(मनोज इष्टवाल)
“श्रमेव जयते”.…! अब इसे सिर्फ आप प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी द्वारा दिया गया 2014 का नारा मत समझ लेना क्योंकि देवभूमि उत्तराखंड की मातृशक्ति ने हर मुसीबत के समय पुरुषों से आगे बढ़कर निराशा को आशा में बदलने का काम अनवरत सदियों से किया है! चाहे वह जिया ब्वे रही हो, राणी कर्णावती रही हों या फिर तीलू रौतेली या रामी बौराणी..! सभी ने जब भी हर आपदा काल को अपने अपने हिसाब से उत्साह में ढालकर उसे पुरुष समाज के लिए आसान कर दिया!
कोरोना संक्रमण के इस काल में भले ही उत्तराखंड की मातृशक्ति आज भी कमर बांधकर अपने परिवार व पति को सबलता देने के लिए चुपचाप अपने कामों को अंजाम देती नजर आ जाती हैं लेकिन कुछ ऐसी तस्वीरें मन को छू लेती हैं जिन्हें आप सिर्फ फोटो खिंचवाने के लिए फेसबुक में अपलोड नहीं करते बल्कि कर्म साध्य से उसे सबकी नजरों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए रख देती हैं!
(आईआईटी खडगपुर पश्चिम बंगाल में प्रोफेसर लीला चौहान)
इन्हीं कर्म साध्य महिलाओं में एक बेटी हैं लाखामंडल जौनसार क्षेत्र की लीला चौहान! औसत कद काठी, व्यवहारिकता में लाजबाब, बहुत साधारण आचार-व्यवहार व उतनी ही मृदुभाषी भी! लेकिन कभी किसी मुद्दे पर बात करनी हो तो आप उसके ज्ञान के मुरीद हो जाते हैं यह मेरा निजी अनुभव है!
सोशल एक्टिविटी के रूप में आपको लीला चौहान कभी टेंटे (भुट्टे) के दाने निकालती दिखेंगी तो कभी अखरोट का छिलका उतारती! लोक संस्कृति की बात हो तो अपने ठेठ ग्रामीण परिवेश के फोकलोर को उजागर कर अपनी सोशल साईट पर अपलोड करती दिखेंगी तो कभी अपने लोक पहनावे में घाघरा, कुर्ती, चोडी, ढांटू के साथ दिख जायेंगी! आप सोच रहे होंगे कि इसमें स्पेशल क्या है यह सब तो आजकल सोशल साईट में हर बच्चा ट्रेंड कर रहा है!
(दादी की स्नेहिल पोती…)
लेकिन लीला इस सब से अलग है! जौनसार क्षेत्र के विकास खंड चकराता खत्त बौन्दुर के छोटे से गाँव च्यामा की यह बेटी कब इसी धूल मिटटी की लांघती पहले जवाहर नवोदय विद्यालय धुनगिर उत्तरकाशी काशी पहुंची व कब वहां से पन्त नगर तकनीकी विश्वविद्यालय होती हुई आईआईटी खडगपुर पश्चिम बंगाल यह जानकार आपको अचम्भा होगा!
तीन माँ व सात भाई बहनों में सबकी लाडली लीला चौहान कहती हैं कि उनका जन्म एक छोटे से गाँव में हुआ जहाँ 5परिवार राणा, 5 परिवार चौहान व 4 परिवार हरिजन रहते हैं! मुझे बचपन में इस बात का बड़ा अफ़सोस था कि मैं लड़की क्यों पैदा हुई! क्योंकि सबसे बड़ा भाई गूंगा पैदा हुआ, मुझसे बड़ी दो बहनें थी! लेकिन मेरे बाद चार भाइयों का जन्म हुआ! मैं यह नहीं समझ पाई कि सिर्फ लड़कों को ही पहले खाना, दूध-दही घी क्यों..! मुझे या मेरी बहनों को बाद में क्यों? यह विद्रोह बचपन से ही दिल में घर कर गया था! जब भी ऐसा होता मैं गुस्से में भाइयों के हाथ काट देती या जबरदस्ती उनसे वह चीजें छीन लेती जो उनके लिए स्पेशल लाई जाती थी! कोई आपत्ति करता तो मैं तपाक से जबाब देती कि क्या इनको मारने से दर्द होता है और हमें मारने से नहीं! जब पीड़ा एक सी हो सकती है तो हम एक से क्यों नहीं! जबाब मिलता था बेटियाँ पराये घर जाती हैं व बेटा अपना घर सम्भालता है! मैं कहती मुझे नहीं जाना पराये घर ..! मैं लड़का ही बनकर दिखाऊंगा!
