मेरा पहला प्यार.....(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ) नौवां अध्याय!
पिछले अंक का अंतिम…यह आज दोहरी खुशी थी। आगे चलकर यह पुत्र यानि भांजा मनीष बहुगुणा के नाम से जाना जाने लगा। रात्रि पहर को आज कई महीनो बाद घर के लिए चिट्ठी लिखने बैठा। आदरणीय पिताजी लिखना था और लिख बैठा…मेरे दिल की धड़कन ..मेरा प्यार …! अरे ये क्या ….कागज़ पर उकेरे ये शब्द पीछे खड़े जीजाजी की नजर में पड गए और वो हंसकर बोले – हाँ बेs घर के लिए चिट्ठी लिख रहा है या कहीं और! पूछो मत दिल पर क्या बीती होगी तब…! सच पूछिए मेरे हिदर कांप गए…(contd..9)
गतांक से आगे…!
(मनोज इष्टवाल)
हा हा हा हा…. अभी अभी श्रीमती उषा रतूड़ी शर्मा की लिखी इन मर्म पंक्तियों को पढ़ रहा था… “झूठ का पुलिंदा हो गया है आदमी,सच का आइना कोई दिखाता नहीं “ लेकिन मुझे देखिये मैं अपना एक-एक सच वर्णन करके आप तक पहुंचा रहा हूँ..! झूठ इतना है कि मैं उसका नाम नहीं बता सकता जिसे मैं जिंदगी से ज्यादा प्यार करता था..! मेरी जिस दिन नौकरी लगी उस दिन मनीष बहुगुणा या डॉली बहुगुणा ( भांजा/भांजी) में से किसी एक का जन्म हुआ था ..! घर में दोहरी ख़ुशी थी…करीब तीसरे या चौथे दिन रविवार था…! पहली बार हिन्जडा समाज से मेरा सामना हुआ था..! वो ताली पीटते घर में घुसे..!.इससे पहले सिर्फ इनके बारे में सुना ही था आज देख भी लिया…! आये हाय…! मैं तो एक हजार एक रूप्या लूंगी चाहे कुछ भी हो..! फिर मुझे प्यार से पुचकार कर बोली..ओये राजा ..जरा पाणी तो पिला दे यार…! मैंने उसे गुस्से में गाली सी दी..दीदी ने डांटा! ऐसा नहीं बोलते..! मैंने उल्टा दीदी को बोला इनको और पानी..भगा सालों को बाहर…! फिर क्या था एक हिंजड़े ने घड़े से खुद ही पानी निकाल कर पीना शुरू कर दिया…! सच मानिये मैं तब ये सोचता था कि हिंजड़े अछूत होते हैं..! मैं इतने गुस्से मैं था कि मैंने भरा हुआ घडा फोड़ दिया…! अब सभी मुझ पर भड़क गए और मैं घर से बाहर सडक में घूमने लगा..! खैर आज जब यह घटना याद आती है तो शर्म भी आती है कि कितना खडूस था मैं…! खडूस नहीं गंवार कहें या भोला कहें तो और अच्छा होगा..! अनुभव की कमी थी या फिर जिंदगी में इस समाज से पहली बार पाला पड़ा था…! सिर्फ 6 महीने में मैंने अपनी संस्कृति बोलचाल भाषा शैली को उतारकर दिल्ली का आवरण धारण कर लिया था अब मैं टिपिकल दिल्ली वाला हो गया था..! घाघ और काइंया…! अबे ..ओये ..सहित कई ऐसे शब्द जिन्हें मुंह पर लाने में भी आज जुबान मोटी हो रही थी उन्हें फर्राटेदार बोलने लगा था! संगत का असर तेजी से मेरे मनोमस्तिष्क पर चढने लगा था! दरअसल यह मेरा भी कसूर नहीं है बल्कि उस समाज का कसूर है जो साधारण जिंदगी जीने वाले को जीने ही नहीं देता!
