सब कुछ खोने के बाद भी जीवन रुकता नहीं….!
मदमहेश्वर यात्रा वृत्त वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार डॉ. अरुण कुकसाल की कलम से।
14 जुलाई, 2018
..…..कनू चट्टी से चलते हुए किसी को भी बोतल में पानी भरने का ख्याल नहीं आया। अब न रास्ते में पानी के स्टैंड पोस्ट और न कहीं पर प्राकृतिक जल श्रोत्र दिखाई दे रहा है। अब जब पता है कि पानी कहीं है नहीं तो मन में पानी पीने की इच्छा और बलवती होगी ही। लिहाजा, चलते-चलते बारिश से बांज, बुरांस और कुछ पहचानी घास की भीगी पत्तियों को उनमें जमा पानी की बूदों के साथ चबाते हुए कुछ तो राहत मिल रही है। उमाशंकर और भूपेन्द्र को मैं ही भीगी पत्तियां दे रहा हूं। उनका क्या कुछ भी चबा लेंगे। आस-पास कई प्रकार के विषैले पौधें जो हैं। शुरुवाती रास्ते में ठीक-ठाक दूरी पर लोहे की आरामदायक बैंच का आनन्द मिला था। परन्तु कनू चट्टी के बाद वो भी नदारत हैं। दूरी जानने के लिए किमी. के पिलर लगाना जिम्मेदार लोग भूल गए या उन्हें यह आवश्यक नहीं लगा होगा। रास्ते में जगहों के नाम, महत्व, ऊंचाई और उपलब्ध सुविधाओं की जानकारी का कहीं नामोनिशान नहीं है। बस अंदाज चलते चलो, मंजिल तो आ ही जायेगी। अगर कोई बीमार पड़ जाय तो ईश्वर ही उसको बचा सकता है। पीछे छूट गए 30 किमी. तक तो कोई प्राथमिक इलाज भी संभव नहीं हैं। अव्यवस्थाओं का चरम देखना हो तो एकबार उत्तराखंड जरूर आइये। प्रकृति ने जितनी खूबसूरत जगहें यहां दी हैं, उतना ही कुरूप व्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार यहां का शासन-प्रशासन है।
शाम होने को है। रंग-बिरगीं पक्षियां दोपहर की बरसात के बाद अब बाहर निकल रही हैं। एक साथ कई प्रजाति की पक्षियों का जोर-शोर वाला कलरव इंगित करता है कि दिन की बारिश में उन्हें आपस में बातें करने का मौका नहीं मिला है। उमाशंकर का कहना है कि ‘कनू चट्टी में हमें बताया गया कि मध्यमहेश्वर 3 किमी. है, अब ये कैसे 3 किमी. हैं जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं’। ‘यहां के किमी. लम्बे होते हैं’, यह कहकर भूपेन्द्र मुस्कराता है। अचानक सामने की धार से कुछ आवाजें सुनाई दे रही हैं। मतलब अब हम अपनी मंजिल के पास हैं। तीखी चढ़ाई के बाद खुली धार है। ‘आप मध्यमहेश्वर पहुंच ही गए हैं। आपका स्वागत है।’ हमारे कहने से पहले उन दो सज्जनों में से एक ने बड़ी आत्मीयता से कहा है। लगा रास्ते की थकान को किसी ने प्यार से सहला दिया है। साथ चलने को हुए तो पता चला कि उन दो व्यक्तियों में एक मध्यमहेश्वर के मुख्य पुजारी और दूसरे उनके सहायक हैं। क्योंकि मंदिर के पास मोबाइल नेटवर्क नहीं आता है इसलिए वे वहां से आधा किमी, दूर यहां आये हैं।