बचपन की यह जिद इतनी बड़ी जिद थी कि मैंने कभी औरतों की देखा-देखी घास नहीं काटा! मैं लड़कों वाले कपडे पहनती व उन्हीं जैसा काम करती! जैसे- हल चलाना, सबल-कुदाल से खेत खोदना, लकड़ी लाना लेकिन उन्हें सिर पर नहीं मर्दों की तरह पीठ पर लाती थी! पानी पनघट दूर था ! अगर पानी भी लाना होता था तो औरतों की तरह सिर पर रखकर नहीं लाती थी बल्कि कंधे पर रखकर लाती थी! शायद यह जताने के लिए कि मैं लड़का बन सकती हूँ! और इसी विद्रोह के चलते मैंने 12वीं कक्षा तक लड़कियों की तरह सलवार कमीज नहीं पहनें!
लीला बताती हैं कि वह अक्सर पिता जी के साथ उनकी सस्ते गले की दूकान में जा बैठती थी व हिसाब की पक्की थी! खेत में पिता जी जब आराम करते तो मैं चुपके से हल लगाने का अभ्यास करती! इससे गाँव के लोगों में व घर परिवार में बेचैनी रहती थी कि लड़की होकर हल क्यों चला रही है यह तो मर्दों का काम है!
(इन्टरनलशिप के लिए फ्रांस की सैर)
बचपन अभावों में गुजारने वाली लीला कहती हैं बड़ा परिवार व आर्थिक तंगी उन्होंने बचपन से ही देखी है लेकिन वह खुश है कि संयुक्त परिवार हर मुसीबत को बहुत आसानी से झेल लेता है! अचानक मैं लीला से बोल पड़ा- अरे आप तो अपनी दादी को देहरादून के मॉल व हरिद्वार गंगा दर्शन कराती दिखी! वह हंसती हुई बोली- यही तो जिन्दगी के कीमती पल हैं! मेरी दादी 100 साल के आस-पास होने वाली हैं! पूर्व में कब महानगरों में आई होंगी! तब और आज के महानगरों की चकाचौंध व गंगा दर्शन उनकी हार्दिक इच्छा रही होगी ऐसा मेरा मानना है! इसलिए मैं उनकी पोती-पोता बन उन्हें घुमाना ही अपना तीर्थ समझती हूँ!
अपनी पढ़ाई पर चर्चा करते हुए लीला कहती हैं की यह किस्सा ऐसे ही खेत में हल चलाते हुए शुरू हुआ तब मैं अपनी बड़ी बहन जो मुझसे 13 दिन बड़ी है के साथ गाँव के प्राथमिक विद्यालय में इसलिए जाया करती थी क्योंकि वह हमें दिन का खाना व कुछ हमजोली मित्र मिल जाया करते थे! उस दौर में लड़की का पढना तो दूर लड़के भी ठेल ठेल कर स्कूलों में पढने जाया करते थे! एक दिन पिता जी के साथ खेत में थी तो उन्होंने कहा- लीला, अच्छा ये बता.! तेरे पास अगर एक रुपया हो उसमें से मैं एक पैंसा ले लूँ तो तेरे पास कितना बचेगा! मैंने हिसाब लगाया और बता दिया कि 99पैंसे..! पता नही तब ऐसा क्या हुआ कि मेरे पिता जी को लगा कि यह मेरी बेटी नहीं बल्कि बेटा है! उन्होंने मेरे भविष्य के सपने देखने शुरू कर दिए! मेरी बहनें इसलिए आगे नहीं पढ़ पाई क्योंकि उन्होंने बचपन से ही अपने सपने गाँव के परिवेश की भाँती समेट लिए! पिताजी मुझे डामटा शिशु मंदिर में भर्ती करने ले गए लेकिन जब वहां के नियमों के आधार पर उन्होंने कहा कि मैं लड़कों वाले कपडे नहीं पहन सकती तो मैंने पढने से इनकार कर दिया! फिर वहीँ प्राथमिक विद्यालय में दाखिला कर पिता जी लौट गए लेकिन उन्होंने जाने कहाँ से पता किया कि पुरोला से आगे गुन्दियाट गाँव धुनगिर में एक जवाहरलाल नवोदय विद्यालय है, जहाँ बच्चों को पढने के बाद नौकरी भी मिल जाया करती है व होस्टल सुविधा भी! मैंने नवोदय का टेस्ट पास किया और नवोदय में पढने लगी!
