Monday, December 23, 2024
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गोर्ला अधिपतियों से पूर्व खश अधिपति गुराड़ी नेगी थे चौन्दकोट गुराड़स्यूं वासी! बर्षों संघर्ष के पश्चात जा बसे नयार पार के बीहड़ों में!

गोर्ला अधिपतियों से पूर्व खश अधिपति गुराड़ी नेगी थे चौन्दकोट गुराड़स्यूं वासी! बर्षों संघर्ष के पश्चात जा बसे नयार पार के बीहड़ों में!

(मनोज इष्टवाल)

सचमुच हिमालय के गर्भ से जो पत्थर उठाओ उसके नीचे पसरी इतिहास की चादर इतनी लम्बी है कि आप खोजते खोजते बूढ़े हो जायेंगे! कहाँ मैं नादलस्यूं पौड़ी के सात ढांडरी गाँवों की देवी कालिंका में उदृत नागरी लिपि के अभिलेख का पीछे करने के लिए किताबें टटोल रहा था कहाँ आकर मुझसे खश जाति अधिपति गुराड़ी नेगी टकरा गए मानों आकर कह रहे हों कि भूप सिंग गोर्ला व तीलू रौतेली से नागु गुराड़ी के अस्तित्व को क्यों नकार रहे हो! अब यहाँ भी इतिहास दिग्भ्रमित कर देता है कि नागमल गुराड़ी या फिर नागुगुराडी? या नागमल रिंगवाड़ी या नागु रिंग्वाडी!

ऐतिहासिक यह झोल वास्तव में भी समझ से परे है क्योंकि नागु या नागमल दोनों ही वीर भड हुए हैं और दोनों के नाम से चौन्दकोट की दो पट्टियों के नाम हैं एक पट्टी रिंगवाड़स्यूं व एक पट्टी गुराड़स्यूं! फिलहाल नागु रिंगोडा को भी भुप्पू गोरला के समकालीन माना जाता है ! व ये दोनों ही परमार वंशी राजपूत शाखा से माने जाते हैं जो तेजी से खश जाति का सम्पूर्ण मध्य हिमालयी क्षेत्र से अधिपत्य हटा रहे थे!

किंवदन्तियों में व भड वार्ताओं में जहाँ नागु गुराड़ी व भुप्पू गोर्ला के वंशजों के आपसी संघर्ष कहानियां उजागर होती हैं वहीँ धन बल अर्थबल से कमजोर होते गुराड़ी नेगी / ग्वाड़ी नेगी व ग्वाड़ी ब्राह्मण उस काल में यह कहते सुनाई दिए -“भैर ग्वला, भित्तर ग्वला अर्ज पुर्ज कैमा कर्ला”!

गुराड़ी नेगियों को मूलतः गढ़वाल का आदिपुरुष कहा जा सकता है क्योंकि इनकी प्रभुत्वत्ता चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारम्भ से प्रकाश में आई और तब ये खशाधिपति के रूप में प्रसिद्ध थे! मध्य देश के कई राजाओं के अभिलेखों में उत्तराखंड के समकालीन नरेशों का खश नाम से उल्लेख मिलता है! ई. पूर्व तीसरी शती से 10वीं शती ई. तक खसों की वीर आयुधजीवियों के रूप में धाक बनी रही! (डबराल उत्तराखंड का इतिहास भाग १ पृष्ठ ३९१, 93, ९४ व कैंत्युरी राजवंश उत्थान एवं समापन पृष्ठ ७१, केदारखंड ग्रन्थ २०६/१-५, ओकले तथा गैरोला “हिमालयन फोकलोर, वाटर्स “ऑन-युआनचाड्स ट्रेवल इन इंडिया ) 

गुराड़ी खश नेगियों के बारे में कहा जाता है कि ये बेहद परिश्रमी कृषक व पशुचारक थे! इन्होने ही सर्वप्रथम हिमालयी तीखे ढालों को खोदकर उसमें भीड़ा परम्परा को जीवित किया व इन्हें समतल खेतों का रूप दिया! ये गौ पूजक थे व गाय को न्यायोचित्त स्थान देते थे! हिमालयी ढालों में उगी झाड़ियों को काटकर उनमें भीडे रखकर खेती करने लायक बनाने व बीजों को संग्रहित करने का श्री भी खश जाति को ही जाता है! जब ये अपने उफान पर थे तब इन्होने किरातों से उन्हीं का भू-भाग छीनकर उन्हें भी कृषि कार्य सिखाया व पहाड़ी जमीन पर बारा नाज बारा काज की परम्परा जीवित की! अपने मूल गाँव के प्रति उनके हृदय में इतनी श्रद्धा थी कि उन्होंने अपने मूलगाँव-सूचक  अभिजन अपना लिए थे, जो आज तक चले आते हैं यथा गुराड़ गाँव से गुराड़ी नेगी आदि (डॉ शिब प्रसाद डबराल “चारण” कैत्युरी राजवंश का उत्थान एवं समापन पृष्ठ -७१/२)

कालान्तर में जब गुराड़ियों को गोर्ला संघर्ष के साथ १७वीं सदी उत्तरार्द्ध में यानि लगभग १६४७-१६४८ के आस-पास गुराड़ छोड़ना पड़ा और नयार पार कर भीषण जंगली बीहड़ों में अपनी बसासत करनी पड़ी! वक्त का पहिया चलता रहा और सदियाँ बीतती गयी गोरला थोकदार कमजोर/सम्पन्न होते गए और गुराडस्यूं से बाहर पलायन करते गए ! मूलतः कृषक गुराड़ी नेगियों ने अथक परिश्रम के बाद नयार के बांये छोर के बीहड़ क्षेत्रों को मत्स्य आखेट, मृग आखेट व अन्य आखेटों से अपनी दिनचर्या की शुरुआत करने के बाद अपने आप को साधन सम्पन्न बनाना शुरू कर दिया! वर्तमान में गुराड़ी नेगियों के गाँव चमासु धार, चमासु गाड़, उखलेत, चमोली गाँव, चमोली सैण, सिलडी, मंगोली गाँव, मरोड़ा बड़ा, मरोड़ा छोटा, भारगोड़ी, सरोड़ा, तोली, धनियार, ठान्गर, अळणाकोट, बगासु, भल्युं, जखनोली व ऐता (दुगड्डा) हैं! (साभार- दिग्मोहन नेगी)! लेकिन एक भी गाँव ऐसा नहीं रहा जो उनका जाति सूचक हो!

यह आश्चर्यजनक है कि ये लोग तब आकर ऐसे स्थानों पर आ बसे जहाँ पानी की प्रचुर मात्रा रही और इन्होने खेतों में सिंचाई के संसाधन पैदा कर श्यामक व नीवार (कोदा/झंगोरा) के स्थान पर गेहूं व चावल उत्पन्न करना प्रारम्भ कर दिया था ! इनकी आर्थिक सम्पन्नता ने इनके सम्बन्ध प्रबल किये व गुराडियो (गोरला) से ब्रिटिश काल के बाद सम्बन्ध सामान्य हो गए और बैरमनस्य भी समाप्त हुआ ! ये लोग तब खश की जगह ठाकुर कहलाने लगे ! राहुल सांस्कृत्यायन ने कैंत्युरी अभिलेखों में वाले ठक्कुर शब्द को खश सामंत का धोतक माना है! वहीँ परमारों को राजपूत कहा गया ! जबकि दोनों ही जातियां राजवंशी कही जा सकती हैं क्योंकि खश प्रभुत्व के समय वे मध्य हिमालयी क्षेत्र के बड़े भू-भाग के अधिपति रहे जबकि पंवार वंश के समागम के बाद उन्हें कम आंकने की गलती की गयी जो कालान्तर तक चलती आई है! जबकि वे स्वयं राजवंशी हुए! विभिन्न पुस्तकों के सन्दर्भ में गुराड़ी नेगियों का खश अधिपति होना बताया गया है जिनका उल्लेख कुछ इस तरह मिलता है:-

खश व्रात्य क्षत्री तो माने गए पर शूद्र नहीं बताये गए! वे मुख्यतः पशुचारक थे ! महाभारत के सभा पर्व में उनका वर्णन मिलता है! गढ़राज्य में चन्द्र वंश (पंवार/परमार) तथा कुमाऊं में चंद शासन काल में राजपूत और खसिया जातियों के मध्य विरोध भावना समय समय पर उठी जो ब्रिटिश शासन में उन्नीसवीं शती में तनिक उग्र होने के पश्चात् अब सदा के लिए मिट गई! (द्र. उत्तराखंड के पशुचारक, उ.का इतिहास भाग-१,,,,,१०)

फिलहाल यह कहना उचित होगा कि कालान्तर को अगर समझा जाय तो गुराड़ी नेगियों का उत्तराखंड में निवास लगभग डेढ़ हजार बर्ष पुराना है!

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