Monday, December 23, 2024
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डोला-पालकी का लुटेरा उदयपुर-अजमेर की घुड़केंड़ा गढ़ी का राजा उद्दु चौहान व भन्धो असवाल की गाथा! आज भी सैन्य खाइयां व ओखलियां मौजूद हैं रणचूला के घुड़केंड़ा गढ़ में!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 25 जून 1996)

उदयपुर वल्ला (गंगा सलाण) का घुड़केंडा गढ़ी/रणचूला गाँव)

आज सचमुच लम्बी यात्रा रही! सच कहूँ तो बेहद थका देने वाली..! दुगड्डा-डाडामंडी-कांडी-कछयाली से यमकेश्वर तक! पूरी यात्रा में ज्यादात्तर कच्ची सडक व उस हिचकोले खाती टाटा सूमो के अंदर घुसती धूल-मिट्टी व पसीने से तर्र-बत्तर शरीर पर कमीज के चिपकते कालर! बगल में बैठे बुजुर्ग की बीड़ी का धुंवा और ड्राईवर का जोर से बजता गीत “चली भैs मोटर चली सरररा प्वां-प्वां! यानि मिजाज जब खराब हो तो सब खराब ही लगता है! कांडी-कछयाली के खेत बड़े लोक-लुभावन लगे! मैंने उन बुजुर्ग को पूछा भी कि यहाँ गिंदी का मेला कहाँ लगता है तब उन्होंने सडक के ऊपरी छोर की तरफ इशारा करके बताया था कि वहां जुटता है मेला! इधर खेतों का सीना चीरती सडक अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रही थी उधर मेरी निगाह चारा-पत्ती के लिए खेतों की मेंढ़ों पर खड़े गेंठी व भीमल के पेड़ों पर थी! जिस से साफ़ जाहिर होता है कि यह गाँव कृषि व पशुधन के लिए बेहद सरसब्ज हैं!

लगभग 5 बजे टाटा सूमो गाड़ी एक बड़ा सा हिचकोला खाकर सूखी नदी घाटी में रुकी! रेतीला व गोल-मटोल पत्थरों के इस छोटे से बाजार का नाम यमकेश्वर है! यहाँ एक छोर पर दो चार चाय की दूकान व एक फोटोग्राफर की दूकान तथा एक छोर पर यम मन्दिर ! यम मंदिर के कारण ही इसे यमकेश्वर कहा जाता है! इसकी स्थापना कब हुई यह किसी के पास सूचना नहीं है लेकिन अध्यापक बलबीर सिंह असवाल बताते है कि इस मंदिर का बड़ा महात्म्य है और यहाँ हर बरस बड़ा मेला लगता है!

अब परेशानी यह थी कि रुकूँ तो रुकूँ कहाँ..! जाना अस्वालों के ही गाँव था क्योंकि मेरे शोध का केंद्र ही वे लोग थे! अत: किसी व्यक्ति ने बताया कि आप बडोली के अध्यापक बलबीर सिंह असवाल जी के यहाँ चले जाइए वह आपके रहने की व्यवस्था भी देखेंगे व वहां से ही आपको कुछ जानकारियाँ मिल पाएंगी! यमकेश्वर लांघते ही जैसे ही आप खेतों में पहुँचते हैं! सरसब्ज गाँव बडोली आपको दिखाई देता है! मैं बलबीर सिंह असवाल जी के घर पहुंचा तो “जतो नाम ततो गुण:” वाली बात दिखी! जो मुख्यतः असवाल थोकदारों में कम ही दिखती हैं! असवाल थोकदारों के खून में यह रचा बसा है कि वे घर आये मेहमान को खाली पेट रहने तो नहीं देंगे लेकिन वे आज भी अपने आआगे किसी को कुछ नहीं समझते! लेकिन मेरा प्लस पॉइंट यह था कि मैं जाति का पंडित था इसलिए क्या असवालस्यूं क्या मोंदाडस्यूं या फिर क्या लैंसडाउन क्षेत्र के पीड़ा, कन्दोली, सीला-भरस्वार गाँव…! सभी जगह मुझे न्यायोचित्त सम्मान मिला! विडम्बना यह थी कि सिर्फ दो एक गाँव में ही मुझे ऐसे असवाल थोकदार मिले जिन्हें थोड़ा बहुत इस बात का ज्ञान था कि उनके वंशज में कौन कौन वीर योद्धा हुए बाकी सब अपने को क्लास वन राजपूत की श्रेणी में रखते तो हैं लेकिन जानकारी का सब में अभाव है! सभी का एक ही उत्तर मिलता- देखो भाई, पंडित जी! हमने तलवारें भांची हैं ये गाथाएँ लिखने का काम भाट-चारणों का होता था अब आप इस पर काम कर रहे हैं तो अच्छी बात!

