Thursday, August 21, 2025
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……..दादू रेs पोतळई देखिनी, लेंद मिन रेशमी रुमाल !

लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के जन्मदिन पर विशेष।

(मनोज इष्टवाल)

अल्हड़ता और उभरती जवानी के उभरते प्रेम के लिए इससे बेहतर रचना, रचनाकार व शब्द संरचना मुझे आज तक नहीं दिखी..!
“अंज्वाळ” एक पतली सी गढ़वाली रचनाओं की किताब और उसमें छुपे कई ऐसे ही बेहद मर्म जोकि आपकी रगों में छोटी छोटी चींटियों सी चहलकदमी कर एक अहसास जगा देती हैं. ये रचनाधर्मिता उस मूर्धन्य कवि की हैं जिसका बचपन मवालस्यूं (चौन्दकोट) के उन खेत खलिहानों में बेहद चंचलता और चपलता से गुजरा जहां की माटी के लोग उन्हें बचपन में कृष्णकन्हैया कहकर सम्बोधित करते थे। शैतान इतने की आकाश पर सुराग कर दें और तो और भगवान के बम्ब पर चूटी काटने की काबिलियत रखते थे। ऐसे थे अपने नैली गॉव के इस गीत के रचियता कन्हैया लाल डंडरियाल जिन्होंने अपनी युवा वस्था दिल्ली की सड़कों पर नंगे पैर काटी और जीवंत पर्यंत ऐसी ही साधना में लिप्त रहे। उनके एक एक शब्द इतने कीमती नजर आते हैं मानों इस धरा में इस से कीमती कुछ हो ही नहीं सकता।

अंज्वाळ नामक इस पुस्तक में लिखे इस कवितामयी गीत के शब्द संसार को जब सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी जी ने श्रृंगारित किया उसकी मांग सजाई तो इसकी कीमत इस धरा में माटी के चहेतों के लिए अनमोल हो गयी।
गढ़वाली भाषी हम लोगों में से ज्यादातर शायद इन शब्दों के गूढार्थ नहीं जानते होंगे। वर्तमान के युवा तो शायद ही बता पाए।

उन्होंने लिखा जिसे नेगी जी ने ठीक उतनी ही उंचाई दी जितनी गीत की मर्यादा है-
“ दादू मिल रौन्सल्यूं का बीच बैठिकी बाँसुली बजैनी,
दादू मिन चैढीकि चुळन्ख्युं, चळकदा ह्युंचल़ा देखिनी।।”

इस पंक्ति चुळन्ख्युं शब्द का भावार्थ शायद जल्दी से कोई निकाल पाए. वहीँ सम्पूर्ण पंक्तियों के भावार्थ पर अगर हम जाएँ और जिसने भी गॉव का जीवन जिया है तो यकीन मानिए वह अपने अतीत के उन सुनहरे पलों को संजोकर उदमत्त होकर अपने लडकपन की उस अल्हड़ता को याद अवश्य करेगा. उन्होंने इस पूरे शब्द संसार को इतनी बखूबी प्रस्तुत किया है कि बचपन से जवानी की हर नौटंकियां हर अदाएं बेहद खूबसूरत शब्दों में ढालकर जनमानस को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि यह गीत तो मुझ पर ही केन्द्रित है. उन्होंने बचपन को जिस स्वरूप में परिभाषित किया उसकी कल्पना मात्र से शरीर के रोंवे खड़े हो जाते हैं। नेगीजी ने उनकी पंक्तियों में अपनी जीब्हा अमृत को कुछ यूँ छलकाया है:-दादू मेरी सौन्जडया च काफू, दादू मेरी गैल्या च हिलांसी,
दादू मी बाजू को पियांरो, दादू मी माँजी को लाडूलो।
छऔ मेरा गौळआ कु हंसूळओ, दादू रे बौजी कु भिटूलो।।

सचमुच इन शब्दों के सार की मार से जाने कितने रुन्वासे दिल आज भी घायल होते होंगे जो अपने बचपन को त्याग जवानी और बुढापे की सीढ़ियों की थकान मिटाने की कोशिश कर रहे होंगे। उन्होंने अपने प्रेम प्रसंग के शब्दों में आज प्रेयसी का जितना सुंदर और शिष्ट वर्णन किया है उसका हर कोई कायल हो सकता है। उन्होंने जवानी के उस हुश्न को जो इज्जत बक्शी है हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. आप ही देखिये –
दादू रे उड़मिळआ बुरांसुन, लूछिन भौंरों की जिकुड़ी,
दादू बे किनग्वडो का बीच, देखि मिन हैन्सदी फ्योंलड़ी.
देखि मिन म्वारियुं को रुणाट, दादू रे कौथिगु का थाळ
दादू बै पोतळई देखिनी, लेंद मिन रेशमी रुमाल ।।

अब इन शब्दों में प्रेमी ह्रदय की रसिकता उदारता और व्यक्तित्व की झलक महसूस कीजिये. जैसे उड़मिळआ, रुणाट, जैसे शब्द जब परिभाषित होते हैं तो पूरा कायाकल्प ही कर देते हैं। मानों किसी खूबसूरत यौवना ने प्रेम के भवसागर में डुबकी लगाईं हो। वहीँ अपनी नाकाम प्रेम की कशिश, लाचारी के लिवास को उन्होंने जब ओड़ा तो उसका भी अंदाज उतना ही भावपूर्व ह्रदय कचोटने वाला है:-
दादू ऊ रूड़ी का कौथीग, स्यून्द सी सैणा माकि कूल,
दादू ऊ सौंजडयों की टोल, ली ग्याया तीमला कु फूल।।

तिमला कु फूल कहते हैं जिसने देख लिया उस से बड़ा भाग्यवान कोई नहीं हो सकता। कल्पना देखिये वह कितनी रूपसी रही होगी जिसे यह इस गीत के रचनाकार स्व. कन्हैयालाल डंडरियाल ने अपनी कल्पनाओं की प्रेयसी बनाकर तिमला के फूल से अलंकृत किया और वह कितनी पीड़ा रही होगी जिसे उनके दोस्तों की टोली ही चुनकर ले गयी।
वहीँ उन्होंने प्रकृति को भी खूबसूरती में ढालते हुए जलधारा (मंगरी) को अपनी प्रेयसी की कानों की झुमकी में वर्णित कर कुछ इस तरह परिभाषित किया:-
झुमकी सी तुड्तुडी मंगरी, मखमली हैरी सी अंगडी
फुल्वारियुं हल्कदी धौंपेली, घुंघटी सी लौन्कदी कुयेडी।।

मखमली हरे भरे बुग्यालों को अपनी रूपसी की अंगडी (अंग वस्त्र) व बागों के फूलों को हिलती हुयी चुटिया (धौंपेली) में परिभाषित कर उसके घुंघट को पहाड़ों में छा जाने वाले कुहासे की संज्ञा देकर गीतकार ने एक अलौकिक छवि प्रस्तुत की है।
ऐसे रचनाधर्मी स्व. कन्हैयालाल डंडरियाल व रचना को सतरंगी आवरण में प्रस्तुत कर उसे गीत को बोलों में अपने अमृत कंठ से गुंजायमान करने वाले सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी को शत शत नमन व जन्मदिन की ढेरों शुुुभकामनाएं।

https://youtu.be/VrbJmhEozJM

 

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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