(मनोज इष्टवाल)
बर्ष 2006 की बात है जब सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की कैसेट “समदोला का द्वी दिन” टी सीरीज से रिलीज हुई थी! तब दो काम एक साथ हो रहे थे! एक राज्य गठन के साथ ही तेजी से पहाड़ों से मैदानों में पलायन और दूसरा ऑडियो कैसेट के प्रचलन में तेजी से गिरावट! लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी सचमुच ऐसे समसामयिक लोक धर्मिता के रचनाकार व गायक हुए हैं जिन्होंने वक्त काल परिस्थिति का पूर्व अनुमान लगाते हुए गीतों की संरचना की है! उन्हीं समसामयिक मुद्दों की कसौटी पर खरा उतरता उनका गीत “हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि फ्योंली लयड़ी! मैं घौर छोड्यावा…! हे जी घर बौण बौड़ीगे ह्वोलु बाळओ बसंत मैं घौर छोड्यावा !” जब बाजार में आया तब विरह-ब्याकुल तड़फती तरसती आँखें जरुर नम हुई हैं! सच ये है वे आँखें कम उम्र मातृशक्ति की कम और पुरुषों की ज्यादा बही हैं क्योंकि कम उम्र नई नवेली दुल्हनों ने अभी अपना घर आँगन सम्भाला भी नहीं था कि पति के साथ बनवास रुपी शहरों में चली गयी लेकिन मैं ऐसी कई डबडबाती अपनी चाची, ताई दादी इत्यादि की आँखें जरुर देखी हैं जो इस गाने को सुनकर अपनी खुद थी! यह सचमुच मुझे भी नहीं मालुम था कि लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का यह गीत सिर्फ गढ़वाली समाज के लिए ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में रह रहे उत्तराखंडी समाज के लिए फुलदेई का अमृत बन जाएगा!
“दे..दे..माई दाळ चौंळ, तांबा तौली फरफुरु भात, भैर आया भैर खुलिग्ये रात!” या फिर “फुल-फुलदेई दाल चौंल दे घोघा देवा फ्योंल्या फूल घोघा फूलदेई की डोली सजली गुड़ परसाद दै दूध भत्यूल !” या फिर ऐग्ये चैती पैसारो, हे गोबिन्दा फूलूं ले ऐल्यो!” ऐसे न जाने कितने गीत अपनी फूल संगराद (फूलदेई संक्राति) से जुड़े हुए हैं! यकीन मानिए आज भी हम इस त्यौहार को मना तो रहे लेकिन हम में से कितने प्रतिशत ऐसे लोग हैं जो फूलदेई के बारे में जानकारी रखते हैं? मेरे हिसाब से बमुश्किल उत्तराखंडी ज के 20 प्रतिशत ही ऐसे लोग होंगे जो फूलदेई की गहराई से जानकारी रखते होंगे! बर्ष 2011-12 में मेरे द्वारा जैन टीवी न्यूज़ चैनल के लिए इस पर एक व्यापक शोधपरक विजुअल प्रसारित करवाया था तब से लेकर इसके प्रति उत्तराखंड में काफी रूचि बढ़ी! विगत 2013 से लेकर अब तक वरिष्ठ पत्रकार शशि भूषण मैठाणी ने इसे पूरे उत्तराखंड तक फैलाने का काम किया! पान्डवाज के डोभाल बंधुओं ने तो इस पर खूब रजकर मेहनत की व ऐसा फिल्मांकन कर डाला कि उसकी वानगी विश्व के कई देशों तक जा पहुंची! जिसका नतीजा यह निकला कि विगत बर्ष वरिष्ठ पत्रकार रविश कुमार ने भी इसे एनडी टीवी पर प्रसारित कर इसे राष्ट्र ब्यापी नहीं बल्कि विश्व व्यापी बनाया है और आज यह सिर्फ फुलदेई नाम का पर्व नहीं रह गया है बल्कि पूरे देश के कई महानगरों की पहली चॉइस बन गया है!
वरिष्ठ पत्रकार शशिभूषण मैठाणी ने बर्ष 2013 में इसे ब्यापकता देते हुए इसकी शुरुआत उत्तराखंड के राज भवन से शुरू कर इसकी लोकप्रियता में चार चाँद लगा दिए! तब से वह हर बर्ष इस त्यौहार को देहरादून के करीब 22 स्कूलों के बच्चों के साथ टोकरी में ताजे-ताजे फूलों के साथ मुख्यमंत्री आवास, राज्यपाल आवास सहित राजधानी की कई नामी गिरामी हस्तियों के द्वार तक ले जाते हैं और बच्चे हर द्वार पर दसौली चमोली की फूलदेई की पंक्तियाँ कहते सुनाई देते हैं-“फुल फुल माई दाळ दे, चौंळ दे ..फुलफुल ख़ाजा!”