अब हम मुख्य पुजारी और उनके सहायक के साथ मध्यमहेश्वर की ओर चल रहे हैं। यह सुखद संयोग है कि मध्यमहेश्वर के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां हमें मुख्य पुजारीजी स्वयं बता रहे हैं। उन्होने बताया कि पंच केदारों में मध्यमहेश्वर द्वितीय केदार है। यहां पर शिवजी के नाभि भाग के दर्षन होते हैं। शिव का मध्य भाग होने के कारण मध्यमहेश्वर कहा गया है। मध्यमहेश्वर शिव की प्रणयस्थली मानी जाती है। यहां पित्रों के पिण्डदान का परम महत्व है। मध्यमहेश्वर केदारनाथ से दक्षिण की ओर तीन योजन की दूरी पर है। समुद्रतल से मध्यमहेश्वर की ऊंचाई 11474 फीट है। यहां के पुजारी मूलरूप से बेलगांव (कर्नाटक) के जंगम (लिंगायत) जाति के शैव संप्रदाय के होते हैं। यह परम्परा है कि केदारनाथ, ऊखीमठ, गुप्तकाशी, मध्यमहेश्वर में कर्नाटक राज्य के लिंगायत समुदाय के लोग ही पुजारी बनाये जाते हैं। यद्यपि मध्यमहेश्वर के मुख्य पुजारीजी की पिछली तीन पीढ़ियां स्थाई रूप तौर पर ऊखीमठ में निवास कर रही हैं।
मघ्यमहेश्वर में पहुंचने का अहसास दौड़ते-भागते बच्चों ने कराया है। ‘आजकल गौंड़ार गांव से अपने मांजी-पिताजी और दादी-दादा के पास स्कूली बच्चे खूब आये हैं। यहां पर जो बसावत आप देख रहे हैं, सभी गौंडार गांव के पंवार लोग हैं। ये लोग मई से अक्टूबर तक मंदिर की पूजा-अर्चना में मदद के साथ यहां लाज, होटल, दुकानदारी और पशुपालन का काम करते हैं।’ पुजारीजी यह कह कर आगे बढ़ गए हैं। सीताराम बहुगुणा और जुगराणजी ने पहले पहुंच कर रहने-खाने की व्यवस्था कर ली है। सीताराम बताते है कि ‘यहां हम पौंछे (उधार) के यात्री हैं। याने, पहले कहीं और जगह रहने की व्यवस्था थी, लेकिन वहां खाने के इंतजाम में कुछ दिक्कतें थी। इस कारण वहां के व्यवस्थापक ने उधार स्वरूप हमारी यहां व्यवस्था कर दी है। हमें आपसी सामुदायिक सहयोग और मेल-मिलाप के दर्शन मध्यमहेश्वर भगवान से पहले ही हो गए हैं। ठीक सांय 7.30 बजे भगवान मध्यमहेश्वर की पूजा शुरू हुई। बाहरी यात्रियों में कुल मिला कर 10-12 होंगे, जिसमें 5 तो हम ही हैं। लगभग एक घंटे की श्रृगांरिक पूजा को देखने और अनुभूत करने की अभिव्यक्ति मध्यमहेश्वर मंदिर में आकर ही हो सकती है। इसको लिखा जाना पूजा-अर्चना के वक्त प्राप्त परम आनन्द को कमत्तर करना है।
15 जुलाई, 2018
सुबह बाहर आते ही आसमान देखा, बिल्कुल नीला और शान्त। बादलों के छितराये से कुछ टुकडे पर्वतों के आस-पास अंगड़ाई ले रहे हैं। मध्यमहेश्वर जगह एकदम मैदानी है। मंदिर के पास मुख्य पुजारी का निवास और उसके बगल में बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति का भवन है। मुख्य मंदिर के ठीक सामने रास्ते के आर-पार कच्चे-पक्के 5-7 भवन हैं। जिनके एक हिस्से में रसोई और बाकी हिस्से में यात्रियों के लिए रात्रि विश्राम के शैड हैं। बूढ़ामध्यमहेश्वर मंदिर