महानगर आपके संस्कारों का कितनी तेजी से ह्रास करते हैं यह महानगर की जिंदगी जीने वाले हर शख्स की जुबान से पहचान जायेंगे! यहाँ की बोलचाल की भाषा में सबसे पहले मित्रों ने मुझे जो शब्द सिखाये वो थे…! कै बात सै..! यानि जाट भाषा के चंद शब्द…! ताकि यहाँ की विरादरी यह समझ सके कि जाट है इससे उलझना नहीं है…! इसके बाद दिल्ली की भाषा शैली के वो गंदे गाली भरे शब्द जो यहाँ साधारण बोलचाल की भाषा में मलिन बस्ती वाले या मिडिल क्लास से लोअर क्लास के लोगों की भाषा शैली में अक्सर शुमार हुआ करते हैं..! आज भी हैं कि नहीं लेकिन यह सच है कि उस जमाने में अगर आप मुंह के कडुवे नहीं हैं तो दिल्ली वाले आपको बाहर का रास्ता दिखा देते हैं..! इन भाषाई शब्दों की शुरुआत कुछ इस तरह से शुरू होती थी..ओये लो…/ अबे ओये ब… के लो…या कोई बात हो मित्रो के बीच तो शुरुआत इस तरह होती थी…अरे यार ब… चो….मैंने ये किया मैंने वो किया/ अबे ब…. चो…! मतलब हर गाली बहन से जुड़कर शुरू होती थी और उसी पर ख़त्म होती थी! अब वह गाली यहाँ का आदमी खुद को देता है या किसी और को आज तक समझ नहीं आया..! लेकिन अब लगता है माहौल दिनों-दिन बदल गया है! अब भी दिल्ली जाना होता है लेकिन अब उम्रदराज लोगों के साथ उच्च सोसायटी में उठना बैठना होता है आम उस लकडपन से बेहद दूर! ये सब शायद आपको अटपटा लगे लेकिन कार्य संस्कृति और लोक संस्कृति के बिना शब्द संसार ख़त्म समझा जाता है! मैं लोधी कलोनी के ऐसे इलाके में रहता था जहाँ सेवानगर व कोटला मुबारकपुर जाट बाहुल्य इलाका हुआ ! यहाँ कब किस बात पर लफड़े हो जाएँ कोई पता नहीं चलता था! लेकिन मेरी संगत तेजी से ऐसे ही बाहुल्य के साथ बढ़ रही थी! दीदी जीजाजी लोग परेशान थे कि हम नौकरी पेशा लोग हैं और ये ऐसी संगत कर रहा है जो कभी भी मुसीबत पैदा कर सकते हैं लेकिन सच यह है उस समाज से मुझे दिल्ली को समझने व उसमें जीने का मौक़ा मिला ! छिs: आज इन शब्दों को सुनकर गालियों के इस फ्लो को सुनकर अपने से घिन आती है कि हम किस संस्कृति के अंग थे…लेकिन क्या करें भाई महानगरों में यही सब होता है…! दिन बीतते वक्त कहाँ लगता है कब एक साल गुजरा और कब मैंने इस दौरान तीन-तीन नौकरियाँ बदली पता भी नहीं चला…! मैंने डुपोंट फार ईस्ट इंक../ बीफेब सेफलैंड जैसी मल्टी नेशनल कंपनियों में काम किया..! उस जमाने में मल्टीनेशनल कम्पनियां हिन्दुस्तान में होती ही कहाँ थी..!. मेरा इंग्लिश का फ्लो ऐसा था जैसे मैंने इंग्लैंड में ही जन्म लिया हो..!