(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 22 अगस्त 2016)
साहसिक पर्यटन को अगर हम रॉक क्लाइम्बिंग या राफ्टिंग या ट्रेकिंग से हटकर लोकगाथाओं में भी ढालें तो मैं शर्त के साथ कह सकता हूँ कि लोक में ब्याप्त कई उन रहस्यमयी गाथाओं से भी पर्दा उठा जाएगा जो आज भी हमारे लिए डरावनी, साहसिक, रहस्यमयी व रोमांच से भरपूर पटकथाएँ हैं. जिन्हें हमारे दादी दादा हमें सुना गए उनके दादी दादा उन्हें और उनके दादी दादा के दादी दादा के दादी दादा भी उन्हें यूँहीं सुनाकर गए हैं. पीढी दर पीढ़ी हम उन रहस्यमयी लोक की रोमांचक कथाओं को सुनते तो हैं कल्पना भी करते हैं लेकिन वहां तक पहुँचने के लिए डरते हैं.
मैंने थोड़ा बहुत नहीं बल्कि बहुत साहस किया कि मैं इस सच्चाई के रूबरू होकर ऐसी कथाओं को पटकथा में ढालकर उसके रुपान्तारण का पटाक्षेप करूँ ! मुझे काफी सफलता भी मिली और मैंने देर सबेर इसे आप सबके समुख रखा भी ..!लेकिन विश्वास करे तो कौन करे क्योंकि आज इंसान से भूत डरता है भूत से इंसान नहीं लेकिन यह सच है कि कोई तो एक ऐसा लोक जरुर है जिसमें हमारा आज भी अकेले कदम रखने का साहस नहीं होता.
मैं आज आपको कसमोली बुग्याल के पार झंडीधार पर्वत श्रृंखला के उस परीलोक ले जा रहा हूँ जहाँ आज भी अहेड़ खिलखिलाकर हंसती हैं, घुन्घुरुओं की झंकार सुनाई देती है. अँछरियों की ओखल, गंज्याली व चावल की ताज़ी भुस्सी दिखाई देती है. जहाँ आज भी आपको आहटों में गूंजते स्वर सुनाई देते हैं जहाँ आज भी हवाओं में भीनी-भीनी खुशबु बयार के रूप में बहती है जो कभी बेहद गर्म तो कभी बेहद सर्द हवा के रूप में महसूस होती है.
राज महल नरेंद्र नगर जो आज होटल आनंदा के रूप में तब्दील हो गया है वहां से पॅकेज टूर पर अक्सर अंग्रेज कसमोली होकर आज भी झंडीधार तक ट्रेक करते हैं जहाँ वास्तव में नो फारेस्ट जोन है और मखमली बुग्याल की गुदगुदाहट में आप दूर तक फैली हिमालयी श्रृंखलाओं व सुदूर मैदानी भूभाग को निहारते हैं. विगत बर्ष विद्या बलान (फिल्म अभिनेत्री) ने भी इस क्षेत्र का भ्रमण किया था और इसकी रमणीयता से गद्गद भी हुई.
झंडी धार पर्वत शिखर पहुँचने के लिए आपको दो रास्ते हैं पहला चल्ड गॉव वाला जोकि झंडीधार के बिलकुल नीचे है और यहाँ से बिलकुल नाक की सीस्त वाली चढ़ाई चढ़नी पड़ती है. दूसरा रास्ता ट्रेकिंग आप आगराखाल से पैदल भी कर सकते हैं या और सरल बनाने के लिए आप कसमोली गॉव के मिनी बुग्याल क्षेत्र से गुजरकर यहाँ पहुँच सकते हैं और मेरे हिसाब से यही मुफीद रास्ता भी है क्योंकि यह सीधा खड़ी चढ़ाई वाला न होकर धीरे-धीरे चढ़ता जाता है. झंडीधार बुग्याल पहुँचने के लिए आपको लगभग 15 किमी से लेकर 20 किमी तक का ट्रेक करना होता है. जबकि आप कसमोली तक अगर गाडी का सफ़र करते हैं तब यह बुग्याल आपके लिए ट्रेक के लिए 5 से 7 किमी. दूर ही पड़ता है. यह पर्वत शिखर सर्दियों में बर्फ़ से लकदक रहती है और गर्मियों में भी यहाँ की सर्द हवा से बचने के लिए बिलकुल हल्का विनचिटर रखना मत भूलिए.
