*भारत का वामाचार तंत्र तथा तिब्बत का पौन पूजा-पद्धति!
*वामाचार तंत्र तथा पौन तांत्रिक प्रथा है “प्राणौ की साधना”
*‘शाङ्-शुङ् यानि पश्चिमी तिब्बत व कैलास क्षेत्र!
(मनोज इष्टवाल)
सुरेन्द्र सिंह पांगती नाम सुनते ही वह चेहरे याद आ जाता है जिस चेहरे पर फबती फ्रेंचकट और मोटे ग्लास उस अक्स को उभारते हैं जिन्हें मैंने तब देखा जब वे उत्तर प्रदेश के जमाने में कमिश्नर गढ़वाल हुआ करते थे! तब यकीनन एक कमिश्नर पूरे गढ़वाल मंडल में इतना बड़ा ओहदा माना जाता था मानों मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश के बाद दूसरा आधिकारिक प्लेट फॉर्म वही है जहाँ आप फ़रियाद कर सकते हैं! 1969 में भारतीय प्रशासनिक सेवा उत्तर प्रदेश के अंग बने सुरेन्द्र सिंह पांगती भी डॉ. आर एस टोलिया की पांत के अफसर कहे जा सकते हैं! फर्क सिर्फ इन दोनों अधिकारियों की कार्यप्रणाली में यह रहा कि आप प्रमुख सचिव पद से सेवानिवृत हुए और डॉ. आरएस टोलिया मुख्य सचिव पद से! दोनों ही अधिकारी अपने समाज के लिए अग्रणी हस्ताक्षर साबित हुए इन्हीं दो के माध्यम से हम भोटिया जन जाति को करीब से जानने लगे! दोनों ही किताबी अध्ययन में महारथी व लिखने में भी! हाल के बर्षों में आप द्वारा हिमालय पर्यन्त प्रतिबंधित क्षेत्र तिब्बत व मध्य एशिया का 1875 से 1876 की अवधि में सीमान्त के एक भारतीय नागरिक द्वारा किये गये जोखिम भरे सर्वेक्षण पर “सागा ऑफ़ ए नेटिव इक्सप्लोरर पं. नैन सिंह सी.आई.आई.” तथा भारतीय तंत्र विद्या व तिब्बत की पौन परम्परा की तुलनात्मक अध्ययन कर “वामाचार तंत्रा एंड पौनिज्म” नामक पुस्तकें प्रकाशित की ! ” प्राणौ की साधना” भी इसी से ओत-प्रोत है!
सुरेन्द्र सिंह पांगती जी की पुस्तक “प्राणौ की साधना” जिसमें कुल 254 पृष्ठ अंकित हैं, का अध्ययन करने पर आपको जानकारी मिलेगी कि यह दुर्लभ पुस्तक क्यों है! पुस्तक में जानकारी दी गयी है कि सिन्ध-घाटी के आदियुगीन मानव समाज में, दुरात्माओं से रक्षा के लिए एक आध्यात्मिक साधना-पद्धति विकसित हुई जो ‘प्राणौ की साधना’ नाम से जानी गयी। पूर्व वैदिक काल में; ईश्वर व धर्म की मूल अवधारणा केे अभ्युदय से पूर्व; प्राकृतिक तत्वो में दुरात्माओ के अस्तित्व की कल्पना की गई और उन से बचने के लिये इस चमत्कारिक विद्या का जन्म हुआ जिसे तंत्र-विद्या कहा गया। इस साधना-पद्धति में एकान्त स्थानो में एकाग्र चित्त होकर चिन्तन-मनन की आवश्यकता होती है। इसी लिये सिन्ध घाटी व कश्मीर से साधक कैलास क्षेत्र की बीहड़ो में गये और इसी लिये तंत्र-विद्या के प्रणेता भगवान शिव, कैलास-वासी माने जाते हैं। उस युग में पश्चिमी तिब्बत व कैलास क्षेत्र, जिसे ‘शाङ्-शुङ्’ कहा जाता था, भारत का अंग था।