शशि बताते हैं कि उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि इस बार विगत बर्ष की भाँति जो उन्होंने गुजरात और लखनऊ में इस त्यौहार की शुरुआत की थी इस बार वहां के समाज ने मेरी अनुपस्थिति में भी इसका वही रूप रखा ! लखनऊ में बाल गोपाल वाले अनूप मिश्रा व आनंद मिश्रा ने फूलदेई में इस बार भी सैकड़ों बच्चों को शामिल किया वहीँ गुजरात में भी आज ही के दिन फूलदेई को बड़े धूम धाम के साथ मनाया! उन्होंने बताया कि यह हैरत की बात है कि लखनऊ व गुजरात में फुलदेई मनाने वाले एक भी उत्तराखंडी नहीं हैं और ये जब फूल डालने घरों में जाते हैं तो मेरे रटाये शब्द
“फुल फुल माई दाळ दे, चौंळ दे ..फुलफुल ख़ाजा!” बोलते हैं!
पांडवाज ने लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीत पर हल्का सा अमेंडमेंट किया जिसके लिए डॉ. डीआर पुरोहित व प्रेम मोहन डोभाल ने कुछ शब्दों का सामंजस बैठाकर इसे पूर्व रूप से फूलदेई पर्व में तब्दील कर इसकी खूबसूरती को चार चाँद लगा दिए! ईशान डोभाल के संगीत से सजे इस गीत में कविन्द्र नेगी, अंजलि खरे, अम्बिका वशिष्ठ, सुनिधि वशिष्ठ ने स्वर दिया है! गीत की शुरुआत का मुखड़ा “चला फुलारी फूलूं कू, सौदा-सौदा फूल बिरोला!” से शुरू करते हुए फिर इसमें लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीत को रखा गया है!
यकीन मानिए जितनी खूबसूरती से लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने इस गीत की शब्द संरचना को तरासा है वह अतुलनीय है वह पार्वती स्वरुपा उस माँ या बहन के उस पहाड़ प्रेम का बखान करते हैं जिसे वह ऋतुराज बसंत के आगमन की सुगुबुगाहट के साथ प्रदेश में महसूस करती बेहद ब्याकुल मन से अपने पति से विनय भाव में अनुरोध करती हुई कह रही हैं कि हे जी, खेतों में पसर गयी होगी फ्योंली व सरसों के फूल मुझे घर छोड़ आओ! घर और जंगल पहाड़ों में बसंत का बचपन लौट आया होगा मुझे घर छोड़ आओ! आ रखा होला फुलार हमारे लगाए पाले हुए आडू-खुमानी में, चैत्र मास में आवजी दान मांग रहे होंगे गाँव के हर घर-मोहल्ले में, बंद दरवाजे देख फूल डालने वाले फुलारी ठगे से रह गए होंगे मुझे घर छोड़ आओ! घेंडूडी-घुघूती (माँ बहनों के पारिवारिक मित्र पक्षी) व्याकुल होकर मंडरा रही होंगी खाली आँगन व ओखली में, कुत्ता देहरी में आस भरी नजर से व बिल्ली मकान की धूर व मोहरियों में देख टपरा रही होगी! मेरे आले की पाली हुई मधुमक्खियाँ भी उड़ गयी होंगी मुझे घर छोड़ आओ! अहा… क्या बर्णन है इस गीत में क्योंकि अभी तक तो वह पार्वती सिर्फ गुजारिश के शब्द श्रृंगार से अपने पहाड़ की वानगी के एक एक शब्द पिरोकर अपनी खुद बिसराती जा रही थी लेकिन अब समय परिवर्तन की बात को लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी जब रखते हैं तब उसकी ख़ूबसूरती और बढ़ जाती है! वे आगे लिखते हैं – न वैसा धर्मभीरु आसमान है न वैसी दयालु यहाँ की धरती! अनजाने चेहरे और अजीब सी नजरें, मनुष्य भी बिना मेल मिलाप के चारों तरफ हैं, यहाँ तो चिड़ियाओं के पेड़ पौधे भी बेरुखे हैं मुझे घर छोड़ आओ! तुम सारे दिन ड्यूटी रहते हो, मैं इस वीरान से क्वार्टर में, न कोई बातचीत न आवाज देना, बस बंद दरवाजे हैं! छि: ऐसे प्रदेश में तुम रहना चाहते हो रहो मुझे घर छोड़ आओ!
