पिछला अंक- ग्वली बेतालधार की समैणा, बबला भ्याळ की आँछरी, लोधी रिखोला न नकधार के भूत लड़वा ब्राहमण। जाने कहाँ चले गए।
(पिछले अंक में अंत में आपने पढा कि “बलोड़ी सड़क पर पहुंचते ही वह पिठाई वाला लिफाफा याद आ गया। झट से खोलकर देखा तो कड़क पचास का नोट मुस्कराता हुआ मेरी आँखो का स्वागत करता दिखाई दिया। अहा मानों दुनिया की खुशी मिल गयी हो।”)
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 1995-96)
चाह तो मैं ये रहा था कि क्यों न अश्विनी कोटनाला जी के घर बडोली गाँव में भी एक चाय पी जाय इसीलिए कदम आगे बढाते हुए वहां तक पहुँच भी गया था ! सोचा था यहीं से नीचे पैदल मालई गाँव होता हुआ नीचे वाली सडक में कबरा गाँव के पास उतर जाउंगा! मालई गाँव याद आते ही मुझे इस गाँव का वह शख्स याद हो आया जिसे यहाँ एक कहावत में यह कहा जाता था कि “क्य छई रे तू मालई कु सी गमलू!” (क्या है तू मालई का सा गमलू)!
मालई (मालै) गाँव के गमलू पर बात आई तो उनका भी थोड़ा सा विस्तार दे दूँ! उनके बारे में यह कहावत थी कि अगर एक पूरी बारात के लिए भोजन पक्का है और उन्हें पंगत के साथ भोजन परोसते समय ये बोल दिया कि और खाओगे तो समझो जितना अन्न पका है वह उसे अकेले खा जायेंगे! वह इतने बड़े पेटू कहे जाते थे कि अगर किसी को अपने खेतों में साल भर का गोबर एक ही दिन में डलवाना है तो वे उस दिन उनकी खूब आवभगत करते और गमलू दिदा एक रात के अंदर वह सारा गोबर उनके खेतों तक पहुंचा देते! लोगों का मानना था कि उनके अंदर कुछ ऐसी असीम शक्तियाँ थी जिनसे वह यह काम लेते थे! अभी मैं यह सब सोच ही रहा था कि किस रास्ते जाऊं? मालई गाँव से या फिर सिरकोटखाल होकर! कि पीठ पीछे से एक अजीब सा हॉर्न बजाती टैक्सी एकेश्वर छोडती मेरी ओर बढ़ रही थी! बडोली की धार पार एकेश्वर बाजार का विस्तार था जो यहाँ से लगभग २ किमी. दूरी पर हुआ! स्थानीय लोग उसे इगासर नाम से जानते थे! अब दुबिधा यह थी कि कुण्डी जाऊं या पाबौं! टैक्सी के ब्रेक चिंघाड़े व ड्राईवर बोला सतपुली-सतपुली! मैं झट से गाडी में बैठा और गाडी सर्पाकार सडक पर इठलाती बलखाती सिरकोटखाल जा पहुंची! मैं यहीं इंटर कालेज के पास उतर गया! क्योंकि यही से पैदल रास्ता इडा गाँव के लिए जाता था! शाम ढलने की तैयारी पर दूर भैरों गढ़ी के पास सूर्यादेव अस्तांचल का सफर पूरा करने को आतुर थे! आसमान में विंटर लाइन सी रक्तिम किरणें यह आभास कराने को काफी थी कि अब काला मौसम यानी बरसात चौखट पर है! कदम ठिठके…! दो मन हुए! एक ने सोचा क्यों न बाबा मोहन सिंह नेगी (उत्तराखंडी) के गाँव बंठोली जाया जाय लेकिन फिर मन में आया उत्तराखंडी नेता जाने आज दो अभी दो उत्तराखंड राज दो की बात करते हुए सतपुली या पौड़ी न पहुंचे हों तो क्या होगा! दरअसल एक राज्य आन्दोलनकारी होने की पीड़ा उसके घर वाले ही जानते हैं कि क्या होती है! कभी अचानक दस आन्दोलनकारियों के लिए खाना बनाओ तो कभी पटवारी कानूनगो पहुँच गए तो मुश्किल! फिर मन आया कि तीरथ सिंह रावत भाई के सिरकोटगाँव जो दो कदम पर है वहीँ चल दूँ! पता किया तो पता चला- नेता जी आज शायद जहरीखाल लैंसडाउन हैं!
