Friday, November 22, 2024
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शेख अब्दुल्ला की जिद पर पंडित नेहरू ने पास करवाया था जम्मू-कश्मीर में आर्टिकल 370 रूपी विघटनकारी अनुच्छेद।

(देवेश खंडेलवाल)

आईसीएस अधिकारी रहे वी. शंकर अपनी किताब ‘माय रेमिनिसेंस ऑफ़ सरदार पटेल’ में लिखते है कि संविधान सभा की सामान्य छवि को सबसे ज्यादा खतरा उस प्रस्ताव से हुआ जो जम्मू-कश्मीर से संबंधित था। इसके जिम्मेदार वे शेख अब्दुल्ला को बताते है। शंकर आगे लिखते है कि शेख जब जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने लगे तो गोपालस्वामी आयंगर ने जवाहरलाल नेहरू से इस पर विस्तार से चर्चा की। इसके बाद एक मसौदा तैयार किया गया जिसे भारत की संविधान सभा के समक्ष कांग्रेस द्वारा रखा गया। यह मसौदा अनुच्छेद 370 (पुराना नाम 306A) का था। अभी तक सरदार पटेल को इस सन्दर्भ में बताया नहीं गया था। उन्हें इसकी जानकारी कांग्रेस कार्यसमिति में लगी, जब आयंगर ने यह प्रस्ताव पेश किया। कांग्रेस में एक मजबूत तबका था, जिसने अन्य रियासतों और जम्मू-कश्मीर के बीच भेदभाव पर नकारात्मक प्रतिक्रिया जतायी।

फ़ाइल फोटो

भारतीय संघ में एक सीमा के बाद किसी भी प्रकार के प्रस्ताव पर अधिकतर सदस्यों की असहमति थी। सरदार पटेल का भी यहीं मत था। उन दिनों नेहरू एक महीने के लिए विदेश दौरे पर थे। उनकी अनुपस्थिति में अनुच्छेद 370 को शेख की मनमर्जी के मुताबिक कांग्रेस कार्यसमिति से पारित करवाने की जिम्मेदारी आयंगर के पास थी। नेहरू के निजी सचिव रहे एम. ओ. मथाई ‘माय डेज विद नेहरु’ में लिखते है कि 1949 में ही नेहरू को शेख की अविश्वसनीयता की जानकारी थी। उन्होंने इस मामलें को अपने तक ही सीमित रखा लेकिन सरदार पटेल को शेख की असलियत का अंदाजा था। वे ही अकेले ऐसे शख्स थे, जिन्होंने शेख के आजाद कश्मीर के सपने को हमेशा असफल बनाया। सरदार के हस्तक्षेप के बाद अनुच्छेद 370 का पहला मसौदा 12 अक्तूबर, 1949 को तैयार किया गया था। जिसे शेख ने नामंजूर कर दिया और एक वैकल्पिक मसौदा बनाकर भेज दिया। आयंगर ने कुछ परिवर्तनों (शेख के मुताबिक) के साथ 15 अक्तूबर, 1949 को दूसरा मसौदा शेख को भेजा। उस समय वे दिल्ली में ही थे और इस बार भी उन्होंने उसे नकार दिया। सरदार पटेल का रुख साफ़ था। जितना संभव हुआ उन्होंने अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने का प्रयास किया। शेख ने भी सरदार पटेल को दरकिनार करने के लिए अभियान छेड़ दिया था। आखिरकार सरदार पटेल इस मामले पीछे हट गए और आयंगर को 16 अक्तूबर को पत्र लिखा, “इन परिस्थितियों में मेरी सहमति का कोई प्रश्न नहीं बनता। आपको लगता है कि ऐसा करना ही ठीक है तो आप वहीं कीजिए।” वी. शंकर खुलासा करते है कि सरदार ने एक नियम बना लिया था कि वे आयंगर और नेहरू के बीच कभी नहीं आएंगे। किसी भी समस्या के समाधान में दोनों का अपना नजरिया होता था इसलिए सरदार अपना दृष्टिकोण नहीं रखते थे।

