Thursday, August 21, 2025
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माँ का शैशव काल।….. किस-किस भाग्यवान पुत्र ने देखा।

(मनोज इष्टवाल संस्मरण 28 जनवरी 2016)

भला माँ का बचपन जिसे हम शैशवकाल कह सकते हैं कोई पुत्र कैसे देख सकता है….? ठीक मेरी तरह आप भी सोच रहे होंगे कि भला यह कैसे संभव है. …! मुझे लगता है मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग के जो भी मित्र मेरी इस पोस्ट को पढेंगे तो ज्यादातर हँसेंगे क्योंकि हम में से ज्यादात्तर के पास इतना समय नहीं होता कि हम पैंसे व वैभवपूर्ण जीवन के बीच इस बात का आंकलन कर सके या फिर ऐसी कोई पीड़ा ले सकें। क्योंकि अब रिश्ते सिर्फ रिसते हुए जख्म समान हो गए हैं।

मुझे गर्व है कि मैंने अपनी माँ का शैशव काल देखा है और उस पीड़ा को महसूस भी किया है जो मेरे जन्म लेने के दो तीन साल तक मेरी माँ ने झेली होगी या अन्य सभी माँयें झेलती हैं। एक हफ्ते माँ के साथ अस्पताल के उस मरणासन्न बिस्तर में लेटी माँ ने मेरे बचपन के वे सारे दुःख स्मरण करवा दिए जिन्हें वह ख़ुशी के साथ सपनों के संसार में यादों की माला बनाकर ख़्वाबों के तकिये में संजोया करती रही होगी, क्योंकि अबोध शैशव काल में न जाने कितनी बार एक बच्चा माँ का बिस्तर भिगोता होगा, जाने कितनी बार मल त्यागकर माँ उसे ख़ुशी ख़ुशी साफ़ करती रही होगी जाने कितनी निशायें बच्चे की किलकारियों में जागकर गुजार दी होंगी।

मैंने तो सिर्फ हफ्ते भर में ही जाने कितने दिनों के चैन गंवाएं, कितने महीनों की नींद गंवाई। फिर भी बहुत शकुन है कि मुझमें इतनी हिम्मत है कि माँ के उस शैशवकाल का निष्ठापूर्वक पालन कर रहा हूँ जिसमें उसके बस का स्वयं चलना हो पा रहा है न खाना और न ही शौच निवृत्ति इत्यादि।

माँ की बांहें पकड़ मैं जितनी बार भी उन्हें शौचालय ले गया पूरे सर्जिकल वार्ड में लेटे मरीज व तीमारदारों की आँखें मेरी तरफ ही उठ जाती और उनकी आँखें जो कहती उस से मुझे स्वर्ग का सा आनंद प्राप्त होता प्रतीत होता था। कई कह भी देते थे कि कितना भाग्यवान पुत्र है और कितनी सौभाग्यशाली माँ है जिन्हें ऐसा पुत्र मिला है। मुझे शर्मिंदगी इन शब्दों से इसलिये उठानी पड़ती थी क्योंकि मेरी आत्मा इस प्रशन्सा की भागीदार नहीं बनना चाहती थी। मैं कौन सा ऐसा सुख उसे उसकी आशानुकूल दे पाया यही ग्लानिबोध मुझे कचोटता रहा है।

मुझे ग्लानि तब हुई जब पहली बार माँ की धोती संभालकर उसे मल त्यागने के लिए बिठाया, और माँ के मुंह से शब्द निकले– ब्यटा यान्से ज्यादा मौत क्य ह्वे सकद (बेटा इस से बड़ी मौत क्या हो सकती है)। उस रात मैं जरा भी नहीं सो पाया। इसलिए नहीं कि मेरी माँ शौचालय में मेरे पैरों को मजबूती से पकड़कर शौच कर रही थी बल्कि इसलिए कि सिर्फ एक रात में दो तीन बार माँ को शौच ले जाने में ही मुझे जीवन भर की परेशानी नजर आ रही है तो उस माँ पर क्या बीतती रही होगी जब वह कई रात मेरे गीले किये बिस्तर पर लेटी होगी, मेरे मल की बू में सोयी होगी मेरी क्यां क्यां से रात भर जागकर स्तनपान कराती रही होगी।

तब मुझे वह इत्तेफाक याद आया जब मैं लगभग 11-12 साल का रहा होऊंगा और सख्त बीमार था, तब मैं तीन दिन तीन रात से बेसुध था। मुझे याद है कि इतने जवान बेटे को काँधे पर लाधकर मीलों पैदल चलकर माँ पिताजी जब गॉव से पौड़ी आने के लिए गेट (तब निर्धारित समय की बस) पकड़ने निकले थे और तल्ला समनख्यात (नौली गॉव की सरहद का चिन्हित स्थान/ जहाँ से सडक लगभग 400 मीटर दूर है) से गेट की बस निकलती दिखी तो मैंने कहा था- माँ व देख बस ऐग्या, मी अब अफ्वी हिटलो, निथर गाडीन छुट्टी जाण (माँ वो देख बस आ गयी, मैं अपने आप चलूँगा, नहीं तो गाडी छूट जायेगी) ..! माँ को लगा शायद मैं चल दूंगा उसके भी कंधे थक गए थे। पिताजी बोले- शाबास ब्यटा, हिट लाटा, हिट निथर हमन पौड़ी नि पौंची सक्णु, थक ग्युं हम ( शाबास बेटे, चल मेरे लाटे, चल वरना हमने पौड़ी नहीं जा पाना है, थक गए हम)
मैं इतना सख्त बीमार था कि दो कदम के बाद ही चकराकर गिर गया और तब गेट भी छूटा व माँ खूब बिलखकर रोई, तब पहली बार मैंने अपने पिताजी की आँखों में भी अश्रुधार देखी थी। शायद गाड़ी छूटने के साथ ही उनकी वो आशाएं भी टूट गयी थी जिसमें वो औलाद के जवान होकर बाप का सहारा बनने तक के ताने बाने संजोये सपने देखा करते थे.। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मैं ज़िंदा रह पाऊंगा, क्योंकि चार बहनों के बाद उन्हें मुझ जैसा नालायक बेटा प्राप्त हुआ था लेकिन ईश्वर बड़ा बलवान है। बर्षों बाद उस बालपन के सपने जब पौड़ी अस्पताल के सर्जिकल वार्ड में रजाई में मुंह ढके जवान हुए तो बिस्तर के उस पोर का गीला व नमकीन होना स्वाभाविक था जिसने मेरी आँखों का स्पर्श पाया होगा।

आज माँ भी उसी स्थिति उसी बालपन में थी अचेतन में..! जो माँ कभी बिना हाथ धोये किसी वर्तन तक को स्पर्श नहीं करने देती थी वह आज अपने शौच के हाथ भी नहीं धुल पा रही थी। ऐसा माँ का शैशवकाल सचमुच बिलकुल अलग है। मैं भागवान हूँ कि माँ ने अपनी इस अवस्था में मुझे अहसास दिलाया कि माँ गर्भ धारण करने से लेकर सम्पूर्ण परवरिश तक एक बच्चे के लिए कितनी परेशानी उठाती होगी और एक बच्चा है कि बीबी होते ही जन्मदायिनी को ऐसे भूल जाता है माना वह आसमान से टपककर गिरा हो

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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