जब मौत ने मुझे जिंदगी बख्श दी….! जाने वो भेडाल था या साक्षात शिब…?
(मनोज इष्टवाल)
मन सच में आज तब रोमांचित हुआ जब मित्रों की हिमालय दिग्दर्शन यात्रा की रवानगी को प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सुबह 7:30 बजे रवानगी की झंडी दिखाई। सचमुच विगत बर्ष की भराडसर की यात्रा के बाद यह इस दल की दूसरी यात्रा ऐसे ट्रेक रुट पर शुरू होगी जहां बहुत गिने चुने ट्रेकर्स ही पहुंचते हैं। मेरे द्वारा बर्ष 2015 में केदारकांठा ट्रेक किया गया था। आज भी जेहन में जब वह बातें सामने आती हैं तो रूह कांप जाती है। और बाबा केदार के लिए मन आत्मा कर्म वचन सब नतमस्तक हो जाते हैं । मित्र यात्रा पूरी कर सुखद अनुभवों के साथ जब लौटेंगे तो उनके अनुभव हम सबके लिए बेहद फायदेमंद होंगे लेकिन मेरी यात्रा कैसी रही ये पढिये:-
ट्रैकिंग के लिए कोई भी ट्रेकर सबसे मुफीद समय अगस्त सितम्बर अक्तूबर ही मानता है, वैसे अक्सर अप्रैल माह से ही ट्रेकिंग का सुहाना सफ़र शुरू हो जाता है, मई जून जुलाई बरसात के कारण डिस्टर्ब करता है. मैं केदारकांठा की उस ट्रेक की बात कर रहा हूँ जिसमें मैं बेहद अनाड़ी घोड़े की तरह चलता गया और जब मौत हलक के बाहर निकलती दिखी तो सारे कुल देव देवियाँ सब मेरे मंत्रो में फूट पड़े. उत्तरकाशी जिले का ज्यादातर भूभाग यूँ तो ट्रेकर्स के लिए स्वर्ग समान है लेकिन आप देहरादून से नैनबाग, डामटा, लाखामंडल, नौगॉव, पुरोला होकर जब जरमोलाधार पहुँचते हैं तो घने चीड़ जंगल आपका मन मोह लेते हैं. बर्ष 2011 की बात होगी, जब मैं अपने एक रवाई के स्थानीय सहपाठी संजू को लेकर केदारकांठा के ट्रेक के लिए निकला. रात जरमोला धार स्थित फारेस्ट के खूबसूरत बंगले में गुजारने के बाद जब हम दुसरे दिन सुबह ट्रेक के लिए निकले तब हलकी बूंदा-बांदी थी, रुक्सेक बाँधा तो पता लगा बुधीसिंह का खच्चर भी केदारकांठा की तलहटी में बसे गॉव के नजदीक हिमाचली ठेकेदारों के सेब के बागीचे तक जा रहा है. फिर क्या था बुधिसिंह को मैंने एक विदेशी सिगरेट की डिब्बी दी और अपनी खूबसूरत सी तमलेट रूपी बोतल से चार बूंद विदेशी …हा हा हा फिर क्या था बस आगे आगे बुधिसिंह और उसका खच्चर पीछे पीछे मैं और संजू. सफ़र बेहद जटिल तो नहीं था लेकिन कठिन जरुर था..बरसात के कारण जोंक पैदा हो गई थी जो जूतों के अन्दर तक घुस गई जिन्हें बुधी सिंह का गीला नमक लगा कपड़ा झाड़ता रहा. पहले दिन केदारकांठा की तलहटी पर बसे गॉव रुके. नाम शायद कलाड था. वहां के सयाना के घर ठीक ठाक आव़ाभगत हुई उन्ही से पता लगा कि इसे केदारकान्ठा क्यूँ कहा जाता है. उन्होंने बताया कि पहले जगदगुरु शंकराचार्य यहीं केदारनाथ की स्थापना कर रहे थे लेकिन जब उन्हें हमारे गॉव की किसी गाय के रंभाने की आवाज सुनाई दी तब उन्होंने यहाँ का निर्माणकार्य आधा छोड़ दिया…खैर बहुत लंबा वृत्तांत है कभी फुर्सत में सुनाऊंगा. रातभर बारिश रही सुबह देखा तो चारों ओर बर्फ ही बर्फ …! संजू ने तो बहाना मार दिया कि उसके पेट में दर्द है. मैं समझ भी गया था लेकिन जानबूझकर नासमझ बन गया …खैर मुझे तो जाना ही था इसलिए कोई ऐसा व्यक्ति ढूँढने लगा जो मेरा मार्गदर्शक बने. कईयों ने कहा भी कि कल तक रुक जाओ शायद बर्फ कम हो जाय लेकिन मैं भला कहाँ मानने वाला था. आखिर एक सज्जन मिल ही गए जिनकी छानी गॉव से काफी दूर केदारकान्ठा वाले रास्ते पर थी उन्होंने भी कहा चिंता की बात नहीं वहां से बस एक फलांग दूर ही तो है केदारकांठा. साहाब वह फलांग आज भी याद आती है तो रूह कांपने लगती है. वो बेचारे तो अपनी छानी पहुंचकर तम्बाकू के सुट्टे मारने लगे मैं अपना कैमरा रुक्सेक संभालता हुआ केदारकांठा के एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ा जिसमें कमर कमर तक बर्फ गिरी थी. कहीं पर धंसता कहीं पर गिरता जाने कितने मील गुजर गए लेकिन केदार कांठा उतना ही दूर दीखता जितना गॉव से दिखाई दे रहा था था. लगभग सवा चार बजे सांयकाल में 12500 फिट की उंचाई पर आखिर केदारकांठा पहुँच ही गया. तमलेट का पानी तो पीना ही मुश्किल हो गया क्योंकि उसका ढक्कन ही नहीं खुल पाया अपनी दूसरी तमलेट से दो ढक्कन गटककर मैंने भोले शंकर का जैकारा लगाया और थोड़ी देर सुस्ताने लगा, शायद मुझे यह ख़ुशी थी कि मैंने दर्शन तो कर ही लिए ..लेकिन मुझे क्या पता था कि मुझे झपकी आ जायेगी. अचानक कानों में सूं-सूं की तेज आवाजें सुनाई दी.आँखें खुली तो चारों ओर बर्फीली हवाएं और घुप्प अँधेरा दिखाई दिया. किस रास्ते आया किस रास्ते जाऊं कुछ नहीं सुझाई दिया. एक तो अकेला ऊपर से ट्रेकिंग का पूरा सामान भी नहीं. हिम्मत जुटाकर में ढलान की ओर उतरने लगा लेकिन कुछ नहीं सूझ रहा था कि कहाँ जाऊं दौड़ता रहा बदहवास सा ..फिर अचानक एक पैर दुसरे पैर से टकराया और जाने कितनी दूर तक यूँही लुडकता रहा..सारे देवी देवता याद कर दिए. आखिर अपनी कुल देवी और नागराजा याद किये और कहा कि आज बचा ले फिर कभी ऐसी गलती नहीं करूँगा. फिर एक चमत्कार हुआ किसी ने मेरी टांग पकड़ी और ऊपर की ओर खींच ली. फिर एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर मारता हुआ बोला – कहाँ से आया रे बाबू, तुझे पता है कि तू कहाँ जा रहा है. अबे मैं नहीं पकड़ता तो जाने कई सौ फीट नीचे गहरी खाई में समा जाता. सच बतायुं तो मैं इतना डरा सहमा छोटे बच्चे के सामान जोर जोर से रोने लगा…उस व्यक्ति ने जिसकी भेषभूषा बिलकुल भेडालो (बकरी चुगाने वालों) की तरह थी ने चिलम निकाली और सुलगा ली फिर मुझे चुप कराया मुझे जरा भी आभास नहीं हो रहा था कि मुझे ठंड है फिर उसने कहा क्या तू नाग देवता का पुजारी है. मैने कहा – नाग देवता हमारे कुलदेवता हैं. तो वह बोला चिंता मत कर सब ठीक हो जाएगा. मैं तुझे सर बडियार ले चलता हूँ वहां तेरा रहने का बंदोबस्त हो जाएगा. मैंने कहा मैं तो…उसने कहा मुझे पता है कि तू कहाँ किस गॉव से आया. फिर मैं खामोशी से उसके साथ चलने लगा..करीब तीन घंटे चलने के बाद हम जंगल के करीब पहुँच गए जहाँ बर्फ तो थी लेकिन रास्ता दिखने लगा था दूर मद्धिम सी रौशनी टिमटिमाते जुगनू की तरह दिखाई दे रही थी. अब मुझे साहस आने लगा कि जिंदगी बच गई. आधा पौन घंटे के बाद हम गॉव के नजदीक थे. वह लगभग छ: फिट लंबा भेडाल रहा होगा गॉव दिखाते हुए बोला अच्छा बाबू अब तू जा..जयाडा जी तुझे लेने आ रहे हैं मंदिर के पास ..मैं चलूँ जाने मेरी भेड़ बकरियां जंगल में कहाँ होंगी. यह कहते ही वह अदृश्य हो गए और मैं अब और ज्यादा डर गया था तेजी से गॉव की और लपका तो देखा सचमुच एक व्यक्ति मुझे ही देख रहा था स्थानीय भाषा में आवाज देता बोला- कौन है भाई …मैंने कहा एक भूला भटका राहगीर..! आखिर उन्ही के यहाँ रात गुजारी वो भी बड़े मजे में…उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाया तो उन्होंने उठकर करछी निकाली उसमें जलते कोयले डाले और उसमें कुछ जड़ी बूटियाँ डाली जिसकी खूश्बू से पूरा कमरा महकने लगा फिर मन ही मन बुदबुदाए और अंत में बोले- जय कालिया नाग तेरा ही आसरा. सुबह जब उठा तो चटक धूप के साथ ढ़ोल की आवाज सुनाई दी. चाय लाते जयाडा जी की श्रीमती जी हंसती हुई बोली- साहब नींद ठीक आई थकान से..! मैंने हां में सिर हिलाया और पुछा यह ढोल क्यूँ बज रहा है. उन्होंने जवाब दिया -कालिया नाग की नौबत है बाबू..! बाहर आकर देखा तो बिसमित था घर के बिलकुल पास साथ धारे और बिशाल मंदिर जो कालिया नाग का था. यह उनकी जन्मस्थली थी. जय नाग देवता
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