मेरा पहला प्यार..(फर्स्ट अफैयर ऑफ़ माय लाइफ)….। (दूसरा एपिसोड)
विगत अंक का अंतिम……फिर भला इस अल्हड उम्र में किसको फुर्सत कि वह इसके अलावा भी कुछ और सोच सके! पहला प्यार एक ऐसा ज्वर होता है जिसमें न भूख होती है न प्यास ..सिर्फ और सिर्फ आँखों में तैरता मधुमास देखा जा सकता है! अब किताब के पन्ने पलटता तो आखरों में भी मुझे उसकी तस्वीर ही उकेरी नजर आती! राम जाने ऐसा क्या हुआ और क्यों हुआ! आखिर लगा भी तो क्यों लगा ये अजब गजब का प्रेम रोग…!सच में जा तन लागे वो तन जाने..कैसी है इस रोग की माया…!
गतांक से आगे….!
(मनोज इष्टवाल)
इस नए जहर (प्यार) ने मुझसे मेरा वह हँसता खेलता फुर्तीला सा बचपन एकाएक छीन सा लिया। मैं अचानक गंभीर अपने आप मैं खोया अपनी ही दुनिया में मगन रहने लगा । मैं भीड़ से उकताने कतराने लगा और खामोशियों उदासियों में जिंदगी का अलग सा मजा लेने लगा। घर में माँ जरुर कई बार पूछ लेती थी कि तू कुछ दिनों से सुस्त सा लग रहा है..क्या बात है? मैं माँ को डपट देता कि तेरा तो दिमाग खराब हो रखा है भला मुझे क्या हुआ। माँ चुप हो जाती..!
मेरा सांवला (चलो काला समझ लो) चेहरा इसी कुंद में नीला पड़ने लगा था ग़मों के सायों में अचानक पड़ा यह पाला किसी धूप के खिलने का इन्तजार करने लगा। जाने क्यूँ मुझे इस बात पर आज भी ताजुब होता है कि ऐसी क्या मोहिनी थी मुझमें कि मेरे कालेज की हर लड़की मुझसे किसी न किसी बहाने बात करने को तैयार रहती थी, जबकि मेरे दोस्त एक से एक खूबसूरत हुआ करते थे। हो सकता है मैं स्कूल का जनरल मानिटर था इस कारण भी लडकियां मुझसे बातें करती रही हों । शायद इस लिए भी कि अगर किसी भी लड़के ने स्कूल में किसी लड़की को कोई कमेन्ट पास कर दिया और बात मुझ तक पहुँच गयी तो समझो उसकी खैर नहीं..! आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन यह सच है। इंटरवल में कोई भी लड़का अगर बीडी पीते हुए मिल गया तो उसका सुतान शुरू हो जाता था। इससे मेरे क्लासमेट भी परेशान थे लेकिन क्या करें प्रिंसिपल के पास शिकायत पहुँचने पर उन्हें भी पता था कि हमारा क्या हाल होगा । हमारे प्रधानाचार्य इतने अनुशासन प्रिय थे कि जब वे किसी कक्षा में घुस जाते थे तो वहां ऐसा सन्नाटा पसर जाता था कि अगर मच्छर भी पास से गुजरे तो उसकी आवाज भँवरे के गुंजन से भी तेज सुनाई पड़ती थी। इस तानाशाही से कई लड़के मुझसे खार खाए हुए भी रहते थे। मैं दुबला पतला जरुर था लेकिन परवाह कुछ नहीं करता था, इसलिए लड़के इंटरवल में दूर गदेरे की तरफ बीडी सिगरेट फूंकने जाते थे। मैंने जखेटी बाजार में इंटरवल में ताश खेलने वालों को भी चेतावनी दे डाली जो लोकल बदमाश किस्म के लोग हुआ करते थे। जब नहीं माने तो एक दिन गुरुजनों की शह पर एनसीसी के लट्ठ लेकर वहां से खड़ेडे तब से जुआ बंद हो गया था, शायद ऐसे कतिपय कारण और भी हो सकते थे जिससे लडकियां मुझसे प्रभावित रहती रही होंगी लेकिन यह ध्यान मुझे तब आने लगा जब मुझे प्यार हुआ..! इस से पहले ऐसी फीलिंग कभी नहीं आई कि मुझसे हर लड़की बात क्यों करना चाहती है।
