Friday, November 22, 2024
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दो सदी पूर्व की है नेपाल व गढ़वाल राजघराने की रिश्तेदारी। 1859 में गढ़वाल राजमहल राजाविहीन होने पर दत्तक पुत्र ग्रहण अधिकार में शामिल।

(मनोज इष्टवाल)

यूँ तो आज भी टिहरी रियासत के राजघराने के लोग राजा कहलाते हैं लेकिन गढ़वाल के इतिहास के अनुसार 52 गढ़ के अंतिम राजा सुदर्शन साह हुए। साह और शाह में क्या अंतर है और कब यह अंतर आया उस पर शोध जरुरी है क्योंकि ब्रिटिश दस्तावेजों में इन राजघराने के बाशिंदों या राजाओं को साह की उपाधि थी न क़ि शाह की। राजा कीर्ति साह को भी एच. जी. वाल्टन ने साह ही पुकारा है नकि शाह। यह अपभ्रंश शायद राजा नरेंद्र शाह के समय से आया। वर्तमान में साह घरानों से सम्बंधित ज्यादातर लोग कुमाऊँ में स्वर्ण व्यवसायी हैं। यह बात चौकाने वाली लगती है।

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अंतिम राजा सुदर्शन शाह मृत्यु 1859  में होने के बाद जहाँ रानी पुत्र विहीन हुई वहीँ राजगद्दी किसके भरोसे सौंपी जाय यह बड़ी उहापोह थी। यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज ब्रिटिश काल का है जिस से विधित होता है कि राजा सुदर्शन शाह ने पांच शादियां की थी! शायद ऐसी ही कोई सनद टिहरी राजमहल के पुराना दरबार साहिब में भी है! राज परिवार की खेमेबाजी भी यहीं से शुरू बताई जाती है क्योंकि एक ओर यह बताया जाता है कि राजा सुदर्शन साह पुत्र विहीन थे वहीँ 7 जून 1859 (सनद की शर्तों के अनुसार व्यपगत राज्य जब), ving मुद्दे सहित चार बेटों था!) जिनमें
1) कुंवर भवानी सिंह, स्वस्ति श्रीचार्य 1008 बद्रीश प्रयाण भव धरम रक्षक शिरोमणि श्री भवानी शाह साहिब 108 महाराजा बहादुर, टिहरी गढ़वाल !, 2) श्री श्री श्री श्री श्री टिक्का सुरजन शाह साहिब टिहरी में, सीए. 1818 ( महारानी खनौती), शिक्षा के. निजी तौर पर. उनके बड़े भाई को वरीयता में, जन्म के समय वारिस के रूप में नियुक्त किया है!, 3) कुंवर शेर सिंह (S / O एक छोटी स्त्री), 1859 में महारानी खनेती के समर्थन के साथ उत्तराधिकार चुनाव लड़ा और चुनाव में हार गए!,
भवानी साह हुए जिन्हें सुदर्शन साह की मृत्यु के पश्चात राजगद्दी सौंपी गयी! क्योंकि बिना राजा के टिहरी रियासत में हाहाकार था। न्याय पसन्द ब्रिटिश हुकूमत ने तब एक क़ानून बनाया जिसे दत्तक पुत्र अधिग्रहण अधिकार का नाम दिया गया एवं राजघराने की रिश्तेदारी में ही भवानी साह को राजगद्दी सौंप दी जिन्होंने 1872 तक राज किया।

राजा सुदर्शन साह!

राजा सुदर्शन शाह के बारे में प्राप्त जानकारियों व दस्तावेजों के आधार पर उन्होंने पहला विवाह एक क्षत्रिय लड़की, एक गैर शासक परिवार से किया था! दूसरा विवाह सन 1815, महारानी साहिबा खनेती खनौत से किया जिनसे एक राजकुमारी का जन्म बताया जाता है! तीसरा विवाह क्योंथल की महारानी साहिबा से हुआ उनसे भी एक राजकुमारी का जन्म हुआ! चौथा विवाह हरिद्वार में सन 1828, महारानी साहिबा कांगड़ा से किया! पांचवां विवाह श्री राजा करन प्रकाश द्वितीय बहादुर, सिरमौर के राजा की बड़ी बेटी से होना बताया जाता है! प्रथम रानी जो राजकुलीन नहीं बताई जाती को प्रसारित किया गया कि यह विवाह अवैध है अत: उस से प्राप्त पुत्र राजगद्दी में आसीन नहीं माना जा सकता! शायद यह दबाब उन राज परिवारों का रहा हो जिनसे मात्र पुत्रियाँ पैदा हुई कहा तो यह भी जाता है कि राजगद्दी की चाह में समय से पूर्व पुत्र उत्पन्न के भी प्रयास होते रहे लेकिन यह बातें किंवदंतियों में ही प्रसारित हुई! बहरहाल एक शाखा राज परिवार की वह है जिनका यहाँ जिक्र इसलिए नहीं हुआ कि वो गैरशासकीय परिवार की रानी से उत्पन्न पुत्र हुए! बिडम्बना देखिये कि एक ओर यह प्रसारित हुआ कि राजा सुदर्शन शाह मृत्यु 1859  में होने के बाद जहाँ रानी पुत्र विहीन हुई वहीँ चार-चार पुत्रों की उत्पत्ति का जिक्र भी हुआ है!