अब मुझे गढ़वाली बोलने में शर्म आनी शुरू हो गयी थी..! जाने क्यूँ अंग्रेजी संस्कृति में रच बस कर मैं अंग्रेजों के साथ रहकर खुद को अंग्रेज समझने लगा था..! अब हिमाचली सुंदरी भी मेरे पहनावे स्टाइल पर फ़िदा हो गयी थी..! सच माने तो एक नहीं तीन-तीन लडकियां लाइन देने लगी थी..! आप कहेंगे कितनी बेशर्मी से लिख रहा है..! लेकिन सच के पाँव नहीं होते! यह सच लिखना हर किसी के बस कि बात है भी नहीं क्योंकि मर्द कभी भी कहीं भी अपने को दागदार साबित होने नहीं देता चाहे वह कितनी महिलाओं पर कीचड क्यों न उछाल दे! यह सच इसलिए भी लिखना जरुरी है क्योंकि तभी हर कोई कहानी को करीब से समझने की कोशिश करेगा क्योंकि अतीत में इस सब से लगभग सभी को गुजरकर आगे बढ़ना होता है! जो सच है वही लिख रहा हूँ..मेरी पड़ोस की बात वे सभी बहनें मुझे अपने भाई सा मानती थी लेकिन उनकी सहेलियों का मैं सोणा सा मुंडा कब बन गया मुझे पता भी नहीं लगा…! खूब मौज मस्ती में दिनचर्या कट जाती….लेकिन गलत कभी नहीं..! सुबह ऑफिस जाते समय या शाम को घर आते वक्त नैनमटका हो ही जाता था! हिमाचली बाला पर मैं भी शायद आशक्त हो गया था…! इसलिए उसका इन्तजार होता ही रहता था..! वह भी दीदी से घुल-मिलकर कोई न कोई बहाना बनाकर घर में आकर संजू की मम्मी ये संजू की मम्मी वो कहकर मुझे ताककर चली जाती थी…! शाम को मुझे भी अगर समय लगता तो मैं भी नैन मटका करने के लिए गली में खडा हो जाता कमीज के कालर खड़े करके .!.शीशा तो जैसे मेरे लिए ही बना हो..! शीशा और कंघा जाने दिन में कितने बार देखता था…! शायद इसलिए कि मेरा रंग पक्का है कहीं कोई कमी तो नहीं…! रविवार को मैं तीन ड्रेस बदला करता था…हा हा हा..कुछ ज्यादा ही पर्सनल हो गया! रात्री पहर शुरू हुआ नहीं कि यादों के भंवर के साथ अपना प्यार याद आने लगता था! दरअसल तब न मोबाइल क्रान्ति थी न सोशल साईट जोकि टाइम पास का जरिया बन सके! अक्सर एक गाना मेरा हमेशा मुरीद रहा करता था- अपने दिल से बड़ी दुश्मनी की किसलिए मैंने तुमसे दोस्ती की..! और फिर जब ज्यादा ही बेताबी होती थी तो गुनगुनाने लगता था- लिखे जो खत्त तुझे वो तेरी याद में हजारों रंग के नज़ारे बन गए! लेकिन वक्त की धारा को भला कौन बहने से रोक सकता है क्योंकि धीरे-धीरे अब उतनी बेबसी बेकसी या तड़फ नहीं रह गयी थी..! शायद इसलिए भी कि अब मुझ पर दिल्ली का रंग चढ़ चुका था और मैं लापरवाह भी हो गया था..! मुझे लगता था कि मुझसे अच्छा वर आखिर उसके घर वालों को मिल भी कहाँ सकता है ! एक अभिमान भी आ गया था मुझ में..! लेकिन ये भी सच था कि आज भी मैं उसे उतना ही प्यार करता था जितना पहले करता था..! चिट्ठियाँ लिखकर फाड़ना यह तो तब तक ही रहा जब तक नौकरी नहीं लगी थी! अब सिर्फ यादों में ही उससे कभी-कभी बातें हुआ करती थी! मुझे अभिमान इस बात का भी था कि मेरा हर दोस्त कोई न कोई ऐब करता था जबकि मैं कभी भी पान पराग गुटका तम्बाकू बीड़ी शराब या बियर या सिगरेट नहीं पिया करता था..! अचानक लाइफ में ऐसा मोड़ आया कि मुझे आयरलैंड दूतावास की नौकरी छोडनी पडी और सपने चकनाचूर हो गए..! दो तीन महीने नौकरी न मिलने पर अब घर में सभी ताने देते थे..! शायद यह आभास कराने के लिए कि तुझमें काबिलियत है…! गॉव भी जा नहीं सकता था क्योंकि नौकरी नहीं थी और उससे किया वायदा कैसे पूरा करता…! सुख के सब साथी दुःख में न कोई..! मेरे राम तेरा नाम..