फिर आव देखा न ताव मुट्ठी पर थूक लगाया और चल दिया ईड़ा गाँव की ओर! यह वही ईडा गाँव हुआ जहाँ के सिपाही नेगी भवानी सिंह से तीलू रौतेली की मंगनी हुई थी और वे युद्ध में मारे गए थे! फिर ध्यान आया कि इसी इड़ा गाँव के एक बहुआयामी व्यक्तित्व दर्शन सिंह नेगी हुए जिन्होंने चौन्दकोट जनशक्ति मार्ग की नींव रखी थी! बस उनका नाम याद आया तो तब इस बात की चिंता न हुई कि रात किसका परिचय देकर कहाँ रुकूँ! इड़ा पहुँचते पहुँचते सूर्य देव ने मुझे गुड बाय कह दिया था! आषाढ़ क्या खत्म हुआ सावन की अँधेरी रात एकदम घुप्प होने लगी! मैंने ठाकुर दर्शन सिंह नेगी के बारे में पूछा तो किसी ने कहा – दर्शन सिंह नेगी नहीं शंकर सिंह नेगी! फिर अंगुली से बताया – ओ सामने क्वाठा (किला नुमा घर) है वहां चले जाओ ! वही हैं! खैर मैं वहां पहुंचा और अपना परिचय दिया तो वे असमंजस की स्थिति में थे कि इसे टालूँ तो कैसे टालूँ न टालूँ तो जाने क्या अनर्थ होता है! वे बोले- आप किन में से हों? मैं समझ गया कि ये पूछना क्या चाह रहे हैं! मैंने तुरंत बोल दिया – ब्राह्मण हूँ वह भी उच्च कुलीन! खैर अब शायद उन्हें इस बात की चिंता सताने लगी थी कि साग सब्जी की घर में ब्यवस्था है कि नहीं! उन्होंने अपनी श्रीमती जी को आवाज लगाईं जो गाय भैंस अंदर बाँध रही थी! बोले- पंडा जी, आये हैं साग सब्जी क्या होगी! उन्होंने कहा चने भिगो रखे हैं और आलू हैं! मैं बोला- आप ब्यर्थ चिंता न करें बस रात्री बिश्राम मिल जाय और थोड़ा सा आपके वंशजों की जानकारी तो मैं धन्य हो जाऊं! वो मुझे अपने उपरी मंजिल पर ले गए जहाँ झरोंकों से दूर नयार पार वीर भड भौं रिखोला व उनके पुत्र भड लोधी रिखोला की सियासत तल्ला बदलपुर के साम्राज्य के अँधेरे में चंद गाँवों के टिमटिमाते बल्ब ऐसे दिखाई दे रहे थे जैसे मुस्करा कर कह रहे हों ! आजा तेरा यहाँ भी स्वागत है!