राजा भवानी साह द्वारा 1872 तक राज सुख भोगा गया उनकी मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र प्रताप साह उनकी मृत्यु के बाद राजगद्दी पर बैठे और मात्र 1887 तक हो राजसुख भोग पाये। प्रताप साह के बाद उनके पुत्र कीर्ति साह राजगद्दी पर बैठे जिनका विवाह नेपाल नरेश जंगबहादुर की पुत्री महारानी राजलक्ष्मी से हुआ। वर्ष 1877 में महारानी विक्टोरिया ने दिल्ली दरबार में टिहरी नरेश को कुल चिह्न भेंट किया। यही नहीं 1903 में महाराजा कीर्ति शाह को ‘सर’ के खिताब से नवाजा गया व 1906 में उन्हें आगरा-अवध विधानसभा का प्रमुख नामित किया गया। 1913 में कीर्ति शाह के निधन के बाद उनकी पत्नी महारानी नेपालिया राजलक्ष्मी को ब्रिटिश सरकार ने केसरे हिंद का खिताब दिया।

राजा नरेंद्र शाह !

कीर्ति साह के बाद उनके पुत्र नरेंद्र शाह गद्दी पर बैठे जिन्होंने नरेंद्र नगर बसाया। ये आजाद भारत से पहले के टिहरी रियासत के अंतिम राजा हुए। राजा नरेंद्र शाह की बात करें तो वह ब्रिटिश अफसरों की उन पार्टियों में भी शरीकहुआ करते थे, जहां शराब की अनिवार्यता होती थी, मगर नरेंद्र शाह एक मात्र ऐसे अतिथि होते, जो शराब का सेवन नहीं करते थे। 1931 में राजा नरेंद्र शाह को नाइट कंपेनियन ऑफ स्टार ऑफ इंडिया के खिताब से नवाजा गया। 1937 में टिहरी नरेश महाराजा नरेंद्र शाह को मानद कर्नल की उपाधि दी गई। 1946 में इस उपाधि से मानवेंद्र शाह को भी नवाजा गया।

राजा मानवेन्द्र साह !

राजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी या टेहरी शहर को बनाया, बाद में उनके उत्तराधिकारी प्रताप शाह, कीर्ति शाह और नरेन्‍द्र शाह ने इस राज्‍य की राजधानी क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेन्‍द्र नगर स्‍थापित की। इन तीनों ने 1815 से सन्‌ 1949 तक राज्‍य किया। तब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यहाँ के लोगों ने भी काफी बढ चढ कर हिस्‍सा लिया। आजादी के बाद, लोगों के मन में भी राजाओं के शासन से मुक्‍त होने की इच्‍छा बलवती होने लगी। महाराजा के लिये भी अब राज करना मुश्‍किल होने लगा था। और फिर अंत में 60 वें राजा मानवेन्‍द्र शाह ने भारत के साथ एक हो जाना कबूल कर लिया। इस तरह सन्‌ 1949 में टिहरी राज्‍य को उत्तर प्रदेश में मिलाकर इसी नाम का एक जिला बना दिया गया। बाद में 24 फरवी 1960 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी एक तहसील को अलग कर उत्तरकाशी नाम का एक ओर जिला बना दिया। कहा तो यह भी जाता है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद आर्थिक संकट से राज्य को उभारने के लिए राजा मानवेन्द्र साह द्वारा तत्कालीन भारत सरकार को एक या दो लाख स्वर्ण मुद्राएँ (अशर्फियाँ) भेंट की गयी थी ताकि राज्य गठन में कोई दिक्कत न आये लेकिन दुर्भाग्य देखिये यह राजा सांसद ही रहे न कभी मुख्यमंत्री बनाए गए और न ही केन्द्रीय मंत्री!

बहरहाल टिहरी राज परिवार पर एक आरोप तो लगता ही है कि उन्होंने श्रीनगर से राजधानी टिहरी बदलते ही तत्कालीन चमोली व पौड़ी जिला ब्रिटिश हुकूमत को बेच दिया और यह पीड़ा ब्रिटिश गढ़वाल के लोगों को सालती रही ! यही कारण भी है कि जानकार ब्रिटिश गढ़वाल के वाशिंदे टिहरी राजवंश को राजा गढ़वाल से सम्बन्ध नहीं करते और न ही वे यह कहते हैं कि टिहरी राजा कभी उनके भी राजा हुए! भले ही अशिक्षित समाज के कई लोग आज भी टिहरी राजदरवार को गढवाल नरेश कहने में कोई गुरेज नहीं करते लेकिन ऐतिहासिक परिदृष्टि में यह सत्य है कि टिहरी राजदरवार सम्पूर्ण गढ़वाल के राजा कभी कहलायें हों यह संदेहास्पद है!

(नोट:- उपरोक्त जानकारियाँ विभिन्न स्रोतों से जुटाई गयी हैं जिन में खामियां भी हो सकती हैं! कृपया ऐतिहासिक सन्दर्भों को इस से भी अच्छे तरीके से जानकारी रखने वाले इतिहासविदों से अनुरोध है कि यदि उनके पास सन्दर्भ हो तो कृपया लोक हित में उसे सामने रखें!)

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