अब अगर मुझसे कोई भी लड़की बात करती तो उसकी आँखों में मुझे प्यार के समंदर में तैरते डोरों के वे रेशे दिखाई देते थे जिनमें प्यार ही प्यार उमड़ा नजर आता था। मुझे नफरत भी होती कि अचानक मैं हर किसी में उसी का अक्स कैसे देखने लगा हूँ…! खैर मेरी दिनचर्या में आये इस विकार को लड़के तो नहीं समझ पाए लेकिन ग्रुप की लडकियां शायद इस बात को भले से सूंघने लगी थी। अब उनकी तरफ से कमेन्ट भी पास होने शुरू हो गए थे। मजबूरी भी थी इस कान से सुनता उससे उड़ा देता क्योंकि औरों को डांटना सरल होता है जब अपने पर बात आती है तो जी का जंजाल बन कर रह जाती है। हाँ यह बात भी स्पष्ट कर दूँ मुझे अभी तक यह पता नहीं था कि क्या यह आग दोनों तरफ लगी है कि नहीं। लड़की से बस एक और मुलाकात पनघट पर हुई थी।आँखों आँखों में बात..! मुझे जिन में अपने लिए बेपनाह प्यार दिखाई दिया वे ये आंखें ही तो थी। सच कहूं तो एक भोला-भाला इंसान लुट गया था उन झील सी नीली कजरारी आंखों पर..।
अब मैं खेत में स्टम्प गाढ़ने की जगह प्रकाश को लेकर कुलड़ीधार/घाट उड़ियार (जंगल की सरहद) की तरफ पढाई करने के बहाने ले जाता था। उसे इसलिए अच्छा लगता था कि वहां से खरगड नदी पार वह अपना गॉव खेत खलियान, खेतों में चल रहा हल..और लोगों को पहचानकर अपनी खुद (याद) मिटाया करता था सच मुच तब खुद भी अजीब हुआ करती थी । और मैं अपनी पुरानी कापियां लेकर उस गॉव को निहारता था जो हमारी सरहद के पार खरगड नदी के दूसरे छोर पर कोसों दूर था। जहाँ गॉव तो पूरा दीखता था लेकिन घर में कौन कौन हैं यह कहना असमभव था। प्यार का पागलपन इतना कि उसके घर को मैंने कोड वर्ड के रूप में स्कूल का नाम दे रखा था। आखिर था भी स्कूल जैसा ही..! जैसे प्राइमरी विद्यालय हो..! बस एकटक उसे ही निहारा करता था। मकान की छत पर पड़ी चादर या पहाड़ी पत्थर की स्लेट अगर चमक गयी तो मेरा ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता था। मैं लज्जू (प्रकाश) से कहता था देख वह शीशा चमका रही है। वह हंसकर कहता था –तेरु कपाळ ऊ कुड़ी का फटळआ चमकणा छन। (तेरा सिर वो मकान की स्लेट चमक रही हैं) लेकिन मैं उसे इसी गफलत में रखकर खुश था। मैं मन ही मन यही सोचता था कि अच्छा हुआ जो इसे ऐसा लगता है ! अगर सच में किसी दिन इसके मन में इर्ष्या पैदा हुई तो मेरी पोल खोल देगा।अब जबकि इतने साल बाद कभी उस मकान को देखता हूँ तो होंठो पर मुस्कान रेंगे जाती है। सोचता हूँ कितना पागल आशिक दीवाना था मैं..!