कसमोली गॉव के बुजुर्ग सुंदर सिंह रमोला बताते हैं कि उनके चाचा स्व. सोहन सिंह रमोला व पिता स्व. हरी सिंह रमोला (कसमोली के लाला जी के रूप में प्रसिद्ध व 35 साल लगातार प्रधान रहने का रिकॉर्ड) ही नहीं बल्कि उनके दादाजी स्व. मौला सिंह रमोला भी बताया करते थे कि यहाँ आंछरियाँ (परियां) रहती हैं जो अक्सर पक्का हुआ धान, झंगोरा व काउणी की बाल तोड़कर ले जाया करती थी और यहाँ झंडीधार में अपने ओखलों में कूटा करती थी जिसकी भुस्सी आज भी दिखाई देती है. उनका कहना है कि इस क्षेत्र में इन परियों का ऐसा ऐसा बंधन है कि शिकारी कभी भी किसी पशु पक्षी का शिकार नहीं कर पाया, उनके फायर हमेशा यहाँ मिस हो जाया करते हैं.
परियों के बारे में यह आम धारणा सिर्फ यहीं नहीं है बल्कि उच्च हिमालयी बुग्यालों की हर उच्च शिखर इनका स्थान मानी जाती है. ये तब तक आपको नुक्सान नहीं पहुंचाती जब तक आप उस क्षेत्र की पवित्रता बनाए रखते हैं. मैती आन्दोलन के प्रेणत़ा कल्याण सिंह रावत मैती भी इस बात को स्वीकारते हैं कि देवभूमि में देव और दुष्ट आत्माओं का हमेशा से वास रहा है जिनका हमें अक्सर आभास होता ही रहता है. वे उदाहरण देते हैं कि हरियाली डांडा, खैट पर्वत, उफ्रैडांडा, बधाण डांडा, लब-कुश डांडा, एड़ी डांडा, सुतौल डांडा, च्न्द्नियाँ घाट, डोडीताल, हरपु धार, झंडीधार (अल्मोड़ा बिनसर), नाचिकेता ताल सहित अनेकोंनेक ऐसे बुग्याल व पर्वत शिखर हैं जहाँ आज भी आँछरियों, अहेडों का वास है. वे बताते हैं कि सुतौल के ऊपर आज भी परियों का ऊँन कातने का चरखा है, वहीँ चंदनिया घाट परियों का ही घट माना जाता है. आम जनमानस का कहना है कि वहां परियां अपने गेहूं चावल इत्यादि को पिसवाया करती थी.
बर्षों तक ट्रेकर्स के साथ बतौर ट्रेकर व पोर्टर के रूप में भी काम करने वाले कुम्मी घिल्डियाल बताते हैं कि उनका सामना यूँ तो कई बार हुआ है लेकिन इतना करीबी मामला सिर्फ एक बार हुआ जब वे नीति घाटी में ट्रेक के लिए गए थे. भोटिया जाति के बुजुर्गों के मना करने पर भी वे आगे बढे और उन्होंने गौरसों बुग्याल व ल्वीटी बुग्याल का सफ़र करना जारी रखा. बर्फ़ बारी के कारण उन्हें रुकना पड़ा तो देखा दूर से कोई महिला आ रही है वह जैसे जैसे करीब आती गयी मेरे तन मन के रोंवें खड़े हो गए, ऐसी अदभुत सौन्दर्य उन्होंने पहली बार देखा.वे कार से बाहर नहीं निकले और डर छुपाने के लिए उन्होंने गाड़ी का संगीत बजा दिया जिसमें “नारैणी मेरी दुर्गा भवानी” जागर बजनी शुरू हुई फिर तो वे अपनी सुधबुध ही खो गए उन पर क्या उतरा ये उन्हें भी पता नहीं वह कितनी देर पागलों की तरह उस महिला के साथ नाचते रहे ये वे नहीं जानते. टेप कब बंद हुआ उन्हें नहीं पता लेकिन जब होश में आये तब घुप्प अन्धेरा था. अब वे शांत थे लेकिन अब ज्यादा डर लगा उन्होंने गाडी वापस मोडी और वापस लौटने में ही भलाई समझी.