खैर थोड़ी देर में हाथ पाँव धुलने के बाद चाय पहुँच गयी ! फिर मैंने जब अपने आने का मकसद बताया तो दुबली पतली काय के ठाकुर शंकर सिंह नेगी का सीना गर्व से चौड़ा होने लगा! उन्होंने बताया कि उनके वंशजों का एक ही मकसद था तलवार के दम पर गढ़वाल सीमा का विस्तार करना! आज भी मेरे देवता के थान में मेरे पुरखों की तलवार पड़ी है जिसकी हम पूजा करते हैं! मैंने भी फ़ौज में देश की सीमा की रक्षा की और अब सेवानिवृति में हूँ! मैं खुश हुआ कि जहाँ मुझे बहुत साड़ी जानकारी मिल सकती हैं मैं वहां ही बैठा हूँ! अब तक उनकी श्रीमती भी आकर बैठ गयी थी उन्होंने बेहद माधुर्य स्वर में बोला- भुलू, तुमरू गां कख होलो! (भाई आपका गाँव कहाँ होगा) ! मैंने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं पूर्वी नयार पार गाँव धारकोट का हूँ! वो बोल पड़ी वहां तो शायद जजमान लोग रहते हैं! मैंने- जवाब दिया – हाँ जी मेरा गाँव १२ जातियों का गाँव है! आप निश्चिन्त रहिये वहां पंडित भी रहते हैं!
बात आई गयी हो गयी लेकिन महिला के दिमाग में अगर शक की सुई घूमी तो घूमी! उन्हें मैं शायद पंडित नहीं लग रहा था इसलिए जाने कैसे उन्हें याद आया कि मेरे गाँव उनके गाँव रहने वाली एक महिला की बहन रहती है! वो झट से बिन हमें सूचना दिए तल्ला ख्वाल (निचले मोहल्ले) जा पहुंची! कुछ देर में उनके साथ एक सज्जन पहुंचे जिन्हें देखते हुए शंकर सिंह नेगी बोले- आओ सुखदेव ! नमस्कार हुआ और वो भी टाट खिसकाकर बैठ गए! अब वे पूछने लगे कि आप के गाँव में नेगी भी हैं! मैं बोला- हांजी, हमारे ख्वाल द्वार में ज्यादा नेगी ही हैं! फिर बोले कोई डबल सिंह नेगी भी जानते हैं आप! मैं बोला- हांजी हमारे बड़े भाई हैं! अच्छा तो क्या आप जानते हैं कि उनकी शादी कहाँ से हुई है! मैंने कहा गगवडा गाँव गगवाडस्यूं से ! उनकी श्रीमती अर्थात भाभी का नाम तो याद नहीं आ रहा लेकिन उनके भाई का नाम सुन्दी है! वो खुश हुए और बोले- डबल सिंह मेरे साढू भाई हैं! अब जब उन्हें तसल्ली हो गयी और शंकर सिंह जी व मुझे इस बात का इल्म तक नहीं हुआ कि मेरी पूरी जांच पड़ताल हो गयी तब खुद उन्ही की घर वाली ने भेद खोला- बोले आप नाराज मत होना ! मुझे लगा जाने कौन है कहाँ का है इसलिए पता करने गयी थी! शंकर सिंह नेगी भडक गए बोले- अरे, थे तो अपने ही गढ़वाली! अगर चोर भी होते तो क्या ले जाते छीनकर! छप्पन लाख की चौथाई..! तू भी…! खैर मुझे ख़ुशी हुई कि अब एक नहीं दो ठिकाने हैं मेरे पास! डबल सिंह भाई के साढू भाई बोले- मेरी घर वाली का नाम उषा नेगी है! शायद आपने देखा होगा उसे! मैंने कहा जरुर देखा होगा!
बातें गप्पों में कब रात्री बिश्राम तक पहुँच गयी पता भी नहीं चला! बात गोर्लों पर शुरू हुई तो उन्होंने जानकारी दी कि सिर्फ गोरला गुराड़ ही नहीं बल्कि यहाँ नीचे गाँव ग्वली भी उन्हीं का गाँव हुआ! यहाँ बेतालधार में अगर वह पूजा नहीं देते तो यह गाँव भुतवा हो जाते हैं! नीचे जो सड़क है उसके नीचे बबल्या भ्याल है ! बेहद खतरनाक जगह ! जहाँ हर साल पहले कोई न कोई गिरकर मरता था लेकिन अब साल-दर-साल सदियों से बेतालधार में समैणा की पूजा होती है इसलिए ऐसी घटनाएँ कम होती हैं!