बडोली में भी गर्मी काफी है इसलिए यहाँ बलबीर सिंह रावत जी ने जमीनी पंखों की व्यवस्था कर रखी है! यहाँ आलू चने की सब्जी, दाल, मक्खन के साथ रोटी व भैंस के दूध का बड़ा गिलास पीने को मिला! बलबीर असवाल जी, बहुत सहज व्यक्तित्व के ज्ञानी व्यक्ति कहे जा सकते हैं! उन्हें जब यह महसूस हुआ कि मैं भले ही उम्र में छोटा हूँ लेकिन जानकारियों का खजाना हूँ तब उन्होंने भी अपने वंशजों पर चर्चा परिचर्चा करते हुए रणचूला के अस्वालों की जिरह छेड़ दी!  

अब ये रणचुला कहाँ है..! यह जानकारी प्राप्त करने के बाद पता लगा कि बडोली से लगभग 4 से 5किमी. चढ़ाई चढने के बाद यह गाँव पड़ता है, जहाँ के असवाल थोकदार अपने को वीर भड भांधो असवाल के वंशज मानते हैं व आज भी उनमें वही राजपूती जोश व जूनून है!

लेख लम्बा न हो इसलिए इसकी व्यापकता को कम किये देता हूँ! अगली सुबह ठाकुर बलबीर असवाल जी से इजाजत लेकर मैं लगा रणचूला की चढ़ाई मापने..! रास्ते में एक लम्बी कद काठी के व्यक्ति दिखे जो उम्रदराज हो चुके थे लेकिन लगभग 30 से 35 किलो वजनी बोझा लेकर चल रहे थे! पसीने से जहाँ मैं सांवली त्वचा के कारण लाल अंगार सा हो रखा था तो ये व्यक्ति धधकते सूरज के मानिंद सुर्ख लाल! पजामा की जगह ये लाल रंग का लम्बा सा लट्ठे के कपडे का कच्चा पहने हुए थे! पैरों पर प्लास्टिक के जूते और सिर्फ पर भारी भरकम बोझा! मेरे प्रथम अनुमान में जो परिकल्पना हुई वह ठेठ गंवार आप कह सकते हैं! रास्ता लम्बा था और गाँव का रास्ता हो तो भला परिचय न हो ऐसे कैसे हो सकता है! परिचय में जानकारी मिली तो पता चला यह ठाकुर शिबनारायण सिंह असवाल है! बातों में अनुमान लगा कि ये गंवार नहीं बल्कि ज्ञानी व्यक्ति हैं!

सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि इस खड़ी चढ़ाई के रास्ते में ये बड़े बोझ के साथ चल रहे थे और मैं बमुश्किल अपने कपडे व कागजों के कुल चार से पांच किलो बोझ के साथ..! लेकिन मजाल क्या है कि मैं इनको पकड सकूँ! गाँव पहुंचा तो किसी व्यक्ति को पूछा- असवाल जाति के बारे में कोई ऐसा व्यक्ति बताएं जो जानकारी रखता हो और इस सम्बन्ध में मेरी मदद कर सके! वह व्यक्ति हँसे व बोले- त्वा, नारायण भैजी से जादा कु जाण सकद! भुला, ये तो सुरीज को दिया दिखाने वाली बात हुई! (अरेs, नारायण भाई से ज्यादा कौन जान सकता है! भाई ये तो सूरज को दिया दिखाने जैसी बात हुई!)

मैं अपनी मूर्खता पर हंसा और इन्हीं बुजुर्ग का अनुशरण करता हुआ उनके घर जा पहुंचा जहाँ वे पीतल का लोटा हाथ में लिए पानी पी रहे थे! भरी दोपहर में रणचूला जैसा गाँव भी तपती धूप का शिकार था! यह गाँव चोटी के ऊपर बसा गाँव है जिसमें 25 से 30 परिवार  असवाल राजपूतों के हैं! मुझे पानी देने से पहले पूछा गया कि आप किस जाति के हो? मैंने जबाब दिया- मेरे रूप रंग पर न जाइए! मैं जाति का ब्राह्मण हूँ व ढान्गु-उदयपुर के बडथ्वाल, कुकरेती व मैठाणी हमारी रिश्तेदारी में हैं!

महिला शर्मसार हुई और फिर पानी नसीब हुआ! मैंने- इतने से ही अनुमान लगा लिया था कि यहाँ के अस्वालों की ब्रीड आज भी ठेठ है! दोपहर खाने का समय भी हो चुका था लेकिन ठाकुर शिब नारायण असवाल ने आदेश जारी किया किपंडित जी के लिए रोटी बनाओ! रोटी, घी, प्याज की सब्जी व उड़द की दाल ..! सच कहूँ तो मजा आ गया! जवानी की भूख जो ठहरी! उधर ठाकुर साहब ने ख्वीड चावल, दाल इत्यादि के साथ प्याज माँगा! साबुत प्याज हाजिर हो गया जिस पर उन्होंने मुष्ठ प्रहार किया व उसे तोड़कर थाली के किनारे रखते हुए कहा-प्यार काटकर खाने की जगह ऐसे खाओ तो उसका आनंद ही और है!

कभी कभी हवा के झोंके आकर मौसम की गर्मी का भरपूर अहसास करवा रहे थे! अब कहानी शुरू हुई रणचूला के असवाल व उद्दु चौहान की..! जिसे गलती से मैं कई बार उप्पू चौहान सुन रहा था! उद्दु चौहान यानि सोलहवीं सदी का वह भड जिसने राजा की अधीनता नहीं स्वीकारी थी! यह भी उप्पू गढ़ के कफ्फु चौहान की भाँति बेहद स्वाभिमानी था! स्वाभिमानी के साथ बेहद धूर्त और चालाक भी!

ठाकुर शिबनारायण सिंह असवाल अब तक खाना निबटा चुके थे और अब हमारे पास कुछ वक्त आराम करने का था जिसमें हम सम्बन्धित बिषय पर बात कर सकते थे! उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि उनके पूर्वज अपने को असवालस्यूं पट्टी के थोकदार भानदा असवाल के वंशज बताया करते हैं जो नगर गाँव के आलावा 84 गाँव का थोकदार, लंगूर गढ़ व माब गढ़ का गढ़पति था! यह जानकारी उनके पुरानों ने उन्हें स्पष्ट तौर पर दी थी! वह इस बात पर बेहद जोर दे रहे थे कि उद्दु चौहान से पहले कफ्फु चौहान उप्पू गढ़ उदयपुर का थोकदार था जिसका छोटा भाई उद्दु चौहान रणचूला गढ़ का गढ़पति कहलाया!

यहाँ मैं भी कन्फ्यूज हुआ क्योंकि कहाँ कफ्फु चौहान का उप्पू गढ़ टिहरी में भागीरथी नदी तट पर व कहाँ उद्दु का गढ़ रणचूला यमकेश्वर के शीर्ष में उदयपुर में! बहरहाल मैं इस बात से सहमत था कि अकेले पौड़ी गढ़वाल में छोटे बड़े गढ़ों की संख्या 59 है तब हो न हो उदयपुर में भी कोई उप्पू गढ़ रहा हो व कफ्फु व उद्दु चौहान यकीनन भाई रहे हों क्योंकि दोनों के साथ एक ही समानता देखने को मिलती है कि उन्होंने अपनी गर्दनें कटवा दी लेकिन सर नहीं झुकाया! अब यह तथ्य साफ़ होता है कि अगर कफ्फु और उद्दु चौहान दोनों ही एक काल के हैं तो जाहिर सी बात है यह बात राजा अजयपाल के समय अर्थात सोहलवीं सदी की है जिस से साफ़ हो जाता है कि भानदा अर्थात भंधो या भानदेव असवाल, रणु असवाल या रणपाल असवाल का भाई या पुत्र था जिसने सन 1500 ई. में नागपुर से आकर नगर में अपनी राजधानी बनायी थी व बिना मुकुट का राजा कहलाया क्योंकि श्रीनगर व नगर की स्थापना एक काल की मानी जाती रही है! राजा असलपाल के काल में ही यह घटना प्रचलन में थी कि “अधो असवाल अधो गढ़वाल” (आधे असवाल का आधा गढ़राजा का)!

84 गाँव के थोकदार असवालों के तब असवालस्यूं के सिर्फ 84 गाँव ही नहीं थे बल्कि यह 84 गाँव तक तब सिमटे जब ब्रिटिश काल में थोकदारी प्रथा को समेटा गया, वरना असवाल जाति ने अपना सामराज्य पूर्वी नयार तट से गंगा सलाण तक फैलाया हुआ था व वे सबसे मजबूत लंगूर गढ़ व महाब गढ़ के गढ़पति रहे! अब अगर उदयपुर, अजमेर पट्टी की बात की जाय अर्थात मालन नदी उदगम स्थल से गंगा भोगपुर तक फैले क्षेत्र जिसे गंगा सलाण कहा जाता है तो यहाँ लगभग 7 ऐतिहासिक गढ़ व लगभग 16 छोटे गढ़ थे! इन ऐतिहासिक गढ़ों में अजमेर गढ़, (चौहान/पयाल जाति का) इसे हुसियनखान टुकडिया ने लूटा था!, लंगूरगढ़ असवालों का, पावगढ़/महाब गढ़ (भांधो असवाल का), बागुड़ी गढ़ (बागुड़ी नेगी जाति), गडकोट गढ़ बगड्वाल बिष्ट), चंवागढ़ (उदयपुर मन्यारियों का), उद्दु गढ़ जिसे उप्पू गढ़ भी कहा जाता है चौहान जाति का कहा जाता है!

ठाकुर शिबनारायण सिंह असवाल बोले- यह सब जानकारी तो मुझे नहीं है लेकिन मैं सिर्फ अपने बुजुर्गों से मिली दंतकथाओं का ब्यौरा ही आपको दे सकता हूँ! वे बताते थे कि घुड़केंड़ा गढ़ जो कि हमारे गाँव रणचूला से लगभग डेढ़ किमी. दूरी पर अवस्थित है वहां कफ्फु चौहान का भाई उद्दु चौहान रहता था जो बेहद अत्याचारी, उदंडी व वीर भड था! वह राजा कम और खूंखार जानवर ज्यादा बताया जाता था! वह घुडकेन्डा गढ़ से जहाँ तक उसकी नजर पहुंचे वहां तक के क्षेत्र पर राज करता था! कोई भी शादी ब्याह हो तो दुल्हन की नथ उतराई वही करता था! किसी की खाद रसद जा रही हो तो जबरदस्ती उसके सैनिक लूटकर ले जाया करते थे! प्रजा में त्राहिमाम था! ऐसे में किसी तरह क्षेत्र के लोग अपनी फ़रियाद लेकर श्रीनगर दरबार गए जहाँ राजा अजयपाल ने उनकी ब्यथा सुनी व अपनी सेना भेजी लेकिन उस धूर्त ने सैन्य टुकड़ी को वहां से मार भगाया और राजा को संदेश भेजा कि वह बाज है और वह जानता है कि शिकार कैसे किया जाता है इसलिए वह मुझसे न उलझे! सन्देशवाहक का संदेश सुन राजा ने सेनापतियों से मंत्रणा की व आखिर फैसला लिया कि लंगूर गढ़ के गढ़पति रणु असवाल के भाई बीर भड मंधो असवाल को उसका घमंड तोड़ने के लिए भेजा जाय!

भन्धो असवाल के बारे में कहावत थी कि वह 6 शेर दाल व 16 पाथा भात एक समय का खाना खाता था! खैर भन्धो असवाल ने घुड़केंड़ा पहुंचकर उद्दु चौहान के सैनिकों को मूली गाजर की तरह काटना शुरू किया व उद्दु चौहान को बंदी बनाकर श्रीनगर दरवार ले आया! बदले में उसे घुड़केन्डा गढ़ ही नहीं बल्कि उसके आस-पास के कई गाँव उपहार स्वरूप राजा द्वारा दिए गए जिनमें रणचूला, बडोली, गुजराडी, छाड़ा, खेड़ा, उद्डू (तिमली), निसणी (भृगुखाल) इत्यादि गाँव शामिल हैं!

दुर्भाग्य देखिये मैं तब न घुड़केन्डा गढ़ ही जा पाया न मेरे पास तब डिजिटल कैमरा ही था जो फोटो खींच लाता लेकिन जो जानकारी मुझे प्राप्त हुई उसके अनुसार अब घुड़केन्डा गढ़ के अवशेष मात्र में काटी गयी गहरी खाइयां, कहीं कहीं खंडहरों के अवशेष, दर्जनों धान कूटने की ओखलियां हैं! लोगों का मानना है कि अब यहाँ नौ बैणी आंछरियों का निवास स्थल है व बकरी चुगाने जाने वाले लोगों व घास लकड़ी काटने वाली महिलाओं को आज भी यहाँ धान की भुस्सी दिखाई देती है जो साबित करती है कि यहाँ आज भी अतृप्त आत्माएं निवास करती हैं! लोगों का मानना है इनमें ज्यादात्तर एड़ी (अतृप्त/अल्पायु में मारे गए पुरुष) आंछरी (अतृप्त/ अल्पायु में मारी गयी महिलायें) रहती हैं!

बहरहाल यह सफर बेहद रोचक रहा लेकिन यहाँ पेयजल की बेहद समस्याओं से ग्रामीण जूझ रहे हैं! अब जानकारी मिली है कि रणचुला के नाम से पेयजल योजना तो बनी है लेकिन कई ग्राम सभाओं को पानी देती इस पेयजल योजना के नल यहाँ पहुँचते पहुच्न्ह्ते सूख जाते हैं! वर्तमान तक भी यहाँ सडक नहीं पहुंची है जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है!

(सूचना सन्दर्भ- श्रीमती आशा असवाल, बलबीर सिंह असवाल, विक्रम सिंह असवाल इत्यादि)

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