यहां से 2 किमी. दूर पहाड़ के ठीक टॉप पर है। इसी इलाके के पांच ग्रामीण भी वहां जा रहे हैं। ये हमारे लिए सुविधाजनक हो गया है। मध्यमहेश्वर मंदिर के पीछे से ऊपर की पहाड़ी की ओर एक लम्बा वक्राकार रास्ता है। रास्ता क्या है लोगों के लगातार आने-जाने से हरे-भरे बुग्याल (घास के मैदान) के उधड़ने से उभर आयी एक लम्बी मिट्टी की रेखा है। शुरूवाती रास्ते में ही बांयी ओर कुछ पत्थरों से बनी एक खुली गुमटी में भैरव देवता का मंदिर है। कल हुई बारिश से जमीन एकदम गीली है। लिहाजा, कदम-कदम पर फिसलने का डर है। साथ चल रहे एक सज्जन बड़े खीज भरे लहजे़ में कह रहे हैं कि ‘हम लोगों ने कितना कहा कि इस रास्ते में खडंजा बिछा दो तो आने-जाने में दिक्कत नहीं होगी। साथ ही चलने वाले इधर-उधर न जाकर सीधे रास्ते चलेंगे। बिना रास्ते के लोग बिखरकर चलते हैं। जिससे पेड-पौंधों और जमीन ज्यादा टूटती है। आपने देखा है कि मध्यमहेश्वर का पैदल रास्ता पूरा पत्थरों से बना है। जिस कारण आने-जाने वाले सभी निर्धारित रास्ते पर ही चलते हैं। बेकार के शार्टकट आपको कहीं नहीं दिखे होगें। लेकिन यहां वन विभाग ने पर्यावरण बचाने की आड़ में खडंजा नहीं बिछने दिया है। अब यहां आकर वो खुद ही देख लें कि उनका पर्यावरण बिना रास्ते के ज्यादा खराब हो रहा है। अक्ल के अंधों को कौन समझाये’ ? ये बात बिल्कुल सही है कि मध्यमहेश्वर का पैदल रास्ता पूरी तरह से व्यवस्थित है, जिस कारण बेवजह बने शार्टकटों से होने वाले पर्यावरण नुकसान कहीं नजर नहीं आते हैं। परन्तु यहां तो लोगों के इधर-उधर चलने से कई लकीरें बुग्याल में खिंच गई हैं।
टॉप पर पहुंचे हैं। मखमली बुग्याल के ऊपर बिछी हरी चादर पर रंग-बिरगें फूलों की झालर को कोई जैसे अभी-अभी बना कर गया हो। ठीक बीच में एक छोटा कुंड (तालाब) है। कुंड के एक किनारे पत्थरों का समूह ही बूढ़ामध्यमहेश्वर मंदिर है। उसके ठीक पीछे विशाल चौखंम्बा (समुद्रतल से 7140 मीटर ऊंचाई) की चोटियां बूढ़ामध्यमहेश्वर मंदिर की सुरक्षा में एकदम तन के तैनात खडी़ हैं। चौखंम्बा और बूढ़ा केदार मंदिर की प्रतिछाया कुंड में दिखाई दे रही है। सर्-सर् (तेज) चलती हवाओं से कुंड के पानी के साथ प्रतिछाया भी हिलती-ढुलती है। मानो, बूढामध्यमहेश्वर मंदिर को चौखंम्बा की चोटियां झूले में झुला रही हों। बूढ़ामध्यमहेश्वर मंदिर के ठीक सामने के पर्वतों की चोटियों से निकलने वाली अनेकों श्वेत पानी की धारायें जैसे आपस में प्रतियोगिता कर रही हो कि कौन सबसे पहले नीचे जाकर मधु गंगा से मिल पाती है। पर्वतों के हरे आवरण के बीच-बीच में वे जलप्रपात चांदी की लड़ियों वाले हारों सी चमक रही हैं। मध्यमहेश्वर मंदिर की धार वाली पहाड़ी की तलहटी में नंदी कुंड है, वहीं से मधुगंगा जन्म लेती है। इसी रास्ते से केदारनाथ, तुंगनाथ और रुद्रनाथ की ओर परम्परागत रास्ता है। परन्तु उस रास्ते अनुभवी और प्रशिक्षित घुम्मकड़ ही जा सकते हैं। बुग्याल से जब कभी भी नीचे की ओर देखो तो ऊंचे-ऊंचे पेड़ भी बौने नजर आते हैं। बुग्याल में पेडों के उगने की मनाही है, वहां तो बस कुदरत ने फूलों को ही राज करने की इजाज़त दी हैं।
