(भूपेश कन्नौजिया)
HMT घड़ी कारखाना ..जो को नैनीताल जिले के हल्द्वानी के समीप रानीबाग में स्थित है..आप मे से या आपके किसी परिचित ने यहां नौकरी की होगी..कई यहां घूमने आये होंगे..! मेरे बुजुर्ग इसके स्वर्णिम पलों से भली भांति परिचित हैं..जो अब आने वाली पीढ़ियो को इसके किस्से सुनाएंगे..समय के हिसाब से खुद को न बदल पाना सहित राजनीतिक कारक भी इसे गर्त में समाने का कारण रहे…खैर कल मौका मिला यहां जाने का तो अतीत के पन्नो से थोड़ी धूल साफ करने का मौका मिला..।
हरे-भरे पेड़ों और पहाड़ियों से घिरे घड़ी कारखाने की एक छोटी सी सैर जो एहसास कराता है उन दिनों की जब घड़ी का मतलब एचएमटी होता था। ये उस वक़्त का दौर था जब एचएमटी की घड़ी एक स्टेटस सिंबल हुआ करती थी। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के लिए तमाम मॉडल थे। कोई गांधी घड़ी का शौकीन था तो कोई कलाई घड़ी का। वक़्त बीतता गया बाजार में अन्य विदेशी कंपनियों का आगमन हुआ तो एचएमटी उनसे टक्कर न ले पायी। धीरे-धीरे एचएमटी अर्श से फर्श पर लौटने लगी और आज घड़ी कारखाना कबूतरों और जंगली जानवरों का अड्डा बन गया है।
कारखाने के भीतर प्रवेश करने पर कोई डरावना खंडहर लगता है, जगह-जगह प्लास्टर उखड़ा हुआ है, ठंडी हवा का झोंका टूटी खिड़कियों से सीधे अंदर कार्यालय पहुचता है जो फाइलों, टेबल-कुर्सी पर जमी धूल और मकड़ जालों को कुरेदता सा प्रतीत होता है। किसी सुंदर, व्यवस्थित कार्यालय की तरह कभी कितनी चहल-पहल रौनक हुआ करती होगी इस बात का अंदाजा यहां पड़े पेपर-वेट, कुर्सियों, दास्तावेज़ों, टेलीफोन, टाइपराइटर देख कर लगाया जा सकता है। मगर अब दीवारों पर लटके हुए पर्दे बरसात, धूप-धूल खा-खा चीथड़ों में तब्दील हो गए हैं। कर्मचारियों के लिए आने-जाने के लिए लगाई गई लिफ्ट की गरारी जाम हो चुकी है। दीवार पर टंगी घड़ी जवाब दे चुकी है, सुंदर पेंटिंग, चित्र व एचएमटी फैक्ट्री का मॉडल जिनमे एचएमटी का स्वर्णिम भविष्य नजर आ रहा था आज सब धूल फांक रही हैं। पुराने जमाने के हाथ से नम्बर घुमा-घुमा के डायल किये जाने वाले फोन की घण्टी ऐसे शांत है मानो कोमा में पड़े किसी मरीज के चेतन अवस्था मे लौट आने का इंतजार हो। मगर अब यह मुमकिन नहीं और एचएमटी काल के गाल में समा चुकी है जिंदा है तो केवल उसकी यादें…जो अब तस्वीरों में कैद हो चली हैं…।
पंडित नारायण दत्त तिवारी की देन थी एचएमटी।
केंद्र में भारी उद्योग मंत्री रहते हुए स्व पंडित नारायण दत्त तिवारी ने वर्ष 1982 में रानीबाग में एचएमटी घड़ी कारखाने की नींव रखी थी। वर्ष 1985 में निर्माण पूरा होने पर इसका उदघाटन करने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी रानीबाग आए। तिवारी ने सत्ता में रहते कभी भी इस फैक्ट्री में ताला नहीं लगने दिया लेकिन तिवारी के सत्ता से हटते ही फैक्ट्री के दुर्दिन शुरू हो गए।
लगभग एक दशक तक फैक्ट्री खूब फली फूली। यहां लगी पांच सौ से अधिक मशीनों में 512 कर्मचारियों को रोजगार मिला, लेकिन गुजरे वक्त में कुप्रबंधन और उदारीकरण के बाद विदेशी सस्ते ब्रांड से मिल रही कड़ी प्रतिस्पर्धा के साथ एचएमटी का वजूद खत्म होता चला गया। फैक्ट्री प्रबंधन ने एचएमटी को बंद करने का प्रयास किया लेकिन कर्मचारियों के मुखर विरोध के चलते एचएमटी छह जनवरी 2016 तक सांस लेती रही। जनवरी 2016 में एचएमटी कारखाने में मशीनों की आवाज थम गई ।
- घड़ियों के लिए आर्मी कैंटीन में भी लोगों को इंतजार करना पड़ता था। पूरे देश में लगभग छह लाख घड़ियों का ऑर्डर सालाना एचएमटी वॉच ग्रुप को मिलता था। आर्मी कैंटीन को घड़ियों की सप्लाई करने में लगभग एक माह का समय लग जाता था। आर्मी कैंटीन में घड़ी के आने की बेताबी से प्रतीक्षा की जाती थी।
टाइटन ने एचएमटी को दिया करारा झटका।
- 1993 में टाइटन को लाइसेंस मिलने के बाद से ही एचएमटी की स्थिति खराब होने लगी। टाइटन ने बाजार के अनुरूप अपने को ढाला और क्वार्ट्ज घड़ियों की श्रृंखला बाजार में उतारी। एचएमटी प्रबंधन ने अपने को अपडेट नहीं किया। वर्ष 1995 से एचएमटी का डाउन फाल शुरू हो गया।
- जनता, कोहिनूर, पायलट और सोना एचएमटी के खासे लोकप्रिय मॉडल थे। इन क्वार्ट्ज घड़ियों की कीमत 11 सौ से 15 सौ रुपए के बीच होती थी। वहीं दिव्यांगजनों के लिए एचएमटी ब्रेल नामक घड़ी भी बाजार में उतरी गयी थी जो दिव्यांगजनो को खासी पसंद आई।
- रानीबाग यूनिट में प्रतिवर्ष 16 से 18 लाख घड़ियां बनती थीं। घड़ी खरीदने के लिए लोग इंतजार करते थे। शोरूमों में घड़ियों की मांग पूरी नहीं हो पाती थी। रानीबाग से घड़ियां बनकर दिल्ली जाती थीं।