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शेख की वास्तविक मांग थी कि भारतीय संसद को जम्मू कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में कानून बनाने और अधिमिलन पत्र में उल्लिखित तीन विषयों – सुरक्षा, विदेश मामले और संचार के लिए सीमित कर दिया जाये। शेख ने यह खुलासा 17 अक्तूबर, 1949 को आयंगर को लिखे एक पत्र में किया है। जिसमें उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री नेहरू ने इसके लिए उनसे वादा किया था। यह संवैधानिक रूप से संभव ही नहीं था। दरअसल रियासतों के अधिमिलन में एक समान प्रक्रिया अपनाई गयी थी। अधिमिलन पत्र से लेकर भारत की संविधान सभा में शामिल होने तक जम्मू-कश्मीर के साथ वैसा ही व्यवहार किया गया, जैसा अन्य रियासतों के साथ था। आखिरकार भारत की संविधान सभा में 17 अक्तूबर, 1949 को अनुच्छेद 370 प्रस्तुत किया गया। अब तक उसमें कई बदलाव हो चुके थे। आखिरी समय में भी एक परिवर्तन किया गया था। हालाँकि, इस विषय में अंतिम निर्णय से पहले शेख को बताया गया था। शेख इस दिन संविधान सभा में मौजूद थे और उन्हें वह बदलाव पसंद नहीं आया। उसी दिन आयंगर को उन्होंने एक पत्र लिखा और संविधान सभा से त्याग पत्र देने की धमकी दी। वास्तव में, शेख को इस बात की कल्पना नहीं थी कि अंतिम मसौदे में ऐसा कोई परिवर्तन होगा। वे संविधान सभा छोड़कर चले गए और यह मानते रहे कि वह उसी रूप में प्रस्तुत किया जाएगा जिस रूप में उनकी स्वीकृति प्राप्त हुई थी। ऐसा हुआ नहीं और अनुच्छेद 370 की धारा 1 की उपधारा ख के स्पष्टीकरण में बदलाव कर दिया गया। नेहरू और आयंगर के बाद अनुच्छेद 370 के तीसरे और आखिरी समर्थक मौलाना आज़ाद थे। अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में उन्होंने इस अनुच्छेद पर कोई चर्चा तक नहीं की है। उनकी यह किताब साल 1959 में प्रकाशित हुई थी। उनकी यह जिम्मेदारी थी कि वे इस मामलें पर एक विस्तृत चर्चा कर सकते थे। फिलहाल उनकी चुप्पी का मतलब यही लगाया जा सकता है कि वे प्रधानमंत्री नेहरू पर कोई विवाद खड़ा नहीं करना चाहते थे। खैर, इस पूरी प्रक्रिया में कांग्रेस सिर्फ एक ही बात पर एकमत थी, कि यह अनुच्छेद 370 अस्थाई होगा और इसे समाप्त किया जा सकता हैं। आयंगर ने भी संविधान सभा में इसपर स्पष्टीकरण दिया है। सरदार तो इस अनुच्छेद के पक्ष में कभी नहीं थे लेकिन शेख की निजी मांग को नेहरू और उनके सहयोगी ने लगभग पूरा कर दिया। सरदार से जितना हुआ उन्होंने अनुच्छेद को विफल करने का हर संभव प्रयास किया। वी. शंकर ने सरदार पटेल से पूछा था कि उन्होंने इस बचे हुए अनुच्छेद को भी क्यों पारित होने दिया? इस पर उनका जवाब था कि न तो शेख अब्दुल्ला और न ही गोपालस्वामी स्थायी है। भारत सरकार की ताकत और हिम्मत पर भविष्य निर्भर करेगा और अगर हमें अपनी ताकत पर भरोसा नहीं होगा, तो हम एक राष्ट्र के रूप में मौजूद नहीं रह पाएंगे। यह उनका संदेश था कि अगर सच में हमें अपनी अखंडता को बनाए रखना है तो अनुच्छेद 370 को हटाना ही होगा।

साभार-ऋतम

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