खैर फिर जैसे ही उस गॉव की लडकियों का झुण्ड घास लेने या लकड़ी लेने अपनी सरहदों खेतो में निकलता था तो मैं जोर से सीटी बजाकर हाथ हिलाकर यह जताता था कि ये देखो मैं यहाँ उपस्थित हूँ लेकिन मुझे क्या पता था कि मेरी सीटी इन ढलानों को चीरती हुई सिर्फ हवा की तरंगों में ही खरगड नदी के बहते जल की सांय-सांय में बिलुप्त हो जाती हैं लेकिन प्यार का पागलपन देखिये। वहां नदी के कोसों दूर किसी भी लड़की का दुपट्टा भागते हुए हिल गया या आपसी मजाक में वे एक दूसरे को हाथ उठाकर मारने दौड़ती..। या फिर गाय, बैल इत्यादि को रास्ता बनाने के लिए लाठी से हांकती तो मुझे लगता वह मुझे बड़े स्टाइल से हाथ हिला रही है। मुझे छुपकर चुन्नी हिलाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। मैं ख़ुशी से नाच उठता और अपनी पुरानी कापियों के पन्ने फाड़-फाडकर हवा में उड़ाता कि उन्हें उड़ते देख उसे लगेगा कि मेरा ये सन्देश है या इशारा। फिर गाना गाता…”लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में हजारों रंग के नज़ारे बन गए..सवेरा जब हुआ तो फूल बन गए……” सच में जाने कितने कागज़ रोज लिखता और फाड़ देता…फिर जलाता कि कहीं किसी ने देख लिया या फाड़े हुए पन्नों को जोड़ लिया तो मेरी शामत आ जायेगी। बस यह सब दिनचर्या में शुमार हो गया था। यहाँ लज्जू के साथ गोकुल बिष्ट भी पढने मेरे ही घर आया करता था। सब साथ के थे लेकिन ये दोनों मुझे बड़े होने के आधार पर इज्जत भी खूब देते थे। गोकुल और लज्जू दोनों ही नटखट थे। लज्जू हर सन्डे को अपने गॉव जाता मैं इसी उम्मीद पर उसका आँखे बिछाए इन्तजार करता कि उसने उसे जरुर देखा होगा। वह कैसी लग रही थी रास्ते में मिली या नहीं..उसने कुछ पूछा तो नहीं! कहीं दिखी कि नहीं..! अब मामला एक ही सरहद का जो हुआ। ये दोनों इतने चतुर थे कि क्या कहूँ…लज्जु को सारे गॉव के लोग पसंद करते थे। वह मजाकिया भी था और प्यारा भी..! अब भले ही गृहस्थी के बाद सभी का स्वभाव बदल जाता है लेकिन वह एक दिन नहीं दिखा तो गॉव भर की भाबियाँ ये जरुर पूछती थी कि आज उसकी मुखडी (मुंह) नहीं दिखाई दे रहा है। ये दोनों मुझसे छुपकर खैनी खाया करते थे और बीडी के रास्ते में पड़े टुडे उठाकर धुंआँ उड़ाया करते थे। हद तो तब होती थी यार कि ये रजाई के अंदर ही माचिस जलाकर बारी-बारी से अंदर मुंह डालकर सुट्टा मारते थे और मुझे खबर तक नहीं होती थी। मैं बोलता भी था यार कहीं बीडी की बदबू आ रही है..। तो दोनों हंसकर कहते थे कि तुझे बहम है या फिर कहते थे कि १२ बजे का समय होने वाला है इस समय सैद (आत्माएं) अपने घोड़ों में सवार होकर निकलती हैं वे बीडी या सिगरेट सुलगाकर जा रहे होंगे यह उनकी बदबू आ रही है। कितना साधारण था वह वक्त..! और कितना एक दूसरे पर यकीन भी…! वे कहते थे और मैं मान भी जाता था।
खैर मुख्य बात से भटक गया था अब उस सपने पर आता हूँ जिसने मेरी पहली मुलाक़ात कराई। शनिवार का दिन था जखेटी स्कूल से मेरे गॉव का पैदल रास्ता लगभग ३ किलोमीटर का हुआ। आज लज्जू को अपने गॉव जाना होता था इसलिए हम मुश्किल से पौन घंटे में गॉव पहुंचे और खाना खाकर लज्जू ने मुट्ठी पर थूक लगाया क्योंकि सर्दियों का समय था और समय भी ४:३० बजे शांय हो गया था वो ये दौड़ा वो दौड़ा..!
