पृथ्वी से स्वर्ग की ओर एक रास्ता……..जहाँ के परीलोक में आज भी सुनाई देता है ओसला के हरपु का ढ़ोल. (कारुणिक और मार्मिक गाथा)
(मनोज इष्टवाल)
ओसला का हरपु ….! (29 मई 2013 ट्रेवलाग) गतांक से आगे ..
जब हम हर की दून के बिशाल वैभवपूर्व प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच पहुँच जाते हैं तो आपको मीलों फैले लम्बे बुग्याल, मानिंदा ग्लेशियर से निकलकर कलरव करती चपल चंचल मानिंदा नदी, व बांयी ओर आटा पर्वत जिसके पार चीन है! तो ठीक बीच में परियों का डांडा व बंदरपूंछ की उतुंग शिखर व दांयें हाथ में स्वर्गारोहिणी की उतुंग शिखरें दिखाई देती हैं. रात्री बिश्राम के लिए यहाँ दो आप्शन हैं एक गढ़वाल मंडल विकास निगम का बदहाल सा बंगला (उम्मीद है अब ब्यवस्थायें चाक-चौबंद हो गयी होंगी वहीँ दूसरी ओर फारेस्ट गेस्ट हाउस आधुनिक सुख सुविधाओं से परिपूर्ण!) अगली सुबह आप मानिंदा ग्लेशियर या बदासू पास (जहाँ हमारी सेना सीमा रक्षा में तैनात है) जा सकते हैं, यहीं से हिमाचल भी निकला जाता है । वहीँ इन हरे बुग्यालों का मीलों लम्बा सफ़र कर आप बन्दरपूंछ की श्रृंखलाओं के पादप क्षेत्र से गुजरकर जौंधार (ज्युन्धार) ग्लेशियर भी जा सकते हैं, जिसका रास्ता स्वर्गारोहिणी की विपरीत दिशा से आगे बढ़ता है. यहाँ क्षेत्रीय लोग अप्रैल मई व जून तक नागछत्री नामक जड़ी की तलाश में रहते हैं जो कीड़ा जड़ी जैसी ही कीम।ती है
(मानिन्दा नदी के दोनों छोर मीलों फैले हरित बुग्यालों पर सैकड़ों प्रजाति के फूल)
हर की दून को आज भी स्थानीय लोग हरपु के नाम से जानते हैं। हर की दून का नामकरण कब हुआ यह भविष्य की गर्त में है लेकिन हरपु क्यों यहाँ का नाम पड़ा उसके पीछे की कारुणिक कहानी कुछ यूँ है:-
एक ढ़ोल वादक जिसे आज भी लोग परियों के साथ ऊपर काली चोटी जोकि बन्दरपूंछ की ही है विराजमान समझते हैं. जिसकी सबसे कारुणिक कहानी यहाँ ओसला के हरपु नामक बाजगी (ढोल वादक) की है। दरअसल वन विश्राम गृह में रात्री विश्राम कर रहे मैं और मेरे सहयोगी गौरव व प्रशांत उस समय अजीबोगरीब स्थिति में थे जब हमें प्रात: 4बजे अचानक ढोल की आवाज में नौबत बजने के सुर सुनाई दिए। मुझे लगा मेरा बहम है क्योंकि पहले ऐसा लगा मानों गेस्ट हाउस के पास बह रही मानिंदा नदी के कलरव के ही ये सुर हैं ।बड़ी मुश्किल से अपने सहयोगियों को झकझोर कर मैंने उठाया था.. आखिर इतनी थकान के बाद भला कौन ऐसे कडाके की सर्दी में उठ खड़ा होता। ढ़ोल के सुर तेज थे उन्हें भी लगा कि कोई ढ़ोल बजा रहा है । उनींदी आँखों से गौरव बोल पड़ा, सोने दो यार चाचा! हम गॉव क्षेत्र में हैं यहाँ ढ़ोल नहीं बजेंगे तो क्या होगा । फिर वे सो गए लेकिन मैं नहीं सो पाया क्योंकि यहाँ से मीलों दूर तक गॉव नजर नहीं आते फिर यह कैसा ढ़ोल…….?
(बर्फ का काला पहाड़ (परियों का निवास/हरपु को यहीं उड़ा ले गयी थी परियां)
मैंने टोर्च उठाई और कडाके की सर्दी के कारण रजाई छोड़ते ही पूरे बदन में ठंड की सिहरन दौड़ पड़ी! मैं कांपते हुए बाहर निकला.. बाहर घुप्प कोहरे में पूरी घाटी नहाई हुई थी! कानों को अब ढोल के शब्द साफ़ साफ़ सुनाई दे रहे थे ! कभी लग रहा था कि ढोल आटा पीक या काले पर्वत की ओर से बज रहा है! तो कभी बंदरपूंछ में स्थित काली पर्वत शिखर पर तो कभी स्वर्गारोहिणी की ओर! तो कभी ठीक मेरे पीछे मनिन्दा नदी के पार बुग्यालों में !….. मैं असमंजस में था कि आखिर यह अदृश्य ढ़ोल बज कहाँ रहा है! कुछ देर खड़ा रहने के बाद मुझे मानव प्रकृति अनुसार डर लगने लगा! मैं भागकर कमरे में घुसा रजाई ओड़ी तो देर तक ठंड की सिहरन से रजाई और मैं कांपते रहे! कब नींद आई पता तक न चला…!
