पिथौरागढ़ 9 मार्च 2019 (हि.डिस्कवर)
भाव राग ताल अकादमी द्वारा संगीत नाट्य अकादमी के सहयोग से आयोजित “भ र त रंगोत्सव” के दूसरे दिन दिल्ली व उत्तराखण्ड के विभिन्न हिस्सों से कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंचे विभिन्न विधाओं के ज्ञाताओं के साथ दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ करते हुए जिलाधिकारी विजय जोगडंडे ने कार्यक्रम की सराहना करते हुए कहा है कि प्रदेश के लोककलाओं को जीवंत बनाये रखने के लिए सरकारी व गैरसरकारी स्तर पर अकादमियां होनी जरूरी हैं ताकि हम अपने लोक में ब्याप्त लोक समाज के उन मुद्दों की पैरोकारी कर अपने समाज व लोक संस्कृति को जीवित रलहा सकें।
उन्होंने कहा कि लोक कलाओं में ऊंचा स्तर हासिल न कर पाने की सबसे बड़ी वजह हमारी ही कमी है क्योंकि हमने लोककलाओं की जगह शास्त्रीय संगीत को ज्यादा अपनाया जबकि लोक ही इसकी जड़ है।
जिलाधकारी विजय जोगाडंडे ने कहा कि लोक की गुरु शिष्य परम्परा यदि कायम रहे तो हमारी लोक संस्कृति का जीवन जीवंत बना रहे क्योंकि लोक की यही खूबसूरती यही इसकी शक्ति है। उन्होंने भाव राग ताल अकादमी को कहा कि यह मेरा अनुरोध है कि आप अपने उपक्रमों को बढ़ावा दें क्योंकि ऐसे कार्यक्रम हो रहे हैं। लोक कला के प्रति हमें संवेदनशील होने के साथ लगाव होना चाहिए।
कार्यक्रम की शुरुआत जागर गायक केशोराम द्वारा “छांट” बजाकर की जिसमें देवताओं का आवाहन होता है । तत्पश्चात केशोराम द्वारा भाना गंगनाथ की जागर गाकर सबका मन मोह लिया।
रुद्रप्रयाग जनपद से कार्यक्रम में अपना व्याख्यान देने पहुंचे सुप्रसिद्ध रंगकर्मी प्रेम मोहन डोभाल ने कहा कि ब्रह्मा के चार वेदों की संरचना में ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य को समाहित तो कर दिया लेकिन शूद्र छोड़ दिये गए । नारद के विरोध के बाद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद व अर्थववेद की ऋचाओं से पंचम वेद की संरचना हुई जिसमें वृद्ध भरतमुनि द्वारा 12000 श्लोक समाहित किये और वह द्वादश सहस्त्र संहिता के नाम से जाना गया जिसे बाद में नाट्य शास्त्र के रचयिता भरतमुनि ने श्लोक कटौती कर 6000 श्लोकों की संरचना से षष्ठ सहत्र सहिंता लिखी। अब नाटकों के पात्र के रूप में उन्हें अपने 100 पुत्र तो मिल गए लेकिन लड़कियां न मिलने पर अंत में इंद्र देव द्वारा उन्हें 14 अप्सराएं दी गयी और यहीं से नाटकों की शुरुआत होनी प्रारम्भ हुई।
लोकगाथाओं व लोक साहित्य पर अपनी बात रखते हुए देहरादून से पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार व लेखक मनोज इष्टवाल ने कहा कि पहले हमें लोक को समझना होगा ताकि हम उसके लोक समाज में व्याप्त लोक गाथाओं व लोक कथाओं को अपनी पुरातन सँस्कृति में रचे बसे आयामों का घोल पिलाकर अजर अमर बना सकें। उन्होंने कहा कि लंदन फोर्ट की दीवार पर अंकित प्रथम विश्व युद्ध में उन 32 सैनिकों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि “सात समोदर पार च जाणा ब्वे, जाज मा जौलू कि ना” गीत की उत्पत्ति कब और कैसे हुई और कैसे वह लोक में एक सदी से दूसरी सदी तक कैसे आज भी अजर अमर हुई यह इसी लोक विधा की ताकत है।
उन्होंने कुमाऊँ व गढ़वाल के वीर भड़ों के वीर रसों, प्रेम रसों के कई उदाहरण पेश करते हुए कहा कि ये लोकगाथा आज भी अगर हमारे लोक समाज में जीवित हैं तो उसके मर्मज्ञ विद्वान मुख्यतः भाट, चारण, बेड़ा-बादी समाज, औजी-बाजगी, मिरासी हैं जो चर्म वाद के धनि व्यक्तित्व रहे लेकिन लेखन में अनपढ़ कालिदास रहे। उन्होंने यह सब मुखाग्र अपनी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को लोकगाथाओं के रूप में परोसे और उन्ही को साहित्यकारों ने लोकगाथाओं में पिरोकर लोक समाज को दिया जिसे रंगमंच तक लाना आप जैसे कलाप्रेमियों, रंगकर्मियों, नाट्यकर्मियों का काम है।