वाली बात हो रखी थी! अब दिल्ली की दिलवाली हसीनाएं धीरे-धीरे कम होने लगी…! जब से नौकरी क्या गयी कि सब उथल-पुथल शुरू थी! अब मुझे फिर से मेरा प्यार पर बहुत प्यार आने लगा था वह बहुत याद आने लगा था..! अपना गाँव, माँ… गॉव-गॉव के संगी साथी..! क्रिकेट और जाने क्या क्या…! हाँ इस दौरान हम गली के पांच ऐसे दोस्त बन गए थे जिन्हें और मित्र पांच पापी कहते थे! हर शुक्रवार ग्रीन पार्क के उपहार सिनेमा या कमल सिनेमा की फिल्म बदली नहीं कि हमारा नाईट शो पक्का! कई बार जीजाजी अंदर से लॉक कर देते थे तब में बड़ी मुश्किल से जाफरी की कुण्डी खोल पाता था! सबको आश्चर्य यह था कि ये साले सब बेरोजगार और हर हफ्ते फिल्म देखने कैसे पहुँच जाते हैं! दरअसल हमने बेरोजगारी में एक रोजगार ढूंढ लिया था! फिल्म छूटते ही जब सब बाहर निकलते थे तब हाल में ठन्डे की खाली बोतलों की हम तलाश में जुट जाते थे एक-एक 6 बोतल लेकर बाहर निकलता था तब एक बोतल ढाई रूपये या डेढ़ रुपये की खाली बिकती थी वो भी सिर्फ ठन्डे की, क्योंकि शायद उसमें मिलावटी ठंडा मिलाया जाता रहा होगा! उस से हमारे अगले शो का किराया भाड़ा निकल जाता था! एक बार तो मेरे मित्र काले की कमर में खूंसी हुई बोतल से उसकी बेल्ट, पैंट का बटन क्या टूटी कि सारी खाली बोतलें धड़धड़ाकर गिर गई ! मैं बाथरूम से बाहर निकला ही क्या था कि उन्होंने दुडकी लगा दी! मेरी समझ में आ गया था ! मैं आराम से चलता हुआ आगे बढ़ रहा था तो कैंटीन में काम करने वाला लडका मालिक को बोल रहा था ! आप हर महीने मेरी पगार काट देते हो कि बोतल कहाँ गायब हो जाती हैं ! अब पता चल गया ना..कि यहाँ आपसे भी बड़े कमीने आते हैं! मैं मुस्कराता हुआ बाहर निकला और उस दिन से सबने कसम खा ली कि अब से यह काम बंद..! क्योंकि इस से किसी गरीब के पेट में ही लात पड़ती है! एक दिन फिर भाग्य ने पलटी मारी और मुझे एक रसियन कम्पनी फोनिक्स में प्रशासनिक अधिकारी के रूप में तैनाती मिल गई..! फिर क्या था मेरा बोलचाल भाषा शैली सारा अफसरों जैसा हो गया ..अब मैं गोपाला टावर आ गया था…! अब फिर मैं बादशाह था…! पूरे दो साल बाद मेरा बी ए भी कम्प्लीट हो गया था और नौकरी भी अच्छी..! सब जगह वाह वाह..! मेरी ख्याति बहुत अच्छे लड़कों में होने लगी और शायद गॉव से वहां तक भी पहुँच गयी जहाँ मेरा प्यार रहता था…! फिर वह दिन भी आ ही गया जब मुझे गाँव जाने की तैयारी करनी पड़ी! आज रात में गॉव जाने के लिए कश्मीरी गेट बस अड्डे में पहुँच गया था…! बस चली तो लगा मुझे पंख लग गए हैं…! बस आँखों में सारे पुराने परिदृश्य उभर कर सामने आने लगे..! आँखों में ख़ुशी के आंसू..और कई अविश्मर्णीय यादें..! कुछ पल दिल्ली की रंगीन दुनिया भी धूल उडाती हुई आई और निकल गयी ..! बस महकने लगी तो प्यार की वह खुशबु…..! जो चार साल पुरानी थी..! .(contd..10)