अगली सुबह जब मैंने बंगले के चौकीदार चंदराम से जानकारी चाही तो पहले वह टालने लगे लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था। उनके पास वहां के भेडाल और पोर्टर हुक्का पीने के लिए बैठे हुए थे। जब वन रक्षक अमी चन्द राणा ने उन्हें उनकी भाषा में हरपु की कहानी को बताने की बात कही तो चंदराम बोल ही पड़े- साब…… मैं इसलिए नहीं बताता कि कहीं लोग ये न कहें कि पागल है कपोल कल्पित बातों से हमें बहलाने की कोशिश कर रहा है। मैंने कई बार लोगों से पूछा भी कि क्या तुमने भी ढोल की आवाज़ सुनी तब सबने मेरा मजाक ही बनाया। अब तक मेरे सहयोगी संजय चौहान, प्रशांत नैथानी, गौरव इष्ट्वाल भी चाय की चुश्कियाँ लेते पहुँच गए थे।
हरपु की जो कहानी सामने आई वह यह थी कि हरपु नामक बाजगी जोकि हर की दून सरहद से लगे ओसला गाँव का था, हर वर्ष भेडालों से ऊँन मांगने यहाँ आया करता था क्योंकि सारे भेडाल एक नियत तिथि पर ही भेड़ों के बाल काटा करते थे। जिसे स्थानीय भाषा में नुणाई पर्व कहा जाता है. उस वर्ष भी हरपु ढोल लेकर आया और नौबत बजाकर भेडालों के पुरखों का गुणगान करता रहा !
हंसी ठिठोली में भेडाल भी उस गरीब को कहने लगे जितना ढ़ोल बजायेगा उतना ज्यादा ऊँन तुझे देंगे. हरपु की आँखें ख़ुशी के मारे छलकने लगी क्योंकि वह ढ़ोल बजाता हुआ यह भी सोचता कि चलो इस बार कम से कम ज्यादा ऊँन तो मिलने वाली है जिस से वह अपने बच्चों के लिए ज्यादा कपडे बना पायेगा इस बार मेरे बच्चे ठंड से ठिठुरेंगे नहीं! (आज भी यहाँ खुद ऊँन से निर्मित कपडे ज्यादा पहने जाते हैं) वह ढोल सागर की धुन में ऐसे उलझा कि उसने अपना सारा ज्ञान उसी में झोंक दिया। कहा जाता है कि मात्रियों (पर्वत में निवास करने वाली अप्सराओं/परियों) को हरपु का ढोल इतना पसंद आया कि वे उसे ढोल सहित उड़ाकर बन्दरपूँछ पर्वत की काली चोटी पर ले गयी तब से हरपु का सिर्फ ढोल ही सुनाई देता है वह भी किसी-किसी को। इसीलिए हर-की-दून को यहाँ के स्थानीय लोग हरपु नाम से पुकारते हैं।
हम भाग्यशाली थे कि हमें हरपु के ढोल की नौबत सुनाई दी वरना हम भी इस कहानी से महफूज रह जाते। कहते हैं हरपु का ढ़ोल भी किसी भाग्यशाली को ही सुनाई देता है. मैंने सूर्य की किरणों के साथ सभी उतुंग शिखरों के रैबासी देवी देवताओं परियों अप्सराओं को नमस्कार किया. वह जमीन छुई जिसने हरपु जैसे ढ़ोल सागर के ज्ञाता को इस धरा में अमर बनाया. हरपु के लिए श्रधासुमन चढ़ाए एवं उनके वंशजों के हित की कामना की. यहाँ के हर शिला खंड के नीचे कोई न कोई कथा कहानी या किंवदंती छुपी हुई है शायद इसलिए इसे देव लोक या पृथ्वी का स्वर्ग कहा गया है। हर-की-दून का यह लेख बहुत विस्तृत हो जाएगा अगर मैं यहाँ की जानकारी देने लगूं। हरपु के जिन्दा देव लोक जाने की गवाह जहां बन्दरपूँछ के दायीं ओर की आटा पीक की पहाड़ियां हैं जिसके दूसरी ओर चीन का लाल साम्राज्य है वहीँ बायीं ओर पांडवों को जिन्दा स्वर्ग पहुंचाने की गवाह स्वर्गारोहिणी की पर्वत श्रृंखलाएं भी हैं।
बुग्याल धरा पर बिखरे प्रकृति के रत्न स्वरूपी सैकड़ों पुष्पों की प्रजातियाँ जिनमें नागछत्री, लेसर, फ़र, जयाण, ब्रह्मकमल, भेड-फूलुड़ी, भेड़गदा, जयरी, बुरांस, सिमरु, सफ़ेद कमल, विश्कंदारी, सुन्फुलुदी इत्यादि सैकड़ो पुष्प हैं जो नित देवताओं और प्रकृति का श्रृंगार कर पर्यटकों से कहते नजर आते हैं. ‘‘श्रद्धापूर्णरू सर्वधर्मारू मनोरथफलप्रदारू।श्रद्दयाम साध्यते सर्वश्रद्दया तुष्यते हरिरू‘‘।। अर्थात् श्रद्धा पूर्वक सभी धर्मों के आचरण करने वाले मनुष्यों को मनोरथ प्रदान हो,यही श्रद्धा सबके प्रेम में बसी हो तो उससे श्री हरि प्रसन्न रहते हैं.