इस गीत को उदृत करने के पीछे मेरा जरा भी यह मन नहीं था कि मैं बिषय वस्तु से भटककर बाहर निकलूं क्योंकि यही तो फूलदेई की सबसे बड़ी खूबसूरती का मिजाज है कि चैत्र मास के प्रारम्भ से शुरू होने वाला यह बाल त्यौहार पूरे एक माह तक गाँव गाँव देहरी देहरी हर रोज सुबह के ताजे फूल चुनकर बिछ जाते हैं! अबोध बच्चे रिंगाल व गेंहू के डंठलों से बुनी टोकरियों में रोज ताजे फूल चुनने खेतों की मेंड़ों में जाते हैं और सूर्य की लालिमा से पूर्व पहले ग्राम देवता के मंदिर में और फिर पूरे गाँव की देहरियों में फूल डालने का काम करते हैं! मुझे आज भी याद है कि हम फूल डालते समय रोज बुदबुदाते थे- फुलफुलमाई दाळ दे चौंळ दे! लेकिन मैं थोड़ा हटकर बुदबुदाता था मैं कहता था- फुलफुल माई और्युं थैंन पैंसा दे मीथैंन नोट दे (फुल फुल माई औरों को सिक्के देना मुझे नोट देना)! और रोज गिनता रहता था कि कब महीना पूरा होगा ! तब के बचपन में भूख भी उतनी ही थी ! फूल डालकर सबसे पहले सिरहाने छुपाई हुई मंडूवे व गेंहूँ की मिक्स बनी बासी रोटी खाता था! मैं ही नहीं सभी यही करते थे! कई घरों में तो शायद पता भी नहीं होता था कि कौन कब फूल डालकर चला गया!
यह परम्परा सिर्फ बाल पर्व के रूप में जहाँ सुबह फूलों के बासंती बिछौने के साथ शुरू होती थी वहीँ दिन में ऊँचे हिमालयी क्षेत्र में बुरांस के फूल महकते हुए गाँव तक पहुँचते थे! इन्हें लाने वाले औजी बाजगी व बेड़ा-बद्दी समाज के वे लोग हुआ करते थे जो दिन में पैसरा, सैदेई,चैती गीतों के माध्यम से गीत व नृत्य से ग्रामीणों का मनोरंजन किया करते थे! संजय पांडे व लता तिबारी ने इन्हीं गुनीजनों के बोलों को अपने सुरों में उतारते हुए जो चैती गीत गाया है उसमें घोघा माता से लेकर बणदेई (बनों की देवियाँ/एड़ी, आंछरी) इत्यादि सभी शामिल हैं! जिसकी परिकल्पना में हर देहरी में फूल बिखरें हों, मोहल्ले मोहल्ले में गीत गाये जा रहे हों, घर घर में देव डोलियाँ नचाई जा रही हों, बेमाता के ध्यान की बात हो, और कांस के बड़े बर्तन में बनने वाले मीठे भात की बात हो रही हो! साथ ही स्पष्ट निर्देश भी हों कि फूल वही चुनने हैं जो भंवरों ने अभी जूठे न किये हों! पहाड़ों में मेल्वड़ी की आवाज गूँज रही हो तो घाटियों में काफुआ गुंजायमान हो! चैत की चैत्वाली हो या फिर भाई बहनों का भेटुली त्यौहार..! अहा…सचमुच बसंत ऋतू के आगमन पर इतने सारे उत्सव की तैयारी अगर कहीं होती है तो वह सिर्फ और सिर्फ संसार में इकलौती हमारी ही देवभूमि है!