मैं पूर्व में भी कई थातों में परियों के वास के बारे में लिख चुका हूँ जिनमें चौरंगीखाल, मान थात, नुणाईथात, केदारकांठा, आली बुग्याल सहित अनेकोंनेक बुग्यालों में इनकी उपस्थिति का आपको आभास होता है. यकीन न हो तो कभी ट्रेक के दौरान यह महसूस करने की कोशिश अवश्य करें. परियों के लोक पर मेरे द्वारा ऐसी ही गाथाओं का बर्णन आपको देर सबेर मिलता रहेगा जिसे आज का युवा माने न माने लेकिन आज से लगभग 30-40 बर्ष पूर्व जन्मा वह हर ग्रामीण अवश्य मानेगा जिसने खिली चन्द्रमा में ढ़ोंगले बनाते समय, मसूर ठूंगते समय या रात्री पहर में गाय बच्छी भेड़ बकरी ढून्ढते समय अहेडों (परियों) की गूंजती किलकारियां सुनी होंगी कभी इस खाई की तरफ, कभी पर्वत शिखर पर तो कभी अपने बेहद करीब..! और इसी डर के बीच से निकलकर हर पहाड़ी निडरता की हर सीमाएं लांघता गया. हर माँ अपने बेटे को आगाह कर देती थी कि ऐसी परिस्थितियों में क्या करना होता है. मात्र जीतू बगड़वाल ही ऐसा वीर भड या प्रेमी नहीं रहा जो अपनी साली भरणा के वियोग में खैट शिखर पर बांसुरी बजाता परियों के सम्मोहन में फंसा और परियां उसे रोपणी के दिन हल बैल सहित अपने साथ उड़ा ले गयी बल्कि हरपु भी उनमें ऐसा एक पुरुष रहा. ऐसे ही असंख्य किस्से भी हैं. जो युग युगांतर अपनी कहानियों में जीवित हैं.
आज भी इन बुग्यालों में भड़कीले कपडे पहनकर जाना निषेध है. मेरा पर्यटकों या ट्रेकिंग के शौकीनों व ट्रेकिंग करवाने वाली हर कम्पनी से अनुरोध है कि जब भी जिस भी हिमालयी बुग्याल की वे सैर करें वहां गन्दगी न फैलाएं कूड़ा जला दिया करें. कुछ खाने से पहले उन अदृश्य आत्माओं के लिए भी कुछ रख दें जिन्हें हम देख नहीं पाते. भड़कीले चटकीले कपडे पहनकर ऊँचाइयों में न जाएँ अक्सर हिमालयी ट्रेकर्स के साथ दुर्घटनाओं के मुख्य कारक यही होते हैं! यदि आप ऐसे परीलोक के सफर पर हों तो उनकी भावनाओं की कद्र करें आपकी हर यात्रा को वे मंगलमय बनाने में अदृश्य तौर पर आपकी सहायता करेंगी! मुझे खेद है कि खराब मौसम व व्यस्तता के चलते हमें झंडीधार के परीलोक का सफ़र अधुरा छोड़ना पड़ा लेकिन यह तय रहा कि अगले मई जून में यहाँ जरुर चन्द्रमा की चांदनी में नहाने को मन बेताब है.
(सफर के साथी- शिब प्रसाद सती/ नवीन ( सम्पादक शंखनाद), कुम्मी घिल्डियाल (टीएचडीसी टिहरी), सुरेन्द्र सिंह कंडारी (व्यवसायी/सोशलिस्ट/वरिष्ठ पत्रकार आगराखाल)