दिल्ली से कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंची सुप्रसिद्ध रंगकर्मी श्रीमती लक्ष्मी रावत ने कहा कि आज की पीढ़ी लोक नाटकों में जाना तो दूर देखना भी पसन्द नहीं करती जिसके कारण हमारा लोक समाज धीरे धीरे सँस्कृति शून्य हो रही है। यहां वर्तमान पीढ़ी फिल्मों में जाकर ग्लैमर की दुनिया अपनाना पसन्द करती है वह नाटक देखने की जगह फिल्में देखना ज्यादा पसन्द करती हैं जिसकी वजह है कि हमारी ललित कला, भाव कला और दृश्य कला खत्म होने के कगार पर है।
उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि जो भी युवा नाट्य विधा में आ रहा है या विधिवत प्रशिक्षण ले रहा है वे जाने क्यों साहित्य के साथ क्यों नहीं आ रहे हैं जबकि जो विधिवत प्रशिक्षण नहीं ले रहे हैं वह एक बार ही नाट्य मंच पर चढ़कर अपने को प्रशिक्षित समझने लगे हैं। उन्होंने लोक विधाओं या लोक इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं पर आधारित नाटको के मंचन पर कहा कि यह नाट्य कर्मी के लिए बेहद कठिन हो जाता है कि वह किस नाटक को चुने व किसको नहीं क्योंकि उसके बाद समीक्षकों की टिप्पणियों के मीन मेख निकलने शुरू हो जाते हैं। अतः यह हमें मान लेना चाहिए कि हमारे लोक समाज के लोक एतिहासिक प्रसंगों पर शोधकर्ता कहीं न कहीं चूक कर रहे हैं या फिर एक मत नहीं हैं।
लक्ष्मी रावत ने रम्माण का जिक्र करते हुए कहा कि चमोली गढ़वाल की इस लोक विधा को पहले वहां अनुष्ठान के रूप में देखा गया। नतीजा यह हुआ कि 10 दिन तक चलने वाले इस रम्माण के मंचन को करने के लिए सिर्फ बुजुर्ग बचे खुचे लोग ही रह गए थे क्योंकि नौजवानों ने इस बारे में अपने हाथ झाड़ दिये। आखिर रम्माण पर जब इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स की नजर पड़ी और सन 2008 में उसके 10 दिनी प्रारूप को मात्र एक घण्टे के प्रस्तुतिकरण के लिए दिल्ली में मंच पर रखा गया तो वह इतना लोकप्रिय हुआ कि अगले ही बर्ष उसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर के रूप में घोषित कर दिया जिसका यह परिणाम निकला कि अब उसी गांव के 13-14 बर्ष के बच्चे भी रम्माण कार्यक्रम का आयोजन कर रहे हैं जो एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। उन्होंने जोर देकर कहा कि लोक संगीत में जब रोजाना प्रयोग हो सकते हैं तब लोकगीतों की तरह लोक नाटकों पर यह परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता।
पौडी गढ़वाल से भ र त रंगोत्सव में शिरकत करने पहुँचे पलायन एक चिंतन के संयोजक रतन सिंह असवाल ने अपने गांव के रामचन्द्र भाई की शादी के इत्तेफाक को निरन्तर होते पलायन से जोड़कर जहां दर्शकों को गुदगुदाया वहीं उन्होंने कई ऐसे उदाहरण पेश करते हुए कहा कि रिवर्स माइग्रेशन करने के लिए आपको पूरे मनोयोग से चिंतन मनन ही नहीं करना होगा बल्कि उसे कार्य प्रणति में भी बदलने के लिए अमलीजामा पहनाना होगा। उन्होंने कहा कि महानगरों में अब वह ट्रेंड बदलने लगा है जब हमारे अभिवाहक ही अपने बच्चों को अपनी मातृबोली बोलने की जगह अंग्रेजी शब्दावली बुलवाना चाहती थी। अब हमारे ऊपर वह दबाब है जो हमें महसूस करना होगा क्योंकि हमें वर्तमान पीढ़ी के बच्चों को समझना होगा व उन्हें जबरदस्ती डॉक्टर इंजीनियर बनने की जगह उनकी इच्छाओं पर छोड़ देना चाहिये ताकि वे अपना मार्ग खुद ढूंढ सकें। रिवर्स माइग्रेशन की बात करते हुए उन्होंने कहा कि यह शुरुआत हमें अपने घर आंगन से करनी पड़ेगी ताकि हम पहले उस छितराए पहाड़ी समाज को एकजुट कर सकें जो गांव में रहकर अपेक्षाओं का दंश झेल रहे हैं।
उन्होंने कहा कि वे इसकी शुरुआत अपने घर से कर चुके है और उन्होंने गांव की दिशा ध्यानियों को एकजुट करने के लिए एक आयोजन किया जिसमें पूरे गांव की उन ब्याहता बेटियों फुफुओं को बुलावा भेजा जिन्होंने बर्षों गांव नहीं देखा था। सामूहिक गीतों से आंगन महके, थड्या चौंफला झुमैलो बाजूबंद से आंगन की फटालों में थिरकन हुई और अंत में विदाई में उन्हें अरसे की कंडी के साथ विदाई दी गयी। जिसका परिणाम यह निकला कि गांव के सभी लोग एकजुट होकर गांव की दशा और दिशा संवारने पर लग गए हैं!