ऋषिकेश से बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर अलकनंदा के बाएं तट पर स्थित श्रीनगर एक प्राचीन राजधानी नगर है। यहां उत्तराखंड में मध्यकाल में छाये रहे नाथ पंथ का सबसे प्रसिद्ध केंद्रीय तीर्थ स्थान गोरखनाथ गुफा है। गुफा के सम्मुख चौखंडी तथा भैरव मंदिर, इतिहास पुरातत्व की अमूल्य धरोहर के रूप में यहां आज भी दर्शनीय हैं। मूलतः तीन ओर से आवासीय कोठों से घिरा यह मठ श्रीनगर के अन्य मठों से कहीं अधिक एक समय प्रभावशाली संस्थान था। जिसके ‘विधाधारा जलधारा’ में बाहर से आये और श्रीनगर के बालक-बालिकाओं का गोरखनाथ महन्त के संरक्षण में कर्णछेदन का महत्वपूर्ण संस्कार संपन्न होता था। तब प्रत्येक पर्वतीय जन का कर्ण छेदन अनिवार्य संस्कार होता था।
श्रीनगर के प्रतापी राजा फतेहपतिशाह ने 1667 ई० में इस नाथ केंद्र को बगवान सहित भूमि दान कर देवलगढ़ के पीर नाथ को हिदायत दी थी कि वह इस केंद्र का उचित सम्मान करता रहे।
फतेपतिशाह को इस मठ के भैरव पर अपार श्रद्धा इस कारण भी हुई थी कि कुमाऊं के चंद राजा बाज बहादुर ने जब 1664 ई० में श्रीनगर पर हमला किया था तो यहां के आंधी तूफान के बवंडर से त्रस्त और भयभीत होकर नगर घेरा उठाकर वह सेना को वापस लेकर तत्काल लौट गया था। तब यह माना गया था कि नाथ की तंत्र शक्ति से ही ऐसी आंधी आई थी।
इस भैरव के यहां दो स्वरूप चौखम्बी में आज भी विद्यमान हैं- असितांग और चुनिया।
चुनिया मुनिया
भैरव को अब बटुक भैरव नाथ नाम से जाना जाता है-चौखम्बी के सामने दक्षिण दिशा में उन्नत पहाड़ी स्कंध पर यह मानव निर्मित गोरखनाथ गुफा है।
गोरखनाथ गुफा और चरण पादुका तथा ताड़पत्र पर अंकित कल्पद्रुम तंत्र-
सबसे पहले गुफा का चौशाल बरामदा जो ठोस पाषाण स्तंभों पर टिका है, मिलता है। इसके मध्य से प्रधान गुफा का प्रवेश द्वार है जिसमें लगभग 5 फुट तक की दूरी केवल उकडूं बैठकर ही अंदर जाने की सहजता बनती है, पर उसके बाद नौ फुट से भी अधिक लंबाई चौड़ाई वाली गोल घेरे की गुफा मिलती है जिसमें छह फुट लंबा आदमी भी सीधे खड़े हो सकता है। गुफा की दीवारें आश्चर्यजनक रूप से सपाट और हमवार हैं। गुफा की शीतलता अद्भुत है, कहीं भी गीला नहीं है, मध्य में एक पत्थर चौकी पर गोरखनाथ जी की 48 सेंटीमीटर ऊंची काले पत्थर की सर्वांग सुंदर मूर्ति विराजमान है।। मूर्ति के स्वरूप में नुकीली नाक, कानों के मुंदड़े, कंधे में कंथा मेषली, कोपीन धारण, गले में मालांकन, दाएं हाथ में रुद्राक्ष माला लेकर सीने में लगाने की भाव भंगिमा छवि और सिर पर कुलहा तथा बाहर से पगड़ी की पट्टियां गले में माला अंकन, सभी कुछ मूर्तिकार की कुशलता का परिचय देता है।
इस स्थान के अन्य लेखों से पता चलता है कि इसका किंचित जीर्णोद्धार अथवा उत्सव पूजन 1812 ई. गोरखा शासनकाल में हुआ था।
एटकिंसन के विवरण से अनुमान होता है कि इस गुफामठ के संचालक 1500 ई० के आसपास भोटिया सहजनाथ थे जिनके शिष्य भोलानाथ के चेले बालकनाथ को फतेपतिशाह ने बगवान वाला ताम्रपत्र दिया था।
एतिहासिक उल्लेख – बताते हैं कि जुमला डोटी का जो नेपाली राजा बद्रीनाथ
यात्रा पर आते समय राजधानी से बाहर यहां रुका था, वह यही मठ स्थान था। जहां फतेहपति बालक राजा ने श्वेत वस्त्रधारण कर इस राजा का स्वागत किया था और भक्ति भाव में आकर डोटी राजा ने उसे साक्षात बद्रीनाथ संज्ञा देते हुए उसके चरण छुए थे। बाद में डोटी लौटकर एक संधि मुलाकात में तब उसने कुमूं के राजा बाज बहादुर चंद को बताया था कि हम तुम तो मनुष्यों के राजा हैं जबकि गढ़वाल राजा तो देव राजा है, वह साक्षात बद्रीनाथ है। बाद में उसने अपनी पुत्री का डोला श्रीनगर भेजकर फतेहपतिशाह को दामाद बना लिया था।
फतेहपति शाह का गोरखनाथ गुफामठ के जोगी बालक नाथ को दिए दानपत्र-ताम्रपत्र का ऐतिहासिक दस्तावेज यहां अविकल दिया जा रहा है। एटकिंसन ने हिमालय गजेटियर में इस ताम्रपत्र की तिथि 1667 ई० से ही इस गुफा की सम्मानित मठ स्थापना तिथि मानी है।
ताम्रपत्र- श्री राम श्री
(वृत्ताकार सील के केंद्र में केवल ‘श्री’ है।) श्री के बाहर महाराजा पृथ्वीपतिशाह अंकित है। पुनः इसके बाहर वृत्ताकार में “बद्रीनाथो दिग्विजयते सर्वदा” लिखा है।
“श्री साके 1589 संवत 1724 ज्येष्ठ मासे दिन चार गते गुरुवासरे श्री नग्र सुभ स्थाने श्री महाराजाधिराज फतेपत्तिसाही देव ज्यूले भगा पत्र लेषी दिनु छ बालकनाथ जोगी को भागचंद वालो बगवान दीनु गढ़वाल संतान ले बालनाथ जोगी का संतान चेला चांठी कौ बगवान षाण देणो हर औताली नी करणो मुतसदी उले देवलगढ़ का पीर लषचोर नी करणो संसारी जोगी उले षचोर नी करणु पीर श्री. … प्र साषी गजैसिंह भण्डारी भीम सेण ठाकुर भगाते सीह भण्डारी संकर वषसी अर्जुन जसोत सींग नेगी लिषीतं बृहस्पति।”
इस महत्वपूर्ण ताम्रपत्र में अन्य जो नाम साक्षी और लेखक के तौर पर आये हैं
वे सभी इतिहास नायक हैं। गजे सिंह भंडारी मलेथा सुरग नायक माधो सिंह का ज्येष्ठ पुत्र था। भगोत सिंह सेनापति था। अर्जुन और जसोत सिंह नेगी श्रीनगर राजधानी क्षेत्र के दो नेगी टोलों के प्रधान थे। शंकर बख्शी को लखनऊ राजकीय अभिलेखागार रिकॉर्ड में पेमास्टर लिखा है। अतः बख्शी का यहां सेनापति आशय नहीं लगेगा। वस्तुतः वह देवेत्री (धर्माध्यक्ष) था। जिसने शंकरमठ (लक्ष्मीनारायण ठाकुरद्वारा) की स्थापना 1670 ई० में की थी। भीमसेन ठाकुर बर्खाल नागपुर का था। एक विशेष तथ्य पर ध्यान दिलाना है कि इस समय पृथ्वीपतिशाह अपने पोते बालक राजा फतेहपतिशाह का संरक्षक था और जीवित था। पृथ्वीपतिशाह ने अपने पुत्र मेदनीशाह के विद्रोह करने पर और दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह को औरंगजेब के सैनिकों द्वारा षड्यंत्र से पकड़वाने पर उसका अधिकार छीन कर उसके अल्पायु पुत्र फतेहपति को राजा का पद सौंप दिया था।
श्रीनगर के तत्कालीन तीन दर्शनीय केंद्र- निसंदेह केदार बद्री यात्रा पर जाने वाले मैदानी यात्री सबसे पहले श्रीनगर स्थित बोलांदा बद्रीनाथ अर्थात राजा का लालमोरी झरोखे के पास दर्शन करने जाते थे। दूसरा दर्शन बैरागी मठ के लक्ष्मी नारायण मंदिर का होता था। इसके बाद तीसरा दर्शन गोरखनाथ गुफा का होता था। गोरखनाथ गुफा का संबंध त्रियुगीनारायण तीर्थ से भी था। जिस प्रकार बिना त्रियुगीनारायण की गोरक्ष भूमि का प्रसाद लिए यात्री केदारनाथ नहीं जाते थे, उसी प्रकार गोरखनाथ गुफा श्रीनगर की धूनी से टीका लगाए बिना त्रियुगीकेदार को प्रस्थान नहीं करते थे।
उस समय का यात्रामार्ग ऋषिकेश से गंगा के बाएं तट से बढ़ते हुए देवप्रयाग और पश्चात श्रीनगर के बिल्वकेदार-बगड़वाल चौंरी (उफल्डा) से नीचे उतरकर फतेहपुर बसाकत में और वहां से बैरांगना-गोरखमठ से प्रसाद दर्शन लाभ कर शक्तिविहार (वर्तमान क्षेत्र) के अंदर से होकर राजमहल में राजा की लालमोरी झरोखे में विष्णु स्वरूप के दर्शन मानकर तब बद्रीनाथ मठ से आगे बढ़ते थे।
अतः गोरखमठ स्थापना/जीर्णोद्धार पुनः किया जाना चाहिए।
श्रीनगर राजधानी में दर्शन कर यात्री खोला पाणी से राजाज्ञा से देय सदावर्त ग्रहण कर देवलगढ तीर्थ-दुर्ग दर्शन कर डूंगरीपथ के पास नीचे उतरकर छातीखाल-खांकरा होकर होकर बदरी-केदार यात्रा मार्ग ग्रहण करते थे।