यह अकाट्य सत्य है कि भारत में मुस्लिम व अंग्रेजी अधिपत्य काल में मूल तंत्र-विद्या का ह्रास हुआ और तिब्बत भारत के अधिकार क्षेत्र से अलग हो गया। शाङ्-शुङ्’ क्षेत्र में वाह्य आक्रान्ताओं से सुरक्षित रहा और इसी लिए वहां तंत्र साधन का प्रचलन अक्षुण्ण रहा। जान जोखिम में डालकर जिन आधुनिक अन्वेषकों ने तिब्बत व मध्य-एशिया के प्रतिबन्धित क्षेत्र में प्रवेश किया, उन का मानना है कि तंत्र-विद्या, जो वहां पौन या बौन पूजा-पद्धति नाम से जाना गया, का उद्भव शाङ्-शुङ् क्षेत्र से हुआ है। अनेकों मतों का यह भी मानना है कि इस तांत्रिक प्रथा का शेष विश्व में वहीं से प्रसार हुआ। उत्तराखण्ड के कतिपय धार्मिक व सांस्कृतिक अनुष्ठानों तथा पश्चिमी तिब्बत (शाङ्-शुङ्) क्षेत्र के पौन तांत्रिक अनुष्ठानों के अध्ययन से इन क्षेत्रो में एक समान पुरातन तंत्र परम्परा के प्रचलन का स्पष्ट आभास होता है।
254 पृष्ठों की इस पुस्तक को सुरेन्द्र सिंह पांगती जी ने 12 अध्यायों में बांटा हैं जिनमें तन्त्र शास्त्र तथा प्रथाएं, व्रात्य सम्प्रदाय, भारतीय तांत्रिकों द्वारा तिब्बत में पौन पूजा-पद्धति की स्थापना, पंच मकार पर आधारित तन्त्र साधना, अग्नि देवता की उपासना, द्यो/द्यावा (आकाशीय देवात्मा), शेन/श्येन की अवधारणा, पौन एवं तांत्रिक अनुष्ठानों की वाम दिशा, उत्तराखंड क्षेत्र की पौन परम्परा, महान तिब्बती तांत्रिक मिला-रेपा, नंदा देवी सहित 11 अध्याय हैं जबकि बारहवें अध्याय में इस सबका निष्कर्ष रखा गया है!
इन 12 अध्यायों में श्रुति, स्मृति, तथा पुराण, वैदिक देवात्माएँ, हिन्दू धर्म सम्बन्धी जानकारी, ऋग्वेदिक परम्पराओं में तन्त्र का समागम, देवत्व प्राप्ति के लिए तंत्र प्रयोग, वैदिक धर्म अनुयायियों की तन्त्र साधना, भारत पर आर्यों का आक्रमण व तंत्र, वैदिक ज्ञान में तन्त्र उत्पति, तांत्रिक अनुष्टानों में नारी प्रतिमूर्ति का उपयोग और प्रयोग, महालिंगम तथा मैथुन की अवधारणायें, देवदासी-देवकन्या परम्परा, ऋतु रैण या ऋतुव्यवहारिकता, देविया आत्माओं का आवाहन, शाक्त परम्परा का प्रचलन, वेदों मन्त्रों की परम्परा, द्वापर युग में कैलास क्षेत्र में तांत्रिकों की उपस्थिति, प्राचीन भारत का शां-शुं, पौन मन्त्र उपसाक मीबों -शेनरप का भारतीय तंत्र, वेद मन्त्रों से पौन व बौंन शब्द उत्पप्ति, हिमालयी क्षेत्र की पौन परम्परा, उत्तराखंड हिमालयन में मैथुन परम्परा, तिब्बत में पौन परम्परा व मैथुन परम्परा, तिब्बत में पौन परम्परा की स्थापना, मैथुन प्रथा, योनी पूजा, व्रात्य का पौन समतुल्य सम्प्रदाय टू-मो दे-टोयुम, तिब्बतीय बौद्ध धर्म में पौन, मदिरा सेवन, अग्नि, चूल्हे की देवात्मा की मान्यता, अग्नि देवता व अग्नि कुल की वैदिक परम्परा, आकाशीय देवताओं द्वारा तिब्बत में पौन प्रथा का प्रचलन, इंद्र धनुष का तन्त्र विद्या से सन्दर्भ, भारतीय