी वह जवान ही लगता है! एक यही गीत नहीं ऐसे बिषयों पर आधारित समसामायिक जितनी भी गीत रचना 50 से लेकर करीब हजार साल पुरानी हैं आज भी हम सबके लिए नए ही क्यों हैं! ऐतिहासिक प्रवृष्टि में जाकर देखें तो “सोलह ऐनी श्राद माधौ सिंगा” हो या फिर “तौंकी रघुवंशी घोड़ी छुटीनी मर्दों…!” जैसे गीत हों ये लगभग 600 से 700 साल पुराने गीत हैं! जो हर युग में आने वाली एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के मुंह गुजरते हुए आगे बढ़ें हैं!

अगर यह गीत सुप्रसिद्ध लोकगायिका कल्पना चौहान के मुंह से आम लोगों तक नहीं पहुंचता तो शायद यह हम जैसे उम्र के दूसरे पड़ाव में कदम रख चुकी सभ्यता के साथ ही स्वर्ग सिधार जाता और आज हमारी नयी पीढ़ी इस गीत पर चर्चा नहीं करती! ऐडी-आंछरी काल कब रहा होगा! शायद 3000 बर्ष पूर्व या फिर उससे भी अधिक लेकिन जब वह लोकगायक चन्द्र सिंह राही व सुप्रसिद्ध गायक अमित सागर व गीतकार, निर्देशक अनिल बिष्ट के स्वर में आम लोगों के बीच पहुंचा तो आज करोड़ से भी अधिक लोगों की जुबान चढ़ गया! गीत के बोल हैं- “चैता की चैत्वाली…!”

रात घनाघोर मांजी रात घनाघोर, बियाणा नि  अय्याँ मांजी दीबा डांडा ओर…! भले ही यह कालजयी 1970 में स्व. केशवानन्द ध्यानी जी ने शब्दों में पिरोई थी लेकिन यह उनकी अपनी रचना रही होगी इसमें संशय होता है क्योंकि मल्ला बीणा ही नहीं बल्कि पूरी तलाई पट्टी व पिंगलपाखा क्षेत्र के लोग इस गीत का उद्गम ब्रिटिश काल में मानते हैं व इसी काल में पौड़ी में मुकदमा लड़ा गया था! समाजसेवी व भाजपा के नेता पोखड़ा गाँव के पुष्कर जोशी बताते हैं कि यह गीत वह तब से सुन रहे हैं जब वे बाल्यावस्था में थे! उन्होंने कहा कि इस गीत की रचना तब भी आम लोगों की जुबान पर थी, हो सकता है 1970 में यह गीत सर्वप्रथम स्व. केशवानंद ध्यानी ने कलमबद्ध किया हो लेकिन यह गीत उन्हीं ने लिखा होगा इस पर संशय है!

भाजपा नेता पुष्कर जोशी की बात का मैं भी समर्थन करता हूँ क्योंकि पूर्व में जितने भी गीत पुटबंधी के गाये गए हैं वह किसी एक की रचना नहीं हो सकती क्योंकि ये गीत बाजूबंद शैली के हैं और इन गीतों की रचनाएँ ज्यादात्तर घसेरी, कृषि कार्यरत महिलायें या फिर भेड-बकरी या गाय बैल चुगाने वाले पुरुष अक्सर किया करते थे! अक्सर इन पुटबंधी के गीतों में सवाल जबाब ज्यादा होते थे! लड़कियों की ऐसी मौतों पर ज्यादात्तर गीत मन की टीस मिटाने के लिए महिलायें रचा करती थी! ऐसे गीतों की श्रेणी में “चंदा हे भग्यानी चंदा दिलों के समान, दणमण रूणी होलि, दगडया नमान! 10गति ब्योऊ छाई नौऊ गति खाई, निर्भागी बाघ थैंकी दया भी नि आई” या फिर “बसंती हे प्यारी बसंती इन क्याजि व्हाई, मेलु डाली मूड तिन फांस किलैs खाई!” जैसे सभी गीत समसामायिक बिषयों पर लिखे गये गीत हैं! अब चंदा को बाघ ने तब खाया जब वह सहेलियों के साथ घास काटने जंगल गयी थी, बसंती ने मेहलू के वृक्ष पर फांस तब लगाई जब वह खेत में गुड़ाई निराई करने गयी थी! ऐसे में इन गीतों का रचनाकार कोई एक व्यक्ति हो जाए तो उसे कैसे रचना का श्रेय दे दिया जाय क्योंकि पुटबंधी शैली के गीत 80 के दशक में अपनी अंतिम सांस ले रहे थे! तब तक समाज पढ़ लिख गया था व रचनाकार पुटबंधी की जगह अपने गीतों को मजबूती से लिखने में लगे हुए थे! इनमें से वीर बधू देवकी के रचनाकार जीत सिंह नेगी ने देवकी देवी का सन्दर्भ जरुर लिया जिन्होंने हींग बेचने वाले पठान को खुन्खरी से काट दिया था और ब्रिटिश काल में उसका केस भी पौड़ी अंग्रेज जज के फैसले के बाद न्यायप्रिय माना गया! तब वीर वधु देवकी की पुटबंधी वाला गीत दृश्य पटल से गायब हो गया क्योंकि सुप्रसिद्ध गीतकार, संगीतकार, गायक स्व. जीत सिंह नेगी ने इस गीत को अपने शब्दों में नृत्य नाटिका के रूप में ढालकर शब्दों का चयन कुछ इस तरह किया- “एक दिन जब जरा घाम छौs धारमा, रुमक पढणी छई सैर्या संसार मा” सुप्रसिद्ध साहित्यकार कवि भजन सिंह “सिंह” ने भी कुछ इसी अंदाज में एक ससुराल की ऐसी बेटी का चित्रं किया जिसके मायके में भाई नहीं हैं व तीज त्यौहारों पर ससुराल से मायके जा रही अपनी देवरानी जेठानियों को देखकर उसे मायके की खुद लगती है- “बौडी-बौडी ऐग्ये ब्वे देख पूष मैना, गौं की बेटी ब्वारी ब्वे मैतू चली ग्येना! मैतुड़ा बुलाली ब्वे बोई होली जौंकी, मेरी जिकुड़ी मा ब्वे कुयेड़ी सी लौंकी!”

