हारमोनियम व लोक की कल्पना को लोकसंस्कृति में ढालने वाले विलक्षण मैनेजमेंट गुरु हैं संगीतकार राजेन्द्र चौहान!
(मनोज इष्टवाल)
बस वो मुलाक़ात क्या हुई किस्मत ही बदल गयी! यों तो बरसों से तालीम लेते-लेते एक शौक पूरा हो रहा था लेकिन जो टीस हृदय की थी उसे पूरा करने में लंबा इन्तजार करना पड़ा और जब इन्तजार खत्म हुआ तो सैकड़ों गीत व एल्बम्स बाजार में ऐसे छाए कि पलटने की फुर्सत नहीं मिली! बस कदम-दर-कदम बढ़ते ही चले गए! जिस समाज की लोक संस्कृति को हमने मजबूती से अपने कंधों पर धोया उस समाज ने भी हमें हाथों हाथ लिया और आज जो भी आपके सामने है वह आपका आंकलन है! ये शब्द मेरे नहीं बल्कि एक ऐसे व्यक्तित्व के हैं जिसने वही संघर्ष किया जो एक आम पहाड़ी करता है लेकिन उसकी मंजिल तो कुछ और थी और जब दृढ विश्वास के साथ उसने उसी मार्ग पर अपने को न्यौछावर कर दिया तो एक गुमनाम व्यक्ति संगीतकार राजेन्द्र चौहान के नाम से ऑडियो वीडियो इंडस्ट्री में सुर्ख़ियों के साथ प्रसिद्धी की हर शिखर पर खड़ा दिखाई दिया!
पौड़ी जनपद के कोटद्वार शहर में जन्मे सुप्रसिद्ध संगीतकार राजेन्द्र चौहान के वंशज कभी अल्मोड़ा जनपद के मासी चौखुटिया से सनेह भावर आकर बसे! प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा कोटद्वार से करने वाले राजेन्द्र चौहान बताते हैं कि वे सौभाग्यशाली हैं कि उन्होंने तिलुवा उस्ताद (तिलक राम) से संगीत की बारीकियां सीखी व वे तथा सुभाष पांडे उनके निकटतम शिष्य थे! सन १९८० में उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत हिमानी कला संगम से शुरू की जिनके सानिध्य में कोटद्वार में रामलीला हुई और उसमें जगदीश रावत जी ने उन पर विश्वास जताया! सिर्फ इसी से पेट भर जाता तो बड़ी बात थी! परिवार व पेट के खातिर उन्होंने सन १९९० में टी- सिरीज नॉएडा में नौकरी प्रारम्भ की व पांच साल तक उसमें यूनियन लीडर रहे!
(गायक अभिनेता व निर्देशक कविलास नेगी की शादी के दौरान कल्पनाजी व राजेन्द्र चौहान जी के साथ)
फिर वह दिन भी आया जब कोटद्वार की एक संगीत सभा में उनकी मुलाक़ात कल्पेश्वरी बिष्ट से हुई! कल्पेश्वरी बिष्ट के पिता उम्मेद सिंह बिष्ट मुंबई फिल्म इंडस्ट्री से जुडा हुआ एक बड़ा नाम उस दौर में कहा जा सकता है जब बहुत कम पहाड़ी इंडस्ट्री की दहलीज भी नहीं लांघ सकता! तब चौन्दकोट मवालस्यूं के धर्मा इष्टवाल (कुलाणी गाँव) व उम्मेद सिंह बिष्ट ( रणस्वा गाँव) के मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में काम करते थे! बस फिर वही हुआ आँख लड़ी प्यार बढा और कल्पेश्वरी बिष्ट, कल्पना चौहान होकर जन्म जन्मान्तर प्रेम विवाह बंधन में बंधकर राजेन्द्र चौहान के साथ दिल्ली आ गयी! कल्पना गायक थी और चाहती थी कि अपनी इस कसमसाहट को कैसे गढ़वाली समाज के सामने लाकर रखूं! दोनों ने संघर्ष के दो तीन साल जिए और इस दौर में जो रचनाएँ आई उन्हें आखिर वे मंच से ऑडियो वीडियो में उतारने में कामयाब हो गए!
(लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी जी के जन्मदिन के अवसर पर बाएं से दांये अनिल बिष्ट, मनोज इष्टवाल, कल्पना चौहान, राजेन्द्र चौहान व हीरा सिंह राणा जी)
सन १९९४ में ज्वान छवारा कैसेट से अपना सफर शुरू करने वाले इस जोड़े ने धीमी शुरूआत जरुर की लेकिन १९९५ में नीलम कैसेट कम्पनी से इनके धमाकेदार नम्बर आने शुरू हो गए. जिनमें “जय गंगा माँ” के साथ “सर्या गौं मा रेंगी बूढ़डी पर हळया नि मीलू, द्वी फांगी बये जांदी रूप्या क्वी कतगै भी लींदु” गीत भी शामिल था! बस यहीं से राजेन्द्र चौहान को लोगों के टेस्ट का अनुमान हो गया और उनके संगीत में कई कैसेट्स सजने लगे! यह जोड़ी सुपरहिट जोड़ी कहलाने लगी और एक दौर आया कि कल्पना चौहान गायिका से सुप्रसिद्ध गायिका और फिर लोकगायिका कहलाने लगी! यह वह दौर था जब गायिका के रूप में मीना राणा व अनुराधा निराला की तूती बोलती थी ऐसे में स्वाभाविक था कि नयी गायिका को इंडस्ट्री में संघर्ष करना पड़ता लेकिन इस जोड़ी की खूबी ये रही कि गायक और संगीतकार दोनों थे!
(बाएं से दाएं श्री सुबोध हटवाल, मनोज इष्टवाल, वसुंधरा नेगी, मदन डुकलान, राजेन्द्र चौहान व देवेश जोशी जी)
ज्वान छवारा कैसेट जेबीबी कम्पनी के सुधीर ग्वाड़ी के माध्यम से निकली फिर सूर्य अस्त-गढ़वाल मस्त गीत ने धमाकेदार शुरुआत दी! इस दौर में ही कल्पना व राजेन्द्र चौहान की जोड़ी ने ढोल-मसकबीन पर गढ़वाली लोकगीतों को उठाना शुरू कर दिया! जुलाई १९९७ में सुप्रसिद्ध गायक व निर्देशक अनिल बिष्ट व कल्पना चौहान ने “पाबौं बाजार” कैसेट को मार्केट में उतारा जिसके एक ही गीत “ऐ जा हे भनुमती पाबौं बाजारा” ने उस दौर में कई रिकॉर्ड तोड़ दिए और राजेन्द्र चौहान बतौर संगीतकार उंचाइयां छूने लगे!
ढोल दमौ का ऑडियो कैसेटों में प्रयोग के बारे में राजेन्द्र चौहान बताते हैं कि उन्होने “मैती” नामक ऑडियो अलबम में सबसे पहले इसका प्रयोग किया जिसमें मवालस्यूं के एक आवजी समाज के व्यक्ति को बतौर ढोल वादक स्टूडियो बुलाया गया था और फिर आये मशकबीन व ढोल पर – न बॉस घुघूती चैताकी, खुद लगीं च माँ मैताकि” सहित दर्जनों ऐसे गीत आये जिन्होंने बाजार में उस दौर में धमाल मचाया! फिर क्या था राजेद्र चौहान के संगीत में हर हफ्ते एक अलबम बाजार में उतरने लगा! कुमाऊँ में तो राजेन्द्र चौहान के संगीत से सजे लगभग एक हजार ऑडियो कैसेटस मार्केट में उतरे! जिन्हें उस दौर के सारे हिट गायक कलाकारों ने गाया था जब ऑडियो प्रचलन में थी!
संगीतकार राजेन्द्र चौहान ने दो गढ़वाली फीचर फिल्मों में भी संगीत दिया जिनमें एक “ब्वारी होत इनि” व दूसरी “सतमंगल्या” प्रमुख हैं! वहीँ दो वीडियो फिल्म “पतिव्रता रामी” व “भग्यान बेटी” भी इनके संगीत से सजी! सच कहें इन्होने जहाँ उस दौर में हाथ डाला वह मिटटी सोना बन गयी! एक दौर था कि नीलम कैसेट्स का नाम ही राजेन्द्र चौहान के बूते पर पूरे मार्केट में था!
(वर्तमान रोहित चौहान)
फिर वह दौर भी आया जब संगीतकार राजेन्द्र चौहान ने बेहद अनूठा प्रयोग उत्तराखंडी म्यूजिक इंडस्ट्री में करना प्रारम्भ कर दिया! इसकी शुरुआत उन्होंने अपने घर से की और अपने ग्यारह-बारह साल के बेटे रोहित चौहान को बालगीतों के मुखौटे के साथ बाजार में उतार दिया जिनमें “गोरी मुखड़ी सजीली, नाक माकि नथुली भली सजदा! गाळ माकू कालू-कालू तिल, मेरु दिल लीग्ये सर्या लूछीकी!”, !