मैंने उससे इस बार गुजारिश कर रखी थी यार तुझे कहीं भी दिखे तो उससे ये जरुर कहना कि वो याद कर रहा था लेकिन जाते-जाते मैंने यह कहकर उसे बोलने को मना कर दिया कि कहीं उसे यह बात बुरी लगी तो..? शनिवार रात उसी का सपना आया सपने में वह खरगड नदी पार आई हुई मुझे ही ढूंढ रही है। वह इधर-उधर भाग रही है लेकिन मैं उसे दिखाई नहीं दे रहा था रात नींद खुली मैने पाणी पिया, फिर सो न सका। बस भोर का तारा देखने को बार-बार अपने दो मंजिले से रजाई के बाहर सिर निकालकर दूर आसमान में फैले असंख्य तारों को निहारने लगता। अब तक तारे छुप गए थे और आसमान में सप्तऋषि मंडप के सात तारे दिख गए थे। मुझे अहसास हो गया था कि अब रात खुलने ही वाली है। आँखें बंद की और उसी के ख़्वाबों में खो गया। जाने माँ चाय बनाकर कब से आवाज लगा रही थी, आखिर उसने दरवाजा पीटा और जोर से चिल्लाई- बडू पढ्वाक समझद अफु थैंs..हे मेरी ब्वे…! इख द्ययाख़दी ४ बजण वाळी छन ! अर फसरफट कैकी सेयुं छ । नि होंदी बुबा तेरी मौs…! मेरु हाथ थकी ग्ये उतनी दां भटिकी ..(बड़ा पढ़ाकू समझता है अपने को…हे मेरी माँ प्रात:काल की चार बजने वाली हैं और अभी भी पसरकर सोया हुआ है। नहीं होती बेटे तेरी जिंदगी का भला…मेरा हाथ थक गया उतनी देर से.) मैं बिलबिलाकर उठा और उठते ही बोला- तेरा दिमाग खराब है। मैं कब से उठकर पढ़ रहा हूँ। फ़ालतू में डिस्टर्ब कर देती है। पढने भी नहीं देती। मैंने लैंप हल्का कर रखा था। अब मैं तेरी आवाज सुनकर डर गया और लैंप बुझ गया। यह बडबडाता सा मैं तेजी से दरवाजे पर लपका, उसे खोलते ही गॉव की कई बहुऐं उठ जाती थी क्यूंकि वह जोरदार चीईं की जोरदार आवाज में चिंघाड़ता था। इसे नयी नवेली बहुऐं अपना उठने का अलार्म समझती थी। खैर माँ ने चाय परोसी और चल दी। उस कडकडाती ठण्ड में एक माँ में ही तो इतनी हिम्मत थी जो मेरे लिए इसलिए सुबह चाय बनाकर दे जाती थी कि मैं सुबह की ताजगी में पढ़े आखरों को कंठस्थ कर सकूँ। तभी तो माँ के जब भी यह त्याग याद आते हैं आँखों की पोर भीगने लगती है। उस माँ के लिए आजतक भी मैं कुछ नहीं कर पाया हूँ यह मलाल रहता है।
सपने को कैसे साकार करूँ..! इसी उदेड़बुन में था कि बस दिमाग में एक आईडिया आ गया। मैंने प्लान किया कि आज ताऊजी की बकरियां चुगाने मैं ही जाऊँगाचाहे कुछ हो जाए। खुली किताब के दो घंटे पन्ने पलते तब तक भोर हो गयी थी लेकिन उन पन्नों का एक भी आखर जेहन में नहीं घुसा था।किस्मत देखिये आज ताऊजी की तबियत भी थोडा बहुत नासाज थी। मैं बोला आज आप रेस्ट करो। मैं बकरियां चुगाने जाता हूँ। ताऊ जी के साथ ताईजी और घर के सभी सदस्य खिलखिलाकर हँसे। ताऊ जी बोले – आज तक तूने गाय तो ढंग से चुगाई नहीं बकरियां चुगायेगा..!
ताऊजी मुझे गुस्सा हो या प्यार धर्मा जोगी कहा करते थे- बोले.बड़ी मुश्किल से बकरियां बढ़ी है..तू क्या चाहता है कि चार-पांच बकरियां आज बाघ का निवाला बन जाएँ. मैंने अनमने भाव से बोला – मैं अकेला कहाँ जा रहा हूँ..! उम्मेद सिंह चाचा जी कि बेटी दिक्का दीदी और जत्रु ब्वाड़ा भी तो हैं! फिर कहते हैं कामचोर हूँ! जब काम करने ही नहीं दो सीखूंगा कहाँ से..वैसे भी आपको पेचिस लगे हैं! (मैंने इस कमजोर कड़ी पर बहुत नाप-तोलकर प्रहार किया)! खैर बड़ी खुशामद के बात उन्होंने हामी भरी और बकरियां किस तरह चुगाई जाती हैं उसकी बिशेष हिदायतें भी दी! उन्होंने बहुत गंभीरता से समझाया कि पहाड़ी ढालों के पठारों पर जब बकरियां चुग रही हो तो उनके नीचे कभी मत जाना वहां से पत्थर गिरने का खतरा बना रहता है! वे बोले- सती (जत्रु ब्वाडा के बेटे) का हाल तू जानता ही है! उसने भी ऐसा ही किया था और एक पत्थर ठीक आकर उसके सिर को दो फाड़ कर गया था! वो तो भगवान् की नेमत रही कि वह बच गया!
