(मनोज इष्टवाल)
गोरखा बटालियन में ढाका टोपी की शान ही निराली है। ब्रिटिश काल में भारत विभाजन से पहले ढाका (बंगलादेश) में इस टोपी का निर्माण विशेष किस्म की सूत के इस्तेमाल से प्रचलन में लाया गया। आज भले ही यह टोपी सिर्फ नेपाली/गोरखाली समाज में विशेषत: अपनाई जाती है लेकिन यह सच है कि इस टोपी को विशेषत: बहादुरी का प्रतीत मानकर ब्रिटिश सरकार ने एक अलंकरण के रूप में गोरखा सैनिकों की बहादुरी के लिए तैयार करवाया था।
इस टोपी के रंगों के आधार पर भी इस समाज के लोग टोपी पहनने वालों की पहचान करते थे। हर टोपी के रंग के अनुसार उसकी जाति का अनुमान लगाया जाता था लेकिन वर्तमान में यह मामूली सी बात हो गई। मैंने पूर्व मंत्री व पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल टीपीएस रावत सहित कई उच्च पदस्थ फौजी अफसरों के सिर में यह टोपी बड़े सम्मान के साथ सजी देखी लेकिन जब इसका इतिहास जाना तो गर्व की अनुभूति हुई। नेहरु इंस्टीटयूट ऑफ़ माउंटेनियर्स के कर्नल अजय कोटियाल के सिर में भी यही टोपी सजी देखी तब लगा कि जरूर इस टोपी का कोई आधार रहा होगा।
ढाका टोपी या नेपाली टोपी, टोपी का एक प्रकार है जो, नेपाल में बहुत प्रचलित है। यह टोपी जिस कपड़े से बनाई जाती है उसे ढाका कहते हैं इसी लिए इसका नाम ढाका टोपी पड़ा है। इस कपड़े का प्रयोग एक प्रकार कि चोली बनाने में भी किया जाता है जिसे नेपाली में ढाका-को-चोलो कहते हैं। नेपाली टोपी का निर्माण सर्वप्रथम गणेश मान महर्जन ने नेपाल के पाल्पा जिले में किया था।यह टोपी नेपाल की राष्ट्रीय टोपी है। इस प्रकार कि टोपियां अफगानिस्तान के लोगों द्वारा भी पहनी जाती हैं, विशेष रूप से अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई इसे पहनते हैं। इसको इंडोनेशिया के लोगों द्वारा भी पहना जाता है।
अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए मैंने गोरखाली समाज में इसका महत्व तलाशने के लिए उमा उपाध्याय जी से सहायता मांगी। उन्होंने बताया कि-बचपन मैं मेरे दादाजी ने मुझे बताई थी, टोपी हिमालय का चिन्ह है एक तरफ हिमालय सा उठा हुआ और दूसरी तरफ थोड़ा समतल मैदान सा इसलिए जिस प्रकार हिमालय को देखने के लिए सर उठाते हैं उसी प्रकार गोरखा, नेपाली के सर की टोपी को भी उसके बहादुरी और ईमानदारी का प्रतीक मानते हुए हिमालय की तरह सम्मान से देखा जाता है गोर्खाओं के सर मैं लगाने वाली टोपी को ढाका टोपी क्यों कहते हैं,क्योंकि जब भारत का बिभाजन नहीं हुआ था। उस समय ढाका जो की आज बांग्लादेश की राजधानी है वो भारत मैं एक स्थान था जहाँ ये विशेष प्रकार का सूती कपडा बनता था नेपाल जाते हुए फौजी लोग इस कपडे को ढाका से लेकर जाते थे और इस कपडे का टोपी, शाल, चौबन्दी इत्यादि बनाकर पहनते थे इसलिए इस टोपी को ढाका टोपी कहते हैं या इस कपडे से बनाये पहरावे को ढाका पहिरन कहते हैं। जिस प्रकार आज भी भारत से नेपाल जाने वाले फौजी को लाहुरे कहते हैं जो लाहोर है जो कभी फौजियों की भर्ती सेंटर हुआ करता था बिभाजन हो गया लाहोर पाकिस्तान मैं है परन्तु आज भी नेपाल में फौजियों को लाहुरे ही कहते हैं।
नेपाल में ढाका टोपी पर कई गीत व फिल्म भी निर्मित है। मेरी इस जानकारी के अलावा भी किसी मित्र के पास इस टोपी से सम्बंधित कोई और इतिहास भी हो तो कृपया शेयर करने का कष्ट करें ताकि लोक संस्कृति में सम्मिलित इस टोपी की विरासत को और महत्व मिल सके।