जौनसार बावर क्षेत्र में भी ऋतुराज बसन्त का स्वागत लगभग इसी तरह से होता है। यहां भी गांव गांव के बच्चे चैत्र मास की संक्राति के दिन खुशी में देवालयों अथवा सार्वजनिक स्थानों पर गांव के बालक बालिकाएं प्रातः काल एकत्र होकर मंगल प्रभाती गाना शुरू कर देते हैं और फिर फूल तोड़ने के लिए खेतों की मुंडेरों तक सुबह सबेरे पहुंच जाते हैं फिर सामूहिक गान में गाते हैं- “गोगा फुलुटे बाई गोगा, ऊँचेणिये लाए बाई गोगा।।” यहां हर दिन के लिए फूलों को चुनने का रिवाज है। पहले दिन छामूर का कड़वा पुष्प पादप व अंतिम दिन यानि बैशाखी की संक्रांति को यहां बुराँस के पुष्प के साथ फूलदेई का समापन होता है जिसे यहां गोगा पूजा के नाम से जाना जाता है।
इस दौरान पूरे महीने भर चाउफुलूटिया, पेंगुड़ी, सेरसों, बनस्के, पेंग्नियारी, गानी, पाषानवेद (पत्थरचट्टा का फूल), चिल्लू, पाजा, कैंईत (मेलु), गोरियाव (ग्वीराल), हिसोई,कुजोई, बुराँस इत्यादि फूल देव स्थलों व हर घर की देहरी पर सजते हैं। प्रातःकाल में फूल चुनकर लाना और दिन में पत्थरों को चुनकर ये गोगा देवता का स्थान बनाने का कार्य करते हैं जिसकी ऊंचाई हर गांव में अक्सर अलग अलग होती है। मैंने दो फिट से 4-5 फिट ऊंचे ऐसा गोगा मंदिर चुनते हुये देखे हैं। नीचे से चौकोर इस मन्दिर को ये धीरे धीरे तंग कर देते है व चोटी पर गोल पत्थर रखकर इसका समापन करते हैं।
बैशाखी के दिन विभिन्न पकवानों के खुशबू व नए धुले कपड़ों के साथ गांव भर के बच्चे गोगा गिराई के लिए गोगा मंदिर स्थल पर इकट्ठा होते हैं। इन्हीं का अनुशरण करती गांव की माँ बहनें अनेक पकवान बनाकर लाती हैं जिनमें चावल के आटे का पापड़, दुर्बाघास तथा गेंहूँ जौ की बालों के साथ गोगा माता की पूजा की जाती है। अपनी फसलों, खेत खलिहान, परिवार की सुख शांति हेतु सभी वरदान व मन्नते मांगते हैं। ततपश्चात महिलाएं वापस लौट जाती हैं और फुलारी बच्चों की टोली उस मंदिर को तोड़ देते हैं।
संक्राति की पूर्व संध्या के दिन गांव के हर घर से बुराँस के जंगलों के लिए ढोल नगाड़ों के साथ घर से विदाई लेते हैं। कहीं -कहीं जहां बुराँस के जंगल नजदीक हैं वे प्रातः 4 बजे बुराँस के फूल ऊँचने (तोड़ने) जंगल पहुंचते हैं। चाहे सान्ध्य काल को गए लोग रात्रि जंगल में बिताक़र सुबह लौटते हों या फिर सुबह गए लोग लौटे लेकिन सभी का लौटना एक नियत समय होता है। उन्हें किसी भी हाल में धूप निकलने से पहले घर पहुंचना होता है जहां पूर्व से ही गांव की सरहद में ख़डे ग्रामीण गाजे-बाजे के साथ उनके स्वागत को तैयार रहते हैं।
फिर ये बुराँस के न्याजे जिन्हें यहां जेवियाँ बोलते हैं लकड़ी के डंडों पर बुराँस के फूल सजाकर बनाते हैं जिन्हें अपने घरों और गौशालाओं में टांगते हैं। फिर गाते झूमते दिखाई देते हैं -हुम्बे हे ऊबे गंगाड़ो बासँ ले चईङ हुम्बे, हुम्बे हे मारे गाडेणी मुसे री हईङ, हुम्बे।। फिर अलमस्त होकर यहां के आंगनों में नृत्य शुरू हो जाते हैं जिनमें बच्चे बूढ़े नौजवान पुरुष महिलाओं के झुंड के झुंड शामिल होते हैं। हारुल, झैँता, रासो, जंगबाजी, घुंडीया रासो सहित कई गीतों व ढोल की घमक की आवाज एक गांव से दूसरे गांव गुंजायमान होती है। फिर होती है यहां के त्यौहारों की परंपरा और बिस्सू मेले की शुरुआत।
आखिर क्या है फूलदेई..? आइये आपको इस सब के सम्बन्ध में जितनी जानकारी मुझे है वह मैं बता दूँ! जब हम आदमयुग के शून्य काल से गुजरकर अविष्कारिक काल में प्रवेश कर रहे थे और स्वाद ब्यजनों की प्रयोग धर्मिता को मनुष्य जीवन में अपना रहे थे तब पुष्प ही एकमात्र ऐसा प्रकृति प्रदत्त पादप था जिसका इस्तेमाल कहाँ हो कैसे हो यह बिडम्बना बनी रहती थी!