बूढ़ामध्यमहेश्वर से वापसी में भी सुबह वाले सज्जन वन विभाग पर अपना गुस्सा फिर निकालते जा रहे हैं। उनका कहना है कि पिछले साल हमने बूढ़ामध्यमहेश्वर मंदिर की मरम्मत करने का प्रयास किया तो वन विभाग ने आकर उसे तोड़ दिया। अपनी ही धरती पर हम बेगाने से होकर रहते हैं। पर क्या करें बेबस हैं। बूढ़ाकेदार से ठीक सुबह की पूजा ( 8.30 प्रातः) के समय हम वापस मध्यमहेश्वर मंदिर के प्रांगण में पहुंच चुके हैं। कत्यूरी शैली में बना मध्यमहेश्वर मंदिर परिसर में शिवजी के साथ पार्वती, गणेश, क्षेत्रपाल, द्वारपाल और गोपी-किशन की भी मूतियां हैं। मुख्य मंदिर के पीछे एक गोल विशाल चट्टान पर आधे-अधूरे कई विहारों में शिवलिंग बने हैं।
मध्यमहेश्वर में सारी अस्थाई बसावत गौंडार गांव के लोगों की है। यद्यपि यह पूरा क्षेत्र स्थानीय वन विभाग के अधीन आता है। कुल मिलाकर इस 15 परिवार यहां हैं। इसमें 8 परिवार यहां पर केवल पशुपालन का काम करते हैं। मुख्यतया ये दूध से घी बनाने का कार्य में लगे हैं। बाकी 7 परिवार पशुपालन के साथ यात्री लाज भी संचालित कर रहे हैं। सीताराम बहुगुणा का सुझाव है कि यहां की गायें मात्र जड़ी-बूटी वाली घासें ही खाती है। अतः उनके गोमूत्र को एकत्र किया जाय तो उत्तमकोटि के गोमूत्र उद्यम को विकसित किया जा सकता है। वैसे एक सीजन में सम्मलित रूप में लाखों रुपये का पहाड़ी घी का कारोबार ये पशुपालक कर लेते हैं।
स्कूली छुट्टी में मौज-मस्ती करने यहां आने वाले सभी 10-12 बच्चे चौक में एक बुर्जग दम्पत्ति के आस-पास खेल रहे हैं। बच्चों से पूछा कि तुम दिन-भर क्या करोगे, ‘हमन त दिन-भर अटगण च ( दौड़ना-भागना)’ एक बच्चा जोर से बोलता है और बाकी उसके सर्मथन हो-हो करके इधर-उधर भागते हैं। पता चला कि उन दम्पत्ति के दो जवान पुत्र थे। दोनों ही जून, 2013 की केदारनाथ आपदा में मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। उस समय की आपदा से 5 साल बाद तक स्थानीय लोग उभर नहीं पाये हैं। इन पंवार दम्पत्ति ने जो खोया उसे वापस लौटाना तो मध्यमहेश्वर भगवान के वश की बात भी नहीं है। परन्तु सब कुछ खोने के बाद भी जीवन रुकता नहीं है। जीवन अपनी स्वाभाविक गति ले ही लेता है। जीना इसी का नाम है। बच्चों की किलकारियों के साथ इन बुर्जग पति-पत्नी की खिलखिलाती हंसी तो यही सिखाती है।
यात्रा के साथी- भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा,
उमाशंकर नैनवाल और राकेश जुगराण।