(मनोज इष्टवाल)
अब ये रुणिया सौकार आ कहाँ से गया जिसने सूर्य और चन्द्र तक को कर्जा दे रखा था! क्या यह सौकार उत्तराखंड का था या फिर कहीं और का..! यह सिर्फ किंवदन्तियाँ होती तो कथा-कतगुली, आणा-पखाणा की भाँति एक सदी से दूसरी सदी तक गुजर जाती लेकिन यह तो एक ऐसी परम्परा का हिस्सा है जिसका कर्ज आज भी रवाई क्षेत्र के लोग चुकाते आ रहे हैं!
१- साहित्यकार महावीर सिंह रवांल्टा २- सूर्य ग्रहण ३- चन्द्र ग्रहण!
यह दिलचस्प बात रवाई क्षेत्र के सुप्रसिद्ध साहित्यकार महावीर रवांल्टा के मुख से यूँहीं बरबस छूट गई!जब मुंह से छूट गयी तो भला मैं उसे लपक न लूँ ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है!
आईगु रुणिया सौकारा..खोलो भण्डारकु तालु।। गीत के बोल मैंने अपने रवाई या पर्वत क्षेत्र की किस गाँव की किस महिला के मुंह से सुने थे ध्यान नहीं आ रहा है लेकिन जब कल यही बोल प्रबुद्ध साहित्यकार महावीर रवांल्टा के मुंह से सुने तब संचेतना लौटी!
महावीर सिंह रवांल्टा बताते हैं कि इस गीत के पीछे रवाई क्षेत्र में जो मिथक हैं उसके अनुसार देवताओं से छुपी बातें सामने प्रकट होती हैं! उन्हें भी यह गीत याद नहीं है लेकिन वे बताते हैं कि निर्बल बर्ग के रुणिया नामक साहूकार से देवताओं ने कर लिया था जिसे वे चुका नहीं पाए तो जाति का चमार रुणिया साहूकार सूर्य को जब चमड़े से पकड़ने की कोशिश करता है तब सूर्य ग्रहण और जब चन्द्रमा को पकड़ना चाहता है तब चन्द्र ग्रहण लगता है, ऐसी मान्यता रवाई क्षेत्र में सदियों से चली आ रही हैं!
बाँझ यानि ओक वृक्ष का वह फल जिसके बाहरी कवर से मापक बनाया जाता है!
यह भी सर्वथा सत्य है कि रवाई क्षेत्र के कई गाँवों की वृद्ध नारियां सूर्य या चन्द्र ग्रहण पर अन्न दान की परम्परा निभाती हैं इसके लिए एक बिशेष मापक के तौर पर बाँझ (ओक) के फल का बाहरी खोखा (कवर) जिसे गढवाल में निक्वाळ (शाहबलूत) व रवाई में बंदगोला कहते हैं, इस्तेमाल में लाया जाता है! सूर्य या चन्द्र ग्रहण पर अन्न के कोठार खोल कर वहां की धनलक्ष्मियाँ (माँ-बहनें) या बुजुर्ग इस बंदगोला नामक मापक से अन्न नापकर एक स्थान पर तब तक डालती रहती हैं जब तक सूर्य या चन्द्र ग्रहण समाप्त नहीं हो जाता!
सदियों से चली आ रही इस परम्परा के बारे में यहाँ के जन मानस का मानना है कि वे ऐसा करके रुणिया साहूकार का देवताओं पर चढा कर्जा उतारने या चुकाने का प्रयास करते हैं! साहित्यकार महावीर रवांल्टा भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि यह परम्परा सदियों से अनवरत चली आ रही है, आज भले ही समाज शिक्षित हो गया है लेकिन सामाजिक मान्यताएं बदस्तूर जारी रहेंगी तभी तो हम अपनी लोक संस्कृति के ऐसे आयामों को जीवित रखकर खुद अपनी सामाजिक बुनियादें मजबूत बना पायेंगे!
जौनसार बावर क्षेत्र में सूर्य ग्रहण सम्बन्धी दन्तकथा की जानकारी देते हुए प्रोफेसर लीला चौहान बताती हैं कि सूर्यग्रहण के बारे में जो दन्त कथाएं हमारे यंहा प्रचलित थी वो इस प्रकार है। कहते हैं कि सूर्य के ऊपर रुणिया साहूकार का कर्जा था और उसी के एवज में राहु, सूर्य को चमड़े का जूता मारता है जिस वजह से सूर्य ग्रहण लगता था। जब ये प्रक्रिया होती थी तब सभी गांववासी घर से बाहर आकर जोर-जोर से चिल्लाते थे की “छोड़ राहु छोड़” । ग्रहण छूटने के बाद जो परिवार का मुखििया या देवमाली होते थे, उनके लिए खाना उसके बाद बनता था। माश की खिचड़ी बनाई जाती थी और कोल्टा समाज के किसी व्यक्ति को लोहे की कढ़ाई में दी जाती थी। जिन महिलाओं के पेट में बच्चा होता था वो घर के अंदर तब तक अपने हाथ पैर फैला कर बैठती थी, ताकि उस ग्रहण का कुप्रभाव उस बच्चे में न पड़े। आज कई सालों बाद गांव में सूर्यग्रहण देखने का मौका मिला और दन्तकथा फिर से सुनी।। जब विज्ञान की समझ नहींथी तब ऐसी दन्त कथाएं हर समाज में प्रचलित थी।
प्रोफेसर लीला चौहान का दिया गया तर्क जिस दन्तकथा के माध्यम से हम सब तक पहुंचता है उसे भले ही इस वैज्ञानिक युग के लोग अंगीकार न करें लेकिन पुरातन काल से आ रही परम्पराओं की सच्चाई तो कहीं न कहीं उसके तर्कों से मेल खाती है। ये दंतकथाएं उस युग की हैं जब सूर्य चांद की जानकारी तो थी लेकिन उस पर जरा सा भी रिसर्च नहीं था अब ऐसे में ऐसी दंतकथाएं जरूर नए सवाल पैदा करती हैं क्योंकि अगर यह सिर्फ दंतकथाएं ही हैं तब आम अनपढ़ व्यक्ति को कैसे पता कि सूर्य चन्द्रमा के अलावा राहु भी वहां है।
यकीनन महावीर रवांल्टा का सोचना उस सार्थकता को बल देता है जिसमें लोकसमाज व लोक संस्कृति के बलबूते पर हम हर देश काल परिस्थिति में अपने आपको एक हस्ताक्षर के रूप में पूरी दुनिया में अलग साबित कर देते हैं, वरना यूनान, मिश्र, रोम सहित सदियों पूर्व के कई विकसित देश आज ज़िंदा नहीं हैं क्योंकि उन्होंने अपनी संस्कृति और संस्कार ही नहीं बल्कि विकास की अंधी दौड़ में अपना लोक समाज भी गंवा दिया है! रुणिया सौकार रवांल्टी लोकसंस्कृति का वह किरदार है जिसके बूते पर सामाजिक मान्यताओं का एक ताना-बाना बुना जाता रहा है और हम ऐसी संस्कृति पर गर्व महसूस कर सकते हैं कि वह मात्र देवताओं पर कर्ज चढने की बात सुनकर अपने अन्न के भंडारण का मुंह खोल देते हैं!
35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.