मैं भला यह सब कहाँ परवाह करने वाला था ! मुझे तो मन पंख लग गए हों..मैंने बकरियों का दैड (बकरीबाड़ा) खोला और ये चला वो चला…! तब कहाँ फुर्सत थी कि दिक्का दीदी की बकरियां किधर चुगने गयी और जत्रु ब्वाड़ा की किधर…! बस ढलान पर उतरती बकरियों के साथ मेरी लेs.. लेs..! याs.. याs.. की आवाज और जोरदार हकरोळ (जैसे चौकीदार जागते रहो चिल्लाता है वैसे ही बकरियों के साथ भी ऐसे ही जोर से चिल्लाना पड़ता है ताकि झाड़ियों में छुपे बाघ या तेंदुवे को घात लगाकर हमला करने में दिक्कत होऔर उसे ये डर हो कि चुगाने वाला सावधान है) लगाता मैं बकरियां खरगड तट पर ले गया! ऊपर से गाय बैल बच्छिया वाले गॉव के लोग बोलते ही रह गए कि इधर छोड़ उधर छोड़..! बकरियां शाम के समय नीचे उतरती हैं नीचे नदी में..! लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था मैंने सरहद के उस पार हर ओर नजर दौडानी शुरू कर दी, और साथ ही गाना भी जोर जोर से गा रहा था- “पर्वतों से आज मैं टकरा गया तुमने दी आवाज लो मैं आ गया..” पता नहीं कितने घंटे यूँही नजरें नदी पार ढूंढती रही कि अभी उधर से वह आएगी..आखिर निराश मन मैं वापसी के लिए बकरियों को मोड़ता हुआ निराश मन से बेताब फिल्म का यह गाना गाता हुआ लौटने लगा- “अपने दिल से बड़ी दुश्मनी की किसलिए मैंने तुमसे दोस्ती कि…तुमने अच्छा किया सहारा दिया..बेसहारा मुझे कर दिया…हर घडी से????????” इतना ही गा पाया था कि बकरियों के पैर से चट्टान से गिर रहे एक पत्थर पर नजर जा टिकी और संतुलन खोकर गिर पड़ा…!लेकिन गीत के बोल हाय ठुकरा दिया बेवफा भी उसी स्टाइल में पूरे हुए! हाथ झाडकर उठा तो देखा गदेरे के पत्थरों पर चिपकी हरी काई से मेरा पिछवाड़ा भी हरा हो गया था! मैं ढंग से कराह भी नहीं पाया ठाक कि हंसी के खिलखिलाते सामूहिक स्वरों की हंसी को अपने एकदम पास से पाकर डर गया मेरे चेहरे का रंग उड़ गया ! लगा कि भूत आ गया, लेकिन एक पूरे ग्रुप की लड़कियों को घास के ढेरों के साथ बैठे तक फिर शरमा गया! उस समय शरम सभी का गहना हुआ करता था चाहे मर्द हो या औरत! लेकिन दूसरी समस्या यह थी कि पतलून का पिछवाडा जो भीग गया था जिस पर हरी काई सन्नी हुई थी!मैं चालाकी से वहीँ पर नीचे बैठ गया और पास ही खगसे की झाड़ी तोड़कर अपने पिछवाड़े की काई साफ़ करता हुआ अपनी शर्म छुपाने का बहाना भी ढूंढना ही था..आफ्टर आल लड़का था यार…!
मैं बोला- तो ये बात है हमारी सरहद की चोरी का घास ले जा रहे हो..! चलो अपनी अपनी दरान्तियाँ इधर दो! एक लड़की तपाक से बोली- ऐसा कर भैजी कि तू अपना घास ही लेजा..! हमें नहीं चाहिए..उसकी यह बात सुनकर सब हंस पढ़ी! लेकिन मेरी नजर तो सिर्फ वही चेहरा ढूंढ रही थी! एक ने ब्यंग्य बाण चलाते हुए कहा-“क्य छई इल्दु-बिल्दु ढूँढनी…(क्या देख रहा है या ढूंढ रहा है इधर उधर..? मत पूछो मेरा क्या हाल हुआ!
मुझे लगा मेरी चोरी पकड़ी गयी लेकिन जब उसे नहीं पाया तो निराश मन से बोला..चलो यार जाओ तुम्हारे साथ कौन लगे..! काम धाम कुछ है नहीं…! यह सुनकर सब खिलखिलाकर हंसने लगी. उनकी हंसी मुझे काटने दौड़ रही थी क्योंकि अपने सपने पर मुझे पश्चाताप हो रहा था! तब तक एक लड़की बोली-हे भाई जी ..जरा एक कष्ट कर ही दो…! जब तुझे पता चल ही गया है कि हमने तेरे सरहद का घास काटा तो ये गेंठी के हरे-हरे पात काट दे…! मैंने गुस्से से कहा कि यही काम रह गया अब मेरा…!
वह भी उसी सुर में बोली-क्य छाई तडयो दिखानी नि कटदी टा कौन से मी अफु खुणी कटाणु छायो..ऊ त ..? (क्यों तड़ी झाड रहा है ..कौन से मैं अपने लिए कटवा रही थी वो तो…) उसके यह शब्द पूरे भी नहीं हुए थे कि वह जोर से चिल्लाई- उई माँ…हे रांडे छोरी कन मोरी तेरो..?
स्वाभाविक था मैंने भी पलटकर देखना ही था कि अचानक यह क्या हुआ..! और सच पूछो तो पैरों के नीचे जमीन भी थी कि नहीं ..मुझे नहीं पता..! वह शर्म से सुर्ख बुरांश हुआ चेहरा..! उठकर झुकी नजरें..! जो थोड़ी सी मिली थी और शर्मा कर जमीन पर गढ गयी..! जब देखा तो न पूछो दिल का क्या हाल हुआ…!
बाद में पता चला कि उसी ने उसको तेजी से चूटी काटकर यह कहने से मना करना चाहा था कि ये मत बोल कि यह पहाड़ी ढलानों में नहीं चढ़ सकती..! इसके पास घास कम है और अगर उसकी माँ उसका घास कम देखेगी तो जाने क्या क्या सुनाएगी..! मैंने बोला – दरांती दो ..मैं काट देता हूँ..! अब जाने कितनी हंसी एक साथ छूटी लेकिन मुझे परवाह नहीं थी! उसने कम्कपाते हाथ से दरांती मेरी ओर बढाई..वह एक छुणकयाली दरांती थी, जिसके लकड़ी के हत्थे के पोर पर घुंघुरू थे! दरांती पकड़ते वक्त उसके हाथ का थोड़ा सा स्पर्श हुआ तो लगा मानो ४४० बोल्ट शरीर में दौड़ गया हो…! मैंने पेड़ में चढकर गेंठी की टहनियां काटनी शुरू कर दी! अचानक जाने क्या हुआ कि दरांती हाथ से छिटक गयी वह नीचे गिरने ही वाली थी कि मैंने हवा में ही लपक ली ! उसकी धार इतनी तेज थी कि उसने मेरे बांये हाथ के अंगूठे के मांस को छिल दिया ! पेड़ से टप-टप खून नीचे गिरने लगा! नीचे वह व उसकी वही सहेली गेंठी की चारा पत्तियों को इकठ्ठा कर रही थी! चीख मेरे मुंह से नहीं बल्कि उसके मुंह से निकली ..जबकि मैं पेड़ से ही बोला क्या हुआ! सच कहूँ तो मुझे यह ध्यान नहीं आया था कि मेरा हाथ कट गया है! जब लड़कियों ने ध्यान दिलाया तो मैं मुस्कराकर शेर बनता हुआ बोला – अरे ये तो कटता ही रहता है! नीचे उतरते ही उसने अपनी चदरी का किनारा फाड़कर हाथ पर लपेट दिया, उसकी आँखों से टपटपकते गर्म आंसू उसकी चदरी की चीर पर टपकते खून में घुलकर दवा का काम कर रहे थे जो वह मेरी अंगुली में बाँध रही थी!
उसके ये आंसू मुझे और पीड़ा देने लगे..लेकिन जुबाँ से शब्द नहीं फूटे..! आखिर इतना निकट जो पाया था उसे..! बस यह मुलाक़ात थी मैं नदी के इस छोर से उन्हें रास्ते भर दूसरे छोर से घर की ओर बढ़ते हुए जी भरकर देखता रहा ! उनका समूह और मैं आपस में जी भरकर हाथ हिलाते रहे जब तक वे ओझल न हो गए! घर में हाथ कैसा कटा कई बहाने थे…! डांट खूब खायी लेकिन घाव भरने के बाद भी कई महीनों तक खून से सना वह मैली सी चदरी का टुकडा मेरी जेब में ही रहा…! उस दिन मुझे बड़ा दुःख हुआ जब मेरी पैंट धुलते वक्त मेरी बड़ी बहन ने वह खून से सन्ना चदरी का टुकडा पैंट की जेब में ही धो दिया(cont..3)