धर्मानंद ध्यानी जी बीच में !
मैंने प्रश्न किया- यह समैणा क्या हुई! वे मुस्कराए और बोले- समैणा मरघट की मालिक होती है और भूत भी उसको देखकर डरते हैं! यहाँ बेतालधार से एक सुरंग सीधी बेताल ढन्ड जाती है जिसमें आज भी कोई वस्तु डालो तो सीधे नदी में पहुंचकर वहीँ मिलती है. आपको यकीन न हो तो किसी से भी पुछवा लेना! यह घटना आज से लगभग २३ साल पहले की मुझे अब तब याद आई जब स्टोरी टेलर की भूमिका में मुझे आज भतीजे ललित इष्टवाल की दुकान पर चमडल गाँव के धर्मानन्द ध्यानी जी टकराए! बीडी का कश सुलगाते वे अपनी ही रौ में थे! फौजी जीवन की पुरानी विस्मृतियों को अपनी बातों में तरोताजा करते हुए बोले- इष्टवाल जी! भूत..! अरे जब भूत सामने हो तो अच्छे अच्छों की पेशाब तर्र से पैजामे में ही हो जाती है! उस समय मैं फ़ौज से गाँव छुट्टी आया था! शिकार खेलना मेरा प्रिय सगल था! मैंने अपनी फौजी डांगरी डाली बन्दूक व कारतूस उठाये और शिकार की तलाश में निकल गया! मेरा एक भतीजा वह मांस खाता नहीं था लेकिन उसे जाने क्यों शिकार करते देखने का शौक था! वह भी साथ हो लिया! इस से पहले जाने कितनी बार मैं शिकार खेलने गया था! आसमान में पूरी चांदना थी! चांदना से पूरा क्षेत्र नहां रहा था ! दूर ग्वली गाँव के कुत्तों की डूबती-उंघती आवाज कभी कभार कानों को सुनाई दे रही थी! हाँ कभी कभार झाड़ियों को हिलाती तेज हवा यह जरुर कौतुहल पैदा कर रही थी कि कहीं जानवर तो नहीं! मुझे लगा आज शिकार इस रास्ते नहीं आएगा! हम दो खेत ऊपर जा पहुंचे तो देखा एक बड़ा सा भैंसा खेत में दौड़ते हुए आ जाता और फिर लोप हो जाता! यह उपक्रम लगातार चलता रहा ! मैंने अपने भतीजे से पूछा कि ये किसका भैंसा होगा तो वह बोला- शायद ग्वली गाँव वाले का है! वही भैंसा रखता है भैंस को बदिया कराने के लिए! हम निश्चित हो गये कि यह उसका भैंस है! मुझे लगा यहाँ ठहरना बेकार है क्योंकि इस भैंसे के कारण हमारा शिकार नहीं आएगा! मैं अपने भतीजे को अभी बोला भी नहीं था कि दस कदम आगे बढ़कर मैं खेत के किनारे से उपर चढने को तैयार होने लगा! यह तीखा टर्न था तो भतीजा अभी मुझ तक नहीं पहुंचा था! जब आगे देखा तो मेरे होश फाख्ता हो गए! फ़ौज में दुश्मन को देखकर कभी ऐसा डर नहीं लगा यह तो अजब गजब का था! सफेद कपड़ों में इतना लम्बा ब्यक्ति कोई खड़ा था कि चाहकर भी मैं उसका सर नहीं देखा पाया! घबराहट और डर से हाथ पाँव कम्पकम्पा गए! मैं तेजी से पीछे पलटा और भतीजे को घसीटता हुआ खेत के उपरी तरह आड़ लगाकर बैठ गया और उसे बोला- मेरी डांगरी पकड़कर रखना छोड़ना मत! उसे कुछ समझ में नहीं आया! अब तक मैं बन्दूक को कोक कर चुका था!मैंने सूना था कि बंदूक रहते भूत कोई नुक्सान नहीं कर सकता! बहुत इन्तजार करने के बाद जब उधर से कोई हलचल न हुई तो जेब टटोली! देखा बीडी माचिस भी आज घर छोड़ आया! तब तक हवा में लहराती एक आवाज आई! एक बीडी तो पिला दे!
अब होश मेरे क्या उड़ने थे भतीजा डर के मारे थर्र-थर्र कांपने लगा! समय लगभग सवा बारह के आस-पास रहा होगा! मैंने भतीजा का मुंह बंद करके फुसफुसाकर बोला – हमारे पास बन्दूक है वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता! तू आवाज मत निकालना उसे बोलते जाने दे! अब वह हमसे लगभग सौ गज दूरी पर बैठा हुआ हमें दिख रहा था लेकिन यह हद थी कि हम उसके चेहरे का अनुमान नहीं लगा पा रहे थे! वह बार बार यही दोहराता- बीड़ी तो पिला दे ! बीडी तो पिला दे! भतीजे ने मेरी डांगरी और कसकर पकड दी! लगभग पौने चार बजे के आस-पास वह उठा और ठहाका सा लगाता हुआ कुछ बडबडाया! मैंने देखा कि ऊपर धार में अब पौ फटने वाली है! मैंने बरबस अपनी रेडियम लगी घड़ी पर देखा! सुबह के चार बजने को १० मिनट बाकी रह गए थे! अब मैं समझ गया कि इसका समय पूरा हो गया है इसलिए इसे लौटना होगा! हम बैठते बैठे बन्दूक ताने गाँव की सरहद के लिए चल दिए और जैसे ही मुझे अपना गाँव दिखा वैसे ही अंदर साहस भर गया. बदन के रोंवें खड़े हो गए ! मैंने भतीजे को बोला- मुझे पकडे रखना क्योंकि मेरे पास बन्दूक है! छोड़ना मत! उसकी आवाज अब गुर्राहट जैसी हो गयी थी लेकिन उसकी और हमारी दूरी निश्चित थी लगभग सौ गज! मानो हम दोनों के मध्य कोई ऐसी अवश्य डोर है जो वह हम तक नहीं पहुँच पा रहा था! चार बजे ही होंगे कि वह एक लम्बी लांघ की तरह फिर हमारे आगे खड़ा हो गया और बोला- आज बच गए, आगे नहीं छोडूंगा! उसके बाद जो हुआ वह अकल्पनीय था! मुझे लगा जहाँ हम खड़े हैं वहां एक जलजला आया और हम उसके अंदर समा गए मानों पूरा पहाड़ टूट गया हो! लगा हमारे सामने की पूरी चट्टान भरभरा कर गिर पड़ी हो! सबसे बड़ी बात इस समय जो मेरे पक्ष में थी वह फ़ौज में की गयी नौकरी थी जिसने हमारे डर को खत्म किया हुआ था शायद यही कारण भी हुआ कि हम इस सबसे उभरने में कामयाब हुए! घर पहुँचते-पहुँचते हमारी हालात ऐसे थी कि काटो तो खून नहीं! लेकिन यह क्या हमारी नकधार गाँव वाली भाभी बोली- आ गए मौत के मुंह से बचकर! और हमें पूरा किस्सा जो हुआ वह सुना दिया! बोली- मैं सब देख रही थी और यही कारण भी था कि वह तुम तक नहीं पहुँच पाया! हाँ बीडी दे देता तो शायद तू बंदूक नीचे छोड़ देता! ध्यानी जी बोले- इष्टवाल जी! वो दिन और आज का दिन! शिकार तो दूर मैंने बन्दूक तक को हाथ नहीं लगाया! उस रात मुझे १०४ बुखार था जो उतरने का नाम नहीं लिया फिर सुबह बंधन वगैरह किया तब जाकर मैं ठीक हुआ! कहते हैं वह समैणा हो सकती है!
क्रमश:/-