(स्कीइंग का लुत्फ़ लेती गाँव की साधारण परिवार की बेटी)
मैं यह भले से जानती थी कि हमारा परिवार गाँव में आर्थिक तंगी में है इसलिए खूब मन लगाकर पढ़ती रही लेकिन 12वीं तक मैंने अपनी मर्दों वाली भेषभूषा व उन्हीं के तरह के काम करने बिलकुल नहीं छोड़े! मुझे लड़की होना का अफ़सोस जो था! मैं सबको बताना चाहती थी कि बेटी और बेटे में कोई फर्क नहीं है, बस बेटियों को उसी तरह पढाओ लिखाओ और आगे बढाओ, वही सुब=विधाएं दो जो बेटों को देते हो! मुझे फक्र है कि मेरे पिता जी जो घर में माँ लोगों के लिए सख्त थे लेकिन मेरे लिए बहुत मुलायम..! कभी मुझे नहीं टोकते थे कि तू लड़कों जैसे कब तक रहेगी! पिता जी से मेरी आज भी आभस हो जाया करती है कि ऐसे दोहरे मापदंड क्यों? मेरी माँयें भी तो मेरी तरह बेटियाँ ही रही हैं! फिर उनके फ्रीडम का क्या..? पिताजी तर्क देते हैं कि यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है तो फिर मैं जब जबाब देती कि मैं भी तो इसी संस्कृति का हिस्सा हूँ! पिता जी का जबाब होता- तू पढ़ लिख गयी है! फिर मैं रिप्लाई करती..मेरी दीदियाँ भी पढ़ सकती थी अगर उन्हें भी आपने मेरी तरह घर की दहलीज से बाहर निकलने की आजादी दी होती! खैर ये बाप बेटी का संवाद है और मुझे पता है कि मुझे एक गाँव से चंडीगढ़ विश्वविद्यालय की असिस्टेंट प्रोफेसर बनाने में मेरे पिता जी का ही हाथ है! लेकिन मुझे अक्सर लगता है कि महिला समाज पर उनकी दी हुई दलीलें अक्सर कमजोर हो जाया करती हैं या फिर वे निरुत्तर से हो जाया करते हैं!
लीला कहती हैं,आज जब मैं पढ़ लिख गयी हूँ तो अब समझ भी आ गयी है इसलिए स्वाभाविक है नारी वाले गुण आयेंगे अब मैं सूट, साड़ी, जींस कुछ भी अपनी इच्छानुसार पहनने लगी हूँ! ऐसा नहीं है कि हमारे उत्तराखंड के परिवेश में नारी का सम्मान कभी कहीं कम रहा हो यहाँ नारी सर्वत्र पूज्यते वाली कहावत आज भी चरितार्थ है! वह बताती हैं कि उन्हें सिर्फ अपने उत्तराखंड में तो इतना महसूस नहीं हुआ लेकिन आईआईटी खड्गपुर पश्चिम बंगाल में उन्हें जरुर यह लगा कि आज भी समाज में वह रेखा बनी हुई है जहाँ एसटी एससी को सवर्ण समाज की नजरें जरा टेडी मानसिकता से देखती हैं! जब तक उनके लिए मैं लीला चौहान नाम से हूँ तब तक मैं सवर्ण हूँ लेकिन जैसे ही उन्हें मैं बताती हूँ कि मेरा क्षेत्र जनजातीय क्षेत्र कहलाता है व मैं जनजातीय हूँ तो मानसिकता एकदम बदल जाती है! यह कास्टिज्म का दर्द झेलना बड़ा असहनीय सा लगता है!
