उन्नत तकनीक व किसान की मेहनत ! 14 महीने के पेड़ दे रहे दुनिया का बेहतरीन सेब! लेकिन सवाल वही दूध पिए पडोसी …घर के रहे कढ़ाई चाट!
(मनोज इष्टवाल)
कृषि बागवानी या फिर शारीरिक श्रम की बात जब कभी भी उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में उठती है तब मुझे तमसा व यमुना के आर पास और बीच में घिरे रवाई, जौनपुर व जौनसार बावर के लोगों की वह बानगी नजर आने लगती हैं जहाँ छोड़े, लामण, जंगू-भाभी के सुरों में गूंजती घाटी में आज भी एक बंजर कहीं दिखने को नहीं मिलता! यह क्षेत्र उत्तराखंड का न सिर्फ सब्जी निर्यातक क्षेत्र है बल्कि यहाँ की फलपट्टियों से निकलने वाले फल देश के कोने-कोने तक पहुँचते हैं! जहाँ सेब व उन्नत सेब की बात होती है उसमें उत्तराखंड की नहीं बल्कि हिमाचल ब्रांडिंग की पेटियां सजती हैं! और उत्तराखंड के नाम से बिकने वाले सेब होता है दोयम दर्जे का! आखिर कारण क्या है? न विभाग सोचता और न हम ही! बागवानी करने वाले कृषकों को पूछो तो उनके मुंह से यही शब्द निकलते है:-
“दूध पिए पडोसी हम रहे कढ़ाई चाट! कोयल सेवक बनी बैठी है कौवे बने सम्राट!” इन शब्दों की सार्थकता के जवाब में मुझे जौनसार बावर की खत्त –कांडोई बरम का वह किस्सा याद आ जाता है जिसकी पटकथा आज से 14-15 माह पूर्व लिखी गयी थी! कृषि –बागवानी के क्षेत्र में प्रदेश सरकार की व्यापक सोच का इस से बड़ा पलीता और क्या हो गया है कि किसान की 80 प्रतिशत सब्सिडी का हक उसे नहीं बल्कि किसी अन्य ब्यक्ति को है! प्रकरण खत्त बरम के बुल्हाड़ गाँव का है जहाँ के धन सिंह रावत व उनके भतीजे प्रताप सिंह रावत ने अपने दो हेक्टेअर जमीन पर 2000 सेब की उन्नत किस्म “स्पर” के वृक्ष लगाए जिसकी प्रति वृक्ष कीमत 600 रूपये आंकी गयी इस हिसाब से उन्हें 12 लाख रूपये का ऋण आबंटन किया गया जिसमें उन्हें मात्र 20 पतिशत जमा करना था यानि उन्होंने दो लाख 40 हजार की राशि जमा की! प्रदेश सरकार से मिलने वाली 80 प्रतिशत सब्सिडी का नौ लाख 60 हजार तीसरी पार्टी चट कर गयी! और किसान के मुंह में सीधा सीधा ठेंगा! बागवान मालिक धन सिंह रावत बताते हैं कि उन्हें व उनके भतीजे को मिलने वाली सब्सिडी सुधीर चड्ढा नामक व्यक्ति को गयी जिसने उन्हें दो हजार वृक्ष उपलब्ध करवाए थे और तो और बगीचे की रेख-देख को मिलने वाले सालाना 60 हजार रूपये में भी उनके हिस्से में एक पैंसा नहीं है क्योंकि वह भी सुधीर चड्ढा नामक व्यक्ति के पास ही जा रहा है! ऐसे में उन्होंने राज्य सरकार की नेहत पर सवाल उठाते हुए बेहद थके स्वर में कहा है कि चलिए हम संयुक्त परिवार के होने के कारण इतने सामर्थवान थे कि इसकी 20 प्रतिशत राशि जुटा पाए ! क्या आम आदमी जिसकी सब्सिडी कोई और ब्यक्ति खाए जिसको सालाना बगीचे के रख-रखाव के लिए मिलने वाले 60 हजार रूपये पर भी दुसरे का हक अधिकार हो भला वह कृषक कैसे उभर पायेगा!
