(ट्रेवलाग…केशव भट्ट)
रात में यूपी का सीएम बनकर तांडव करने और फिर मालिश के सुनहरे ख़्वाबों खोए रहने वाले महाशय को जब साथियों ने सुबह उठाया गया तो वे हड़बड़ाकर उठे। उन्होंने अपनी जेबें टटोलीं। सब कुछ ठीक मिला तो सिसकारी भरकर बोले, “चलो यार बाकी सामान तो सुरक्षित है, दो हजार गए भाड़ में. “नाश्ते के साथ दो घूंट भरते हुए उन्होंने साथियों से इस घटना का कहीं जिक्र न करने का वादा लिया और साथी भी हर किसी को इस किस्से को सुनाने की कसम खाकर लौटे और बरसों तक चटखारे लेकर इसे सुनाते रहे।
दारचूला से एक बार फिर काली नदी के झूला पूल को पारकर हम वापस लौटे। पुल पर तैनात जवानों को अपना सामान दिखाया तो वे भी मुस्कुराते हुए बोले, “ये भी कोई सामान हुआ भला..!”
टीआरसी के पास एक ढाबे में रात के भोजन का इंतजाम कर हम अपने कमरे में पहुंच गए। रकसैक में सामान सैट करने में करीब घंटाभर लग गया. आठ बज गए थे तो ढाबे में गए। वहां भी काफी भीड़भाड़ थी. भोजन बना रही मालकिन को अपने आने की सूचना दर्ज कराई तो उन्होंने कुछ पल इंतज़ार करने का इशारा किया। ढाबे के भीतर एक केबिन में लैंडलाइन टेलीफोन सुविधा दिखी तो हम बारी-बारी से उसमें घुस गए। घरवालों से कुछ इस तरह बात की जैसे कि हम ‘उत्तर कोरिया’ में फंसे हों। बहरहाल घरवालों को कुछ लेना-देना नहीं था। वे पहले ही हमारी हिमालयी आवारागर्दी से कम त्रस्त नहीं थे। बस सूचनाओं का आदान-प्रदान भर हो गया. अब तक हमारे भोजन करने की बारी आ गयी थी। उम्मीदों के विपरीत भोजन काफी स्वादिष्ट था तो सभी ने दबाकर खाने में कोई हिचक नहीं दिखाई।
बागेश्वर जिले के लोहारखेत क्षेत्र के सज्जन तब धारचूला तहसील में तहसीलदार तैनात थे। बेहद मिलनसार और मददगार शख्स थे। रात में जब वे आपदाग्रस्त बरम से लौटे तो उन्होंने हमारी फाइल देखी और तुरंत इनर लाइन परमिट जारी कर दिए। सुबह जब मैं उनके आवास में पहुंचा तो उनके बेटे ने मुझे पास देते हुए बताया कि वह देर रात में कुछ ही घंटों के लिए घर आए थे और वापस बरम को निकल गए हैं. मैं उनके बेटे को सिर्फ धन्यबाद ही दे सका। ऐसे सरल और समर्पित अधिकारी कम ही होते हैं।
परमिट लेकर वापस लौटते वक्त जीप स्टैंड में एक जीप वाले से आगे के सफ़र का मोल-भाव तय किया और अपना सामान लेकर जीप में सवार हो गए। जीप चालक बाकी सवारियों के लिए दो-एक घंटे तक तहसील और बाजार की परिक्रमा कराता रहा। धारचूला की बाजार से अंतत: जब वो निकला तो हमने राहत की सांस ली, लेकिन यह राहत बमुश्किल तीन किलोमीटर तक ही मिल पाई। एक बैंड पर चालक एक सवारी के इंतजार में फिर से रुक गया। तभी सहयात्रियों से पता लगा कि गर्बाधार तक सड़क कई जगहों पर ध्वस्त है। बीच में जो जीपें फंसी हैं वे मोटार किराया लेकर कमाई करने में जुटी हैं। हर कोई मजबूरन प्रकृति के सांथ ही इस मानवीय आपदा को झेल रहा है। करीब आधे घंटे बाद सवारी पहुंची तो चालक ने इंजन चालू किया। रास्ते में धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना और नारायण आश्रम को जाने वाला मार्ग के बारे में साथ बैठे लोग बता रहे थे।