कहा जाता है कि त्रेता युग में द्रोणागिरी पर्वत पर खिलने वाली जिस दिव्य औषधि की बात सुशेनवैद ने बताई थी और जिस से लक्षमण के प्राण बचाए गए वह भी एक पुष्प ही था. क्या इस से पूर्व पुष्प की महत्तता का किसी को अनुमान नहीं था? यह यक्ष प्रश्न वैज्ञानिकों शास्त्रविदों और अविष्कारकों के लिए दुनिया भर में चुनौती बना रहा! आज वर्तमान में पुष्पों से कई किस्म की औषधि,इत्र और जाने क्या क्या बन रहा है लेकिन इसका महत्व सर्व प्रथम किसने जाना यह सबसे दिलचस्प है!
हिन्दू धर्म ग्रन्थों में सीता की पुष्प वाटिका में फूलों के प्रयोग को दर्शाया गया है. कृष्ण राधा के प्रसंगों में भी उसकी महत्तता है. लेकिन पूरी प्रकृति में ऐसा कौन सा पुष्प रहा जिसने अलंकरण की जगह अपनी महत्तत़ा बढाई है!
कविलाश अर्थात शिव के कैलाश में सर्वप्रथम सतयुग में पुष्प की पूजा और महत्तता का वर्णन सुनने को मिलता है. पुराणों में वर्णित है कि शिव शीत काल में अपनी तपस्या में लीन थे ऋतु परिवर्तन के कई बर्ष बीत गए लेकिन शिव की तंद्रा नहीं टूटी. माँ पार्वती ही नहीं बल्कि नंदी शिव गण व संसार में कई बर्ष शिव के तंद्रालीन होने से बेमौसमी हो गये! आखिर माँ पार्वती ने ही युक्ति निकाली. कविलास में सर्वप्रथम फ्योली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरुप दे दिया. फिर सभी से कहा कि वह देवक्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महकाए. सबने अनुशरण किया और पुष्प सर्वप्रथम शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किये गए जिसे फुलदेई कहा गया. साथ में सभी एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहने लगे- फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आये महाराज !
शिव की तंद्रा टूटी बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे भी प्रसन्न मन इस त्यौहार में शामिल हुए तब से पहाडो में फुलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा जिसे आज भी अबोध बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढे-बुजुर्ग करते हैं! सतयुग से लेकर वर्तमान तक इस परम्परा का निर्वहन करने वाले बाल-ग्वाल पूरी धरा के ऐसे वैज्ञानिक हुए जिन्होंने फूलों की महत्तता का उदघोष श्रृष्टि में करवाया तभी से पुष्प देव प्रिय, जनप्रिय और लोक समाज प्रिय माने गए. पुष्प में कोमलता है अत: इसे पार्वती तुल्य माना गया. यही कारण भी है कि पुष्प सबसे ज्यादा लोकप्रिय महिलाओं के लिए है जिन्हें सतयुग से लेकर कलयुग तक आज भी महिलायें आभूषण के रूप में इस्तेमाल करती हैं!
बाल पर्व के रूप में पहाड़ी जन-मानस में प्रसिद्ध फूलदेई त्यौहार से ही हिन्दू शक संवत शुरू हुआ फिर भी हम इस पर्व को बेहद हल्के में लेते हैं! और ठीक बिखौत यानि बैशाखी से पूरे उत्तराखंड की ऊँची पर्वत शिखरों में अवस्थित देवी देवताओं के मंदिरों व थातों में मेले प्रारम्भ हो जाते हैं! जहाँ से श्रृष्टि ने अपना श्रृंगार करना शुरू किया जहाँ से श्रृष्टि ने हमें कोमलता सिखाई जिस बसंत की अगुवाई में कोमल हाथों ने हर बर्ष पूरी धरा में विदमान आवासों की देहरियों में पुष्प वर्षा की उसी धरा के हम शिक्षित जनमानस यह कब समझ पायेंगे कि यह अबोध देवतुल्य बचपन ही हमें जीने का मूल मंत्र दे गया फिर क्यों हम फुलदेई नामक इस पर्व यानि चैत्र माह की संक्राति को बाल पर्व के रूप में नहीं अपनाते! क्यों नहीं बाल पर्व पर राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा करवाते ताकि पूरा संसार जाने कि फुलदेई के इस पर्व की महत्तता क्या है.! इसीलिए तो इसे पूरे संसार का पहला ऐसा अनोखा पर्व माना जाता है जिसकी शुरुआत करते तो बच्चे हैं लेकिन समापन बुजुर्गों के हाथों से होता है!
बर्ष 2011-12 में मेरे द्वारा इस पर एक वृत्त चित्र बनाया गया था जो एक शोधपूर्ण दस्तावेज कहा जा सकता है! नीचे दिए लिंक को क्लिक करके आप उसे देख सकते हैं!