वहीँ उन्होंने कहा कि अब जबकि मात्र 14 माह में ही हमारी खून पसीने की कमाई फल देने लगी है व “स्पर” वैरायटी का यह उन्नत सेब एक एक पेड़ पर 2 से 5 किलो फल दे रहा है! यह पौधे विगत बर्ष अप्रैल माह में लगाये गए थे
! ऐसे में उसके लिए उत्तराखंड सरकार के पास या उनकी मंडियों के पास इतना कम रेट है कि क्या कहने ! वहां गधे-घोड़े का एक सा रेट होने से हमारे श्रम का वाजिफ दाम नहीं मिल रहा है! जहाँ देहरादून विकास नगर मंडी प्रति पेटी दाम 2200 रूपये लगा रही है वहीँ चंडीगढ़ व दिल्ली में इसका रेट 3500 रूपये प्रति पेटी मिल रहा है ऐसे में भला कृषक इसे उत्तराखंड में क्यों बेचेगा!
धन सिंह बताते हैं कि सेब की बागवानी शुरूआती दौर में उतनी ही मेहनत मांगती है जितना एक बच्चा पैदा होने के बाद मांगता है! सेब के लिए पानी बहुत जरुरी है जो जुटाना पहाड़ों में बहुत बड़ा धर्म संकट है! इसलिए रात को जब गाँव वाले सोये रहते हैं तब हमारा परिवार बगीचे में पानी देता है और आज हमने उस चुनौती का पहला फल पा लिया जिसके लिए हमने हाड-तोड़ मेहनत की थी! वे बताते हैं कि फल तो हमारे पेड़ों परमात्र ढाई महीने में ही आने शुरू हो गए थे लेकिन वह पूरी रंगत के साथ नहीं आये थे इसलिए हमने जानबूझकर उन्हें पनपने नहीं दिया इस बार अब 14 माह के पेड़ों के ये फल जरुर कहीं न कहीं आर्थिकी के बोझ को कम करेंगे! वे इस बात से बेहद नाखुश दिखे कि कृषक के नसीब में सिर्फ मेहनत है और सरकार की ओर से सब्सिडी की मलाई किसी और के नसीब में वह भी बैठे बिठाए!
ज्ञात हो कि जौनसार बावर में आज भी संयुक्त परिवार परम्परा है जिसे बड़े फक्र के साथ निभाया जाता है! धन सिंह रावत के एक भतीजे रतन सिंह रावत राजस्थान सरकार में इनकमटैक्स कमिश्नर हैं व प्रताप सिंह रावत उत्तराखंड में राजनीति करते हैं व भाजपा के कार्यकर्ता हैं! अत: बागवानी का पूरा जिम्मा ज्यादात्तर उनके ही कंधे पर होते है! वे बताते हैं कि चाहे कमिशनर साहब हो या नेता जी! वो जब भी गाँव रहते हैं बगीचे में हाड तोड़ मेहनत करते हैं! हमारी सोच है कि बागवानी सिर्फ मजदूरों के भरोसे रखनी ठीक नहीं है!
उनकी नाखुशी इस में भी झलकती है कि उन्हें मजबूरी में अच्छी पेटी खरीदने के लिए हिमाचल ब्रांड की पेटियां लेनी पड़ती हैं! यह पीड़ा सिर्फ उन्हीं की नहीं बल्कि तमसा यमुना घाटी के हर उस बागवान मालिक की है जिनका सेब बिकने के लिए जाता है! वह कहते हैं हम कर भी क्या सकते हैं लेकिन दिल को पीड़ा होती है जब उत्तराखंड के सेब में हिमाचल की ब्रांडिंग होती है क्योंकि हिमाचल में कमीशनखोर कम हैं इसीलिए वहां की पेटियां बेहद मजबूत होती हैं जबकि उत्तराखंड की सेब की पेटियों की क्व़ालिटी इतनी घटिया होती है कि उसमें सेब भरते ही वह दरकनी शुरू हो जाती हैं!
बहरहाल बुल्हाड के धन सिंह रावत की स्पर प्रजाति के इस सेब की चर्चा न सिर्फ उत्तराखंड में है बल्कि देश के पूरे सेब उत्पादकों में यह संदेश गया है कि मात्र 14 माह के पेड़ भला ऐसा चमत्कार कैसे कर सकते हैं जबकि यह टेक्नोलोजी इटली, फ़्रांस, नीदरलैंड जैसे देशो में है और वहां के पेड़ भी इतनी जल्दी नहीं बल्कि 16 से 18 माह के बीच इतने उन्नत फल देते हैं!