तवाघाट से आगे मांगती से कुछ दूर जाकर जीप फिर से किनारे खड़ी हो गई। सामने भूस्खलन से सड़क गायब थी। किराया चुकाकर हमने रुकसेक अपने कांधों में टांगे और लगभग दौड़ते हुए टूटे रास्ते को पार कर गए। सामने से आने वाली जीपें आते ही भर जा रही थी। किसी तरह एक जीप में जगह मिल पाई। वह जीप भी करीब पांच किलोमीटर चलने के बाद किनारे खड़ी हो गई। सामने भूस्खलन का भयानक मंजर था। ऊपर की ओर नजर रखकर बढ़ी हुई धड़कनों के साथ उस पहाड़ को पार किया। ऊपर से लगातार पत्थर गिर रहे थे। आगे एक और जीप में सवार हुए। पांगला से पहले उफनाए हुए गधेरे ने आगे का रास्ता बंद कर दिया था। जूते, कपड़े उतार लिए गए और एक-दूसरे का हाथ पकड़कर किसी तरह इस मुसीबत को भी पार कर लिया। पानी की ठंडक ने पांव सुन्न कर दिए थे।
मुश्किल से एक किलोमीटर चलने के बाद पांगला चौकी पहुंचे। बरसात ने यहां भी कसकर कहर ढाया हुआ था। ज़मीन जैसे रगड़ती-लुढ़कती हुई काली नदी में समा जाने को आमादा थी। सड़क दलदल में बदल गई थी। बचते-बचाते इस रास्ते को भी पारकर जीप के इंतजार में खड़े हो गए। एक बार जीपें आईं और एक झटके में सवारियों को लेकर चलती बनीं। बड़ी मुश्किल से एक जीप में सवार होने में कामयाब हुए तो वह भी तीन किलोमीटर आगे चलकर जवाब दे गयी। यह घटियाबगड़ था.।
रास्ते में “इतना मंहगा किराया क्यों ले रहे हैं भाई साहब?” सवाल पूछते ही वाहन चालक बिफर गया, “यह नहीं पूछते ऐसी हालत में सबको ये सेवाएं कैसे दे रहे हैं? अरे! डीजल धारचूला से आ रहा है। यहां आने तक उसके दाम दोगुने हो जाते हैं। अब हम कहां से लाएं ये पैंसा.. बात करते हैं सब…!”
आगे भूस्खलन पर नज़र पड़ते ही चालक की बातों से ध्यान हट गया। समूचा पहाड़ नीचे काली नदी में मिलने को आतुर था. पत्थरों की लगातार बारिश भी हो रही थी। हर कोई दौड़ते हुए सड़क पार कर रहा था। लगभग पचास मीटर का एक पहाड़ सामने दिखाई दिया, जो सीधे नीचे काली नदी में समा गया था। हर कोई कूदते-फांदते हुए इस पहाड़ को पार कर रहा था। पल भर को सोचा और फिर रुकसैक कांधों में डालकर ऊपर पहाड़ पर नजर रखते हुए हम भी भागते हुए पार पहुंच ही गए। यहां से आगे सड़क ने पूरी तरह दम तोड़ दिया था और अब वह पदयात्रा करनी थी, जिसके लिए हम जाने कब से तरस रहे थे। घटियाबगड़ में भूस्खलन का यह भयानक मंजर देख हमारे रोंगटे अभी तक खड़े थे। बाद में गर्ब्यांग पहुंचने पर पता चला कि वहां दो लोग भूस्खलन की चपेट में आकर दब गए हैं।
घटियाबगड़ में कुछ दुकानें दिखाई दी थीं। इनमें जरूरत भर का सामान भी मौजूद था। यहां गांवों में बनने वाली कच्ची शराब, जिसे स्थानीय लोग ‘चक्ती’ कहते हैं, हर दुकान में सर्वसुलभ थी। (जारी…)