मूल के प्रथम राजा द्वारा पौन प्रथा, तिब्बत का प्रथम शासक पांडू वंशज, वैवस्वत वंशी मान्धाता, लिंग प्रान्त का राजा पुगे, तंत्र विद्या में तांत्रिक की उड़ने की परम्परा, आकास-गमन मार्गी तथा मार्गदर्शक पूजा, धौ को देवात्मा की मान्यता, टोन्पा शेनरप तथा ल्हा ओद्कार, पौन गुरु शेनरब मिनोचे, तन्त्र में बाज पक्षी का उल्लेख, शां-शुं के सींगों वाले गरुड़ राज वंश, पौन अनुष्ठानों की वाम दिशा, कैलास -मानसरोवर यात्रा, राजा के जन्म से तांत्रिक लक्षण, फलित ज्योतिष एवं साधना, सूर्यदेव व वामाचार तन्त्र, स्वस्ति चिन्ह स्वास्तिक की भुजाओं की वाम दिशा, ओम अक्षर के वामाचार स्वस्तिक से ॐ में परिवर्तन, कुटीके जौलिंकौंग, न्येकोर-च्यू तथा शिन-ल्हा दर्रा, तिब्बत का अंतिम पौन राजा लांगदारमा (उदुप छेम्पो), जुहार घाटी की पौन तंत्र, तंत्र में श्रीकृष्ण, सूती-वस्त्र धारी मिला, गोपराजानन्द की कन्या नंदा व नंदा राज जात!जागर इत्यादि सहित कई गूढ़ बातों को पुस्तक में उकेरा गया है!
यह अचम्भित करने वाली बात है कि इस पुस्तक “प्राणौ की साधना” के पृष्ठ संख्या 82 में मैथुन कलाओं को तन्त्र में साधित करने के सबसे ज्यादा प्रसंग हैं! यह परम्परा अक्सर औघड़ या फिर मुस्लिम समुदाय के तांत्रिक अपनाते हैं लेकिन सुरेन्द्र सिंह पांगती जी की इस पुस्तक ने एक ऐसा रहस्य उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र की तंत्र विद्या का खोला है जो यकीनन अकल्पनीय है! उन्होंने मैथुन क्रिया व योनी पूजा के कई उदाहरण भी इस पुस्तक में उदृत कियर हैं! और तो और 11वीं सदी तक तांत्रिकों द्वारा हवा में उड़कर मीलों लंबा सफर पलों में किये जाने का भी जिक्र है!
इस पुस्तक का विषय-वस्तु भारत के पूर्व-वैदिक तंत्र-विद्या तथा पश्चिमी तिब्बत (शाङ्-शुङ्) की पौन तांत्रिक पूजा-पद्धति का तुलनात्माक अध्ययन है। हिमालयी क्षेत्रो के कतिपय अनुष्ठानिक प्रथाओं व लोक परम्पराओं तथा वैदिक सन्दर्भो से स्पष्ट आभास होता है कि ‘पौन’ नाम से सम्बोधित तंत्र पूजा-पद्धति का प्रादुर्भाव भारत में हुआ जिसका अनुशरण शिव-क्षेत्र कैलास-मानसरोवर में निवास करने वाले भारतीय सन्यासी करते थे। विद्वानो ने यह निष्कर्ष भी निकाला है कि अनेकानेक तांत्रिक अनुष्ठानों को वर्तमान में प्रचलित हिन्दू धर्म-चर्या में अपना लिया गया है। प्राचीन तिब्बती व चीनी अभिलेख व परम्परायें भी स्पष्ट संकेत देते हैं कि तिब्बतीय पौन पूजा-पद्धति में भारतीय तत्व उपस्थित हैं। ‘पौन’ तथा ‘शाङ्-शुङ्’ शब्दो की उत्पत्ति ही संस्कृत के शब्दों से हुआ है।
इस पुस्तक का प्रकाशन, विषय के अन्वेषको का ध्यान; शाङ्-शुङ् की पौन पूजा-पद्धति के उद्भव के रहस्य की खोज में, पौराणिक भारतीय शास्त्रो व परम्पराओं की ओर आकर्षित करने का विनम्र प्रयास है।