(मास्टर रोहित चौहान)
“मेरी माँजी” नामक अलबम में तो रोहित ने ऐसे गीत गाये कि वह हर किसी का मुरीद बन गया! “ पहाड़ छुट्टी ग्ये..घरबार छुट्टी ग्ये” गीत की वेदना में जहाँ पलायन की आंधी को बखूबी उतारा गया वहीँ “मेरी पित्रुंकी बसई टीरी पाणी जुगता ह्व़े” गीत ने टिहरी वासियों की आँखें नम कर दी! और बचपन के नौनिहालों पर फिल्माया गया गीत- “पौड़ी का बाजार कमला न मार ढसका” जैसे गीत ने बालपन का नया अंदाज प्रस्तुत कर दिया!
संगीतकार राजेन्द्र चौहान ने कल्पना, रोहित या अनिल बिष्ट के सुरों को ही अपने संगीत से नहीं सजाया बल्कि गढ़वाल के सुप्रसिद्ध लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी की अलबम “हिवांली कांठी” को भी संगीतबद्ध किया! इसके अलावा गोपाल बाबू गोस्वामी के उस गीत को रमेश बाबू जोशी की आवाज में जीवंत किया जिसने अपने दौर में हर गढ़-कुमांऊ के वाशिंदे के कंठ खुलवा दिए! गीत “हाय तेरी रूमाला, गुलाबी मुखडी…!” गीत जब उनके संगीत में जीवंत होकर बाजार में आया तब इसे दुबारा से सतीश गढ़वाली ने भी अपना कंठ दिया! और तो और गायक व संगीतकार संतोष खेतवाल का गीत “मैं नि जान्यो नेपाला, राम्रो लागो ये गढ़वाल म” भी इन्हीं के संगीत से सजकर बाहर आया!
सच्चे मायने में गढ़वाल के लोक गायक के रूप में जाने गए स्व. चन्द्र सिंह राही के स्टेज शो को भी इन्होने अपने संगीत से सजाया और वह स्टेज शो “प्वां बागा रे” सुपरहिट हुआ! फिर भला जगदीश बकरोला जैसे कलाकार कैसे इनकी पहुँच से बाहर रहते!
सच कहूँ तो संगीतकार राजेन्द्र चौहान ने जितना समाज से कमाया उसे समाज को उसी हाथ से लौटाया भी! आप कहेंगे वो कैसे तो मैं कहूँगा वो ऐसे कि उन्होंने एक-एक करके उत्तराखंड के लोक समाज लोक संस्कृति की उन विभूतियों को मंच देना शुरू कर दिया जो हमें बर्षों पहले छोड़कर चले गए थे और वर्तमान समाज में उनकी उपस्थिति दर्ज नहीं हो पा रही थी! पेशावर काण्ड के वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को उन्होंने प्रवासी उत्तराखंडी समाज के सामने सन १९९० में जब नॉएडा में आयोजित एक कार्यक्रम में सजीव किया तब शुरूआती दौर में वहां लोग इसका महत्व समझने में नाकामयाब रहे लेकिन यही कार्यक्रम १९९१ से १९९७ तक एनसीआर नागरिकों के बीच सुपरहिट रहा जिसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री साहेब सिंह वर्मा आये और उसका परिणाम यह निकला कि उन्होंने दिल्ली साकेत के सर्वोदय विद्यालय का नाम बदलकर चन्द्र सिंह गढ़वाली रख दिया! यह सचमुच उत्तराखंडी समाज के लिए राजेन्द्र चौहान द्वारा की गयी अनूठी पहल कही जा सकती है!
राजेन्द्र चौहान रुके नहीं और आगे बढ़ते चले गए! कुमाऊँ के लोकगायक स्व. गोपाल बाबू गोस्वामी को भी उन्होंने मंचों पर जीवंत बनाना शुरू कर दिया! सन २०१६ में गोपाल बाबू गोस्वामी पर आयोजित कार्यक्रम अभूतपूर्व रहा! राजेन्द्र चौहान कौथीग यानि पहाड़ के मेलों/कौथीगों को प्रवास में क्यों लेकर गए इसके जवाब में वे मुस्कराकर बताते हैं- इष्टवाल जी, अक्सर तब मन उकता जाता था जब पता लगता था आज इगासर का मेला था, कल जणदा मुन्डनेश्वर, दनगल, गिंदी मेला या फिर डांडा नागर्जा इत्यादि! बस प्रवासी ठगा रह जाता था कि किस तरह पारिवारिक बोझ का खर्चा वहन कर कौथीगों में शिