(मनोज इष्टवाल)
जब भी आप लोक विरासत की इस धरा पर कदम रखते हैं तब लगता है मानो आपके कदम स्वयं थिरकने लगे हों मानों यहाँ के कण-कण में गंदर्भों का वह साम्राज्य हो जिसकी अलौकिकता से सारा भू-मंडल गुंजायमान हो! तमसा व यमुना नदी से घिरे देवदारु जंगलों की ओट और हिंवाली कांठियों के दीप्तिमान दिव्य दर्शनों के इस लोक को हम जौनसार बावर नाम से पुकारते हैं जहाँ पांडवकालीन सभ्यता का विराट बैभव आज भी पसरा हुआ है! जहाँ प्राणी मात्र के ह्रदय में आराधनाओं के पुट यूँ फूटते हैं मानों अमृतकलश छलक पड़ा हो. जहाँ शिब को आराध्य महासू के रूप में नित्य पूजा जाता है. जहाँ के शब्दों में पीड़ाओं की विषम धाराओं के बीच भी धर्म जाति और संस्कृति की बयार बहती है जैसे:-
रातियें उजूई करि गोड़ी मुंज तेरे, हाथुं जोड़ी तौंऊँखे मेरी ढाल,
ओ महासू देवा हाथ जोड़ी तौंऊँखे मेरी ढाल….~!
जियन्दो जीऊ राख्या, चुनखेंदो घीऊ राख्या!
नीमे नीमाने रख्या, धरम ठिकाणे रख्या
हरे राख्या बणों देवा, भरे राख्या ताल…..!!
हाथ जोड़ी तौंऊँखे मेरी ढाल,
ओ महासू देवा हाथ जोड़ी तौंऊँखे मेरी ढाल….~!
(सुबह सबेरे तेरे चरणों में, हाथ जोड़ मेरा यह वंदन तुमको,हे महासू देवता हाथ जोड़कर तुम्हे नमन ! दिल को ह्रदय में ही समाहित रखना, मटके पर घी रखना, स्वास्थ्य सुंदर रखना, धर्म पर चलना सिखाना, बनों को हरा-भरा रखना,तालों को जल से भरा रखना हे महासू देवता तुम्हे मेरा ह्रदय से नमन)
ध्याड/धियाड जाति की लोकपरम्पराओं का इस से सुंदर उदाहरण और हो भी क्या सकता है! यह सुंदर रचना मूर्धन्य कवि लेखक साहित्यकार गायक गीतकार स्व. रतन सिंह जौनसारी की रचना का वह अंश मात्र है जो सिर्फ ढाकी ध्याड़ समाज नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जीवन को परिभाषित करने का सजीव उदाहरण है!
चाहे महासू का दरवार हो या फिर कुकुरसी देवता का ठाण! मैंने ध्याड़ जाति के इन पुरोधाओं को पूरी रात यूँहीं मदमस्त देव आराधना में मगन देखा, और जब मनोरंजन की बात आये तब इनके खेलूटे, इनकी गायन शैली, वादन शैली और नृत्य में गजब की तारमतम्यता दिखने को मिलती है!
हम सौभाग्यशाली हैं कि उस धरा पर हमने जन्म लिया जहाँ गंदर्भों के लोक में विभिन्न नृत्यकलाओं का समावेश हुआ और सामवेद की संरचना हुई!
गढ़वाल में ये गंदर्भ बादी के रूप में प्रचलित हुए जबकि जौनसार में इन्हें ध्याड़ (धियाड) नाम से जाना गया है! जौनसार बावर क्षेत्र के हर उस गॉव में ध्याड़ जाति निवास करती है जहाँ महासू देवता के मंदिर हैं! सिर्फ गबेला ही एक ऐसा गॉव है जहाँ कुकरसी देवता के भी ध्याड़ हैं! यहाँ की ध्याड़ नागो देवी को उनकी लोककलाओं,लोकनृत्यों,लोकगायनों के लिए राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री पुरस्कार मिले हैं ! अब उनकी विरासत को उन्हीं की बेटी छुम्मा आगे बढाने का प्रयास कर रही हैं! ध्याड़ जाति के लोग मुख्यत: जौनसार बावर के गबेला. बिसोई, हनोल, थैना, लखवाड सहित कई अन्य गॉव में रहते हैं!
वहीँ गढ़वाल में इन्हें बादी जाति से संबोधित किया जाता है! ये मूलतः टिहरी चमोली और पौड़ी गढ़वाल में आदिकाल से रह रहे हैं! पौड़ी के टेक्का, नैथाना, बांघाट, खिर्सू में इनकी अपनी सांस्कृतिक विरासतें हुआ करती थी जो वर्तमान में भौतिक युग की चमक से कहीं गायब हो गयी हैं वहीँ टिहरी गढ़वाल की ख़ास पट्टी इनकी वर्तमान पीढ़ी तक अपने कला हुनर को जीवित रखे है!
राधाखंडी लोकगायन शैली के ये गंदर्भ जब ढोलक की थाप के साथ अपने मधुर सुरों में गाते हैं कि:-
स्वर्ग डाळई बिजुली,पयाळ डाळई फूल!
नाचे गौरा कमल जसो फूल!
इनके मुंह से निकलने वाले शब्द- “अहा..खिर्सू बौडिंग लग्युं च तिन भी सूनी मूली!” या फिर-
“मंगलाचार, मंगलाचार बड़ा दरवार राज मुसद्दी राज परिवार…..
कुल का दिव्वा सब पर नेह करे! दाता..धाता गुण से भरपूर करे!
ग्यानी पंडित हमेशा गरीब रहे! छत्री का हत्थ रक्षा को शस्त्र रहे!
घुण्ड-घुंडाकि दाळ, कमर-कमर को भात! चखल-पखल जागीर म,
सेमन्या ठाकुरों जय जय सरकार!
खेती-बाड़ी व गांव की समृद्धि के लिये आयोजित होने वाले इस सामूहिक अनुष्ठान के दौरान बेड़ा को तकरीबन 400 गज लम्बी मजबूत रस्सी में लकड़ी की काठी में बैठकर फिसलना होता था। जब बेड़ा सकुशल इस अनुष्ठान पूरा कर लेता था तो उपस्थित समाज वस्त्र-आभूषण,धन और अनाज देकर उसका सम्मान करता था।उन्नीसवीं सदी के अंग्रेज घुमक्कड़ विलियम मूरक्राफ्ट ने अपने ं संस्मरण में उस समय टिहरी के नामी बेड़ावर्त विशेषज्ञ ’बंचु’ का उल्लेख किया है।
वरिष्ठ पत्रकार चन्द्रशेखर जोशी लिखते है “बंचु’ के बाद ’सेवाधारी’ नाम का एक और बेड़ावर्त विशेषज्ञ उत्तराखण्ड में प्रसिद्ध हुआ। कभी गायन-वादन और नृत्य से अपनी आजिविका चलाने वाले ये लोग आज अपने को गांव समाज में उपेक्षित सा महसूस कर रहे हैं। पहाड़ से लोगों के पलायन करने और खेती-बाड़ी से विमुख होने से इनकी रोजी-रोटी पर स्ंाकट छाने लगा है। पुराने समय में गांव इलाके के आधार पर इनकी ’बिर्ति’(जीविका क्षेत्र)बंटी हुई थी जिनमें घूम-घूम कर ये लोग अपनी कला का प्रदर्शन करते थे।
सहित्यकार भगवती प्रसाद नौटियाल के अनुसार तब पुरानी पीढ़ी के लोग उनकी कला की कद्र करते हुए उन्हें धन और अनाज आदि देते थे, परन्तु नयी पीढ़ी ऐसा कुछ नहीं कर रही है। हिमालय की इस गन्धर्व परम्परा को नैथाना के रामचरण बादल, सुमाडी़ के मूली ,तिलवाड़ा की चकोरीदेवी, टेका की कौशल्या देवी व डांगचैरा के मोहनलाल व पौड़ी की सतेश्वरी जैसे तमाम कलाकार आज भी जीवित रखे हुए हैं।
गायन के साथ इनके नृत्य प्रथम दृष्टा बेहद आसान से लगते हैं जैसे हमारे थडिया चौंफला, बाजू बंद, न्योली छपेली, हारुल झैंता इत्यादि की नृत्य कला बहुत आसान लगती है लेकिन जब उस समूह के साथ आपको नृत्य में अपनी भागीदारी निभानी पड़ती है तब पता चलता है कि इसके क़दमों की चपलता भावभंगिमा नृत्य के लिए कितनी कठिन होती है! ऋगवेद के अनेक श्लोकों में नृत्या शब्द का प्रयोग हुआ है। इन्द्र यथा हयस्तितेपरीतं नृतोशग्वः । तथा नह्यंगं नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे। अर्थात- इन्द्र तुम बहुतों द्वारा आहूत तथा सबको नचाने वाले हो। इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में नृत्यकला का प्रचार-प्रसार सर्वत्र था। इस युग में नृत्य के साथ निम्नलिखित वाद्यों का प्रयोग होता था। वीणा वादं पाणिघ्नं तूणब्रह्मं तानृत्यान्दाय तलवम्। अर्थात- नृत्य के साथ वीणा वादक और मृदंगवादक और वंशीवादक को संगत करनी चाहिये और ताल बजाने वाले को बैठना चाहिये।
भारत बर्ष में यों तो हर समुदाय के बीच अपने लोक नृत्य प्रचलित हैं लेकिन यह अद्भुत है कि सबसे ज्यादा दक्षिण भारतीय लोक नृत्यों को विश्व भर में प्रसिद्धी मिली है जिनमें कत्थक, भरतनाट्यम, ओडिसी, कुचिपुड़ी, कथकली व मणिपुरी नृत्यों पर तो सरकार द्वारा डाक-टिकट भी जारी किये हैं !
बेडा या बादी समाज हो चाहे ध्याड़ समाज हो ! ये सभी फिर्ती बाड़ी के जनमानस के रूप में जाने जाते हैं जो कहीं भी किसी भी गाँव में अपनी ढोलक की थाप में नृत्य व गायन कला का प्रदर्शन कर अपनी आजीविका का भरण पोषण करते हैं! वहीँ ढाकी/बाजगी या आवजी समाज विर्ती बाड़ी जनमानस में गिने जाते हैं जिनकी वृतियां निश्चित होती है व वे अपने ढोल वाद्य यंत्रों के साथ सिर्फ अपने यजमानों के यहाँ जाकर ही अपनी आजीविका निर्वहन किया करते थे लेकिन वर्तमान में इस समाज ने अपना दायरा इस लिए बढा दिया है क्योंकि अब ढाकी/बाजगी या आवजी समाज हो या
बेडा- बादी/ध्याड़ समाज ! सबका तेजी से अपना इन लोककलाओं से मोह भंग हो गया है ! इसका कारण वह समाज रहा जिसने इनकी कभी कद्र नहीं की इसलिए जीवन यापन के लिए इस समाज को पहले ध्याड़ी मजदूरी और अब सुव्यवस्थित नौकरियां करनी पड़ी व अपना पारिवारिक स्तर बढाने बच्चों को पढ़ाने में मदद मिली! पदमश्री प्रीतम भरतवाण द्वारा अपने समाज की पैरवी करने के बाद यह तो हुआ कि पुनः विर्ती समाज के लोगों द्वारा ढोल काँधे पर टंगना शुरू हो गया है यह सचमुच बहुत बड़ी उपलब्धि है!
वहीँ फिर्ती जाति के लोग पुटबंदी व राधाखंडी शैली में महारथ हासिल करने वाले समझे जाते हैं! राधाखंडी उत्तराखंड की एक विशिष्ट लोकगायन शैली रही है। जिसमें गायक कलाकार समसामायिक घटनाओं पर उसी समय गीत रचने की योग्यता रखते हैं। इन गीतों में उन घटनाओं का पूरा विवरण मिल जाता है। “तिलै धारु बोला” जैसे शब्द इन्ही की उत्पत्ति के शब्द हैं! राधाखंडी गायन शैली में समसायिक घटनाओं पर गीत बनाने की इनके पास अकूत क्षमता हुआ करती थी जैसे:- हल्दी की सिलोटी मांजी, पिंगली बणि चा! कालौं डांड बंगलादेश लडै लगीं चा!
ऐसा नहीं है कि इस समाज पर फिल्म बनाने की चेष्टा नहीं की गयी! संगीतकार निर्देशक गणेश वीरान द्वारा “प्यारी छुम्मा” गढ़वाली पूरी फिल्म इसी जाति के उपर केन्द्रित की थी लेकिन कुछ विवादों के कारण वह बन नहीं पाई लेकिन सुप्रसिद्ध गायक संतोष खेतवाल की आवाज व संगीतकार वीरेन्द्र नेगी के संगीत से सजा गीत इस समाज की ख़ूबसूरती की उपमाओं के लिए नहीं बल्कि इस समाज के लिए समर्पित माना जाना चाहिए जो लगभग राधाखन्डी शैली को छूता हुआ निकल जाता है :- ” तेरु बकिबात रूप कमयूँ च, त्वेमा सर्यु गढ़वाल समयूँ च! पौड़ी की रौनक तेरी गल्वड्यूँ म!” वहीँ सुप्रसिद्ध लोकगायक व निर्देशक अनिल बिष्ट ने अपने गढ़वाली वीडियो अलबम “हे कांछी” में ठेठ राधाखंडी शैली पर इस जाति पर एक शानदार गीत “जीतू बगड़वाल” पर फिल्माया है जिसके बोल हैं- नौबत्ति को डंका लो-2 पौंची ग्ये बागूड़ीजीतू ,रावणा की लंका लो, जीतू बगडवाला! “बांका बगड्वाला लो, जीतू ले बगड़वाला! इष्टवाल सीरिज द्वारा भी इसे राधाखंडी शैली पर जौनसार बावर के धियाड समाज पर केन्द्रित करते हुए वीर शहीद केसरी चंद को समर्पित गीत :- ताणी बूणी बळ तांद खत्त सेली गाँवा क्यावा उचो तेरो नाऊ ले, केसरी चंदा! हाँ बल उचो तेरो नाऊ ले केसरी चंदा” का ऑडियो अलबम बाजार में उतारा है! वहीं जौनसार बावर के सुप्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी नन्द लाल भारती धियाड जाति के परात नृत्य को पूरे हिन्दुस्तान के हर बड़े मंच तक ले गए! वहीँ जौनसार बावर की सुप्रसिद्ध गायिका सुश्री शान्ति वर्मा तन्हा द्वारा भी अपने विकास नगर स्थित स्कूल में जौनसार बावर के ढाकी धियाड़ो को एक बड़े मंच पर इकठ्ठा करने की कोशिश की है!
इस जाति के पास आज भी ऐसी अक्षुण कलाएं जीवित हैं जिन्हें उजागर न किया गया तो ये इन्हीं के साथ लोप हो जायेंगी! वहीँ खंड बाजे में कठबादी की उदघोषणा अपने आप में लाजबाब होती है! परात नृत्य, थाली नृत्य, शिब-पार्वती सम्बन्धी नृत्य, नट-नटी नृत्य, दीपक नृत्य, लांग-स्वांग खेलना, काठ खेलना एवं सम सामायिक गीत व नृत्यों से मन मोहना इस जाति का सबसे बड़ा कर्तब्य समझा जाता था!
जौनसार बावर आज भी इन गंदर्भ जाति के लोगों से आच्छादित है और हमें गर्व है कि ये लोग हमारे पाश्चात्य की लोककलाओं को वर्तमान तक संभाले हुए हैं!