खेतों में हल चलाती प्रोफेसर लीला चौहान कहती हैं श्रम शक्ति के बिना बैठे बिठाए आपको फल कैसे मिल सकता है। चाहे मिट्टी हो या माथा बिना तिलक लगाएं उसकी खूबसूरती आप कैसे महसूस करेंगे। उन्हें चिंता है कि हम तेजी से पलायन कर जिस तरह महानगरों की होड़ से जुड़ गए वह हमारी थाती-माटी से जुड़े प्यार को कहीं कम न कर दे। कोरोंना महामारी के दौर में बढ़ते रिवर्स माइग्रेशन पर वह कहती हैं, मैं भाग्यवान हूँ कि अभी मेरे क्षेत्र जौनसार बावर में पलायन ना के बराबर है। लेकिन गढ़वाल कुमाऊं में जिस तरह पौड़ी गढ़वाल व अल्मोड़ा जनपद के गांव, खेत खलिहान बंजर पड़े हैं अब उन्हें उम्मीद हो रही है कि इस महामारी के दौर में फिर से उन गांवों का कायाकल्प होगा। मुझ जैसी कई पढ़ी-लिखी बेटियां आगे आकर अपने परिवार के लिए सहारा बनेंगी। नए जोश जुनून से फिर हम गांव की सामाजिक व सांस्कृतिक धरोहरों को सुरक्षित रख पाएंगे।
एक प्रोफेसर इतनी सरल सपाट बातें करेगी, ऐसा सोचना जरा मुश्किल भी है! जवाहर लाल नवोदय, तकनीकी विश्वविद्यालय पन्तनगर व आईआईटी खड्गपुर के बाद जिस बेटी ने इन्टरनलशिप फ्रांस से की हो उसका व्यक्तित्व क्या होगा यह हम सब जान सकते हैं लेकिन लीला कहती है! हमने वह क्राइसेस भी देखा है जब नहाने के लिए रात होने का इन्तजार करना पड़ता है! 2013-14 में जब मेरे स्कॉलरशिप के पैंसे आये तब जाकर मैंने गाँव में शौचालय व वाशरूम का निर्माण करवाया जोकि यकीनन हम सबकी प्राथमिकी में शामिल होता है!
प्रोफेसर लीला चौहान यह हल इसलिए नहीं चला रही कि उसे सोशल साईट पर फोटो अपलोड करनी है बल्कि इसलिए चला रही है कि उसके चारों छोटे भाई देहरादून व हरिद्वार में पढ़ाई कर रहे हैं व घर की जिम्मेदारी इस कोरोना काल में भी उसके ऊपर ही है! उसका कहना है कि आज भले ही उसे महिला होने का गर्व है क्योंकि मैं एक मर्द की भाँती बताना चाहती थी कि महिला को हल्का आंकना सही नहीं इसीलिए अभी तक अपने हर कर्तब्य का पालन अपने भाइयों व परिजनों के बीच में मर्द बनकर ही निभा रही हूँ! लीला के संघर्ष की गाथा भले जो भी हो लेकिन यह जौनसार बावर क्षेत्र को छोड़ दिया जाय तथा उसके परिवेश से बाहर निकला जाय तो यकीनन लीला हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं! बिशेषकर उन बहनों के लिए जिनके भाई नहीं हैं, बिशेषकर उन माँ बाप के लिए जिन्हें पुत्र सुख नहीं है! सच तो ये है कि आज बेटियाँ ही माँ बाप को सच्चा सुख दे पा रही हैं! उम्मीद है कोरोना महामारी से पूर्व जो पलायन उत्तराखंड में हुआ व अब जो रिवर्स माइग्रेशन हो रहा है वह उन बंजरों को आबाद करने में सहायक होगा जिन्हें हम बहुत पहले अपने खेत के रूप में दिमाग से निकाल चुके हैं! क्यों न हम भी पप्रोफेसर लीला चौहान से प्रेरणा लें!