शिव के सामवेदी आदेश के पालन देहरादून में जुटेगा बादी/बेड़ा समाज।
(मनोज इष्टवाल)
जहां सामवेद के हर अध्याय के किसी न किसी श्लोक में सृष्टि के सतरंग स्वरूप को पैदा करने के लिए ढोल नृत्य व गायक विधा का उल्लेख मिलता है वहीं बादी समाज की जहां भी जब भी बात होती है तो कहा जाता है कि बादी यानि गंदर्भ और किरातों का हिन्दू धर्म शास्त्रों में भरपूर उल्लेख मिलता है। चाहे महाभारत महासभा पर्व अध्याय 4 हो या वनपर्व अध्याय 51, भीष्म पर्व अध्याय 9, मत्स्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण, सूक्त ऋग्वेद इत्यादि ग्रन्थ! हर जगह बादी समाज का भरपूर उल्लेख किया गया है।
बादी/बेड़ा समाज लांघ, कठबद्दी भी उसी श्रेणी के यज्ञों में गिने जाते हैं जैसे अश्वमेघ यज्ञ, पुरुषमेघ यज्ञ या आग्रयनौष्टि यज्ञ। हर जगह यज्ञ असफलता पर बलि ही चढ़ती है । इस समाज की लांघ या कठबद्दी यज्ञ में भी ऐसा ही होता है। थोड़ी सी चूक हुई नहीं कि जान से हाथ धोने पड़ते हैं। इसीलिए तो कहा गया है:-
बेड़ा की बतूली बटेंगे, बेड़ा का तोरण घटेंगे। ऐसे जान कितने असंख्य शब्द संयोजनों की माला पिरोकर उनसे उपजे गीत जिनमें चैती पैसरा, सैदेई, कुलाचार, औसर, राधाखण्डी इत्यादि प्रमुख हैं, जब घुंघुरुओं के बोलों और ढोलक के शास्त्रीय रिदम में सजकर घर गांव के आँगनों में पैरों की थाम के साथ नृत्य करते थे तब लगता था आंगन की एक एक फटाल साथ में नृत्य कर रही हैं।
इन गीतों में “घास काटी पूली, घास काटी पूली, ख़िरसू बौडिंग लग्यूँ छ तिन भी सूणी मूली।” सहित राधाखण्डी के बोल ” स्वर्ग डाली बिजुली, पयाल डाली फूल। नाचे गौरा, नाचे गौरा कमल जसो फूल।”
सृष्टि के उत्पत्ति पर जब अंधकार से ओंकार की बात हो रही थी तब शिव के अपने सामवेद ग़जबल राळ लगी ढोल की पूडी पर मारते हुए बेड़ा/बादी को आदेश दिया-
“भूतानि आचक्ष्व, भूतेषु इमं यजमान अर्ध्वयु:”! इन्हीं शब्दों का अक्षरत: पालन करने के लिए आगामी 9 सितंबर 2018 को “अभिब्यक्ति कार्यशाला” दिल्ली द्वारा बादी समाज के नृत्य गीतों पर एक कार्यक्रम रखा गया है जिसे नाम दिया गया है- “लोक के रंग-बादी गीतों के संग” । यकीनन यह अनूठा समागम होगा क्योंकि ये रंग वर्तमान में पहाड़ी समाज से लुप्त हो चुके हैं।