स्व. केशवानंद ध्यानी जी ने सचमुच इस लोकगीत या बाजूबंद शैली के गीत को कलमबद्ध कर इसे एक सदी से दूसरी सदी में पहुंचाने का बड़ा कार्य किया लेकिन सुप्रसिद्ध लोकगायिका कल्पना चौहान के गाये बोलों में व स्व. केशवानन्द ध्यानी जी के लिखे शब्दों में थोड़ा सा अंतर है! कल्पना ने तलाई चौन्दकोट की जगह सैसुर शब्द का प्रयोग किया है जबकि स्व. केशवानंद ध्यानी ने उसे सोरास लिखा है जिसे सर्वेश्वर बिष्ट ने सोरास ही गया है! चौन्दकोट, तलाई-पिंगलापाखा क्षेत्र में यही शब्द प्रचलन में है! अब ऐसे में इस रचना के बोल किसके माने जाएँ यह कहना मुश्किल है! आज अगर मैं रात घनाघोर…वाला गीत लिखता तो इसमें मैं पूरे घटनाक्रम को शामिल कर गीत में मणि व उसके पिता स्व. लुड़ा बिष्ट उसकी माँ उसके भाई मनबर सिंह बिष्ट को ही जीवित नहीं करता बल्कि मणि के बेटे को भी शामिल करता जिसकी अंतिम गवाही पर मणि के पति व माँ को कारावास की सजा मिली थी!

विगत दिन गढवाली कवि जगमोहन सिंह जयाडा ने अपनी फेसबुक पोस्ट में इस गीत की आत्मा को जीवित करते हुए लिखा था कि-“रात घनाघोर मां जी…..ये गीत का गीतकार स्व. केशव ध्यानी जी था । रिखणिखाळ महोत्सव का दौरान मंच फर ऊंकी द्वी बालिका उपस्थित थै । ऊंका हात मा पिताजी की फोटो थै । ये करूणामय गीत की प्रस्तुति श्री हरीश रावत जिन करि । वे दिन मैकु गीत का रचियता ध्यानि जी का बारा मा पता लगि । यु लोकगीत सत्य घटना फर आधारित छ ।

श्रीमती दूपा देवी, बमणखोळा, पट्टी साबली, पौड़ी गढ़वाळ सी मैंन ये गीत का बारा मा चर्चा करि । दूपा जिन बताई, बेटा मैकु वींकु नौं पता निछ । पर वा बीणा मल्ला, मनवर सिंह बसनवाळ बिष्ट जी की बैण थै अर सैसर मथाण थौ । कुछ साल वा मैत मा हि रै । एक दिन वींकु जवैं ल्येण कु आई त वीन सैसर जाण कु मना करि ।

मारी त मलेऊ मारी त मलेऊ,

नि जांदु सैसर मां जी,

ना बणौ कलेऊ ।

तब ब्वैन ब्वलि

पुंगड़ु बयुं छ ब्यटि, पुंगड़ु बयुं छ,

त्वे जाण पड़लु ब्यटि,

जवैंई अयुं छ ।

ससुराल जाण का बाद सासू अर जवैं न वा नौनी पटाग मारी ।

गुलेर की गारी मां जी,

गुलेर की गारी,

सासू जिन पकड़ी मां जी,

जवैंईन मारी ।

दूपा जिन बताई, भाई मनवर सिंह जिन मुकदमा लड़ि अर बाद मा हत्यारौं तैं सजा मिलि।

 

जिज्ञासु जी ने मुझे लिखा- मेरी ज्युकड़ि फर जिज्ञासा रूपी कबलाट होंदु गुरुजी । आप जरा नौं बतै देवा वीं नौनि कु। जग्वाळ मा रौलु गुरूजी। उनके कहे ये शब्द मेरे लिए चुनौती बन गए थे क्योंकि जब सुप्रसिद्ध गायिका कल्पना चौहान ने यह गीत अपनी कैसे में ढोल दमाऊं व मशकबीन की धुन में गाया था तब मैं गीत का पीछा करता हुआ ढौंडियालों की बीणा, बाजार की बीणा, धार की बीणा इत्यादि सब जगह गया और इस पर विस्तार से शोध कर एक लेख भी लिखा था व इस रचना के मूल स्रोत की जानकारी भी जुटाई थी लेकिन दुर्भाग्य से बहुत ढूँढने पर भी वह पांडुलिपि नहीं मिल पाई क्योंकि अब कम्प्यूटर युग चलन में नहीं था व यह सब मेरी किसी डायरी में कलमबद्ध है! थक हार कर पोखड़ा गाँव के समाजसेवी भाजपा नेता पुष्कर जोशी जी से सम्पर्क साधा व वे मल्ला बीणा से आखिर लड़की का नाम जुटाने में कामयाब हुए! उनके अनुसार लड़की का नाम मनी था! मनी नाम सुनते ही मुझे ध्यान आ गया कि वह मनी अपभ्रंश नाम है क्योंकि उसका शुद्ध नाम मणि था! धन्यवाद पुष्कर जोशी जी…आपने एक सदी के इतिहास के इस सम सामायिक गीत की आत्मा को जीवित करवा दिया!

यह तो सभी जानते हैं कि उस लड़की का ससुराल मथाना गाँव था और मायका मल्ला बीणा पट्टी तलाई विकास खंड पोखडा तहसील चौबट्टाखाल पौड़ी गढ़वाल! लेकिन उसके लिए इन्साफ को भटक रहे उसके भाई को इन्साफ दिलाने में मदद किसने की इस बारे में शायद ही किसी को जानकारी रही हो! चलिए मैं वही जानकारी आपको साझा कर दूँ!

गीत के बोलों में यह तो साफ़ हो गया था कि मणि की सास व उसका पति उसे बेवजह मारते पीटते थे व वह मायके से ससुराल नहीं जाना चाहती थी, यह भी जानते हैं कि आधी रात को उसकी गला दबाकर ह्त्या हुई थी लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि उसे किस खेत में कहाँ दफनाया गया! क्योंकि उसका पति व सास मणि के मायके वालों को यह गुमराह करते रहे कि वह कहीं भाग गयी है! उस समय लोगों के लिए ऐसे प्रकरण किसी कलंक से कम नहीं थे! यह बदनामी सुनकर मणि के पिता सहन नहीं कर सके व उनकी हार्ट अटैक से मृत्यु हो गयी! लूड़ा सिंह बिष्ट की मौत के बाद उनके पुत्र के सपने में उनकी बहन मणि आई जिसने सारी जानकारियाँ बताई! कहते हैं गरीब परिवार भला कैसे केस लड़ता लेकिन मणि ने उन्हें भूत बनकर परेशान करना शुरू किया और अपनी आत्मा की शान्ति के लिए इन्साफ की गुहार लगाईं! कुछ लोगों का यह भी मानना था कि लूड़ा सिंह बिष्ट ने ही पटवारी के माध्यम से केस दर्ज करवाया तो कुछ का कहना है कि अणि के भाई मनबर सिंह बिष्ट ने केस दर्ज किया!

अदालत में केस दर्ज हुआ तो मणि का पुत्र भी उस समय अपनी दादी व पिता के साथ कोर्ट रूम में उपस्थित था! बताया जाता है कि अचानक मणि की आत्मा अपने बच्चे पर प्रकट हुई और उसने पूरी कहानी बयाँ करते हुए उसको मारकर किस खेत में दबाया गया है यह गवाही भी दी! ब्रिटिश सरकार ने खोजबीन की तो मणि की सडी गली लाश बरामद हुई जिसे बाद में निकालकर जलाया गया और मणि की आत्मा को तभी शान्ति मिली जब उसके पति व सासू को सजा सुनाई गयी!

बताया जाता है कि वर्तमान में मणि के काल से लेकर अब तक उनकी तीसरी पीढ़ी चल रही है जिसका सीधा सा अर्थ हुआ कि यह प्रकरण लगभग 120 साल से भी अधिक पुराना है! इस गीत पर लेख लिखने का मेरा आशय है कि वर्तमान में गम्भीर लेखन के गीत कम रचे जा रहे हैं! ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व समसामायिक बिषयों के गीतों में रिक्तता आने के कारण हम यकीनन उन कालजयी रचनाओं से दिव्य संसार से विमुख हो रहे हैं जो सौ साल बाद हमारी पीढ़ियों के पास रह पाएंगी! इसलिए उम्मीद है कि हमारे गीतकार ऐसे बिषयों व समसामयिक बिषयों की रचनाएँ करके कालजयी कहलायेंगे जो पीढ़ी दर पीढ़ी अनवरत बढ़ते रहें न कि टीआरपी की दौड़ या अपने व्यवसायिक दृष्टि कुपोषण परोसने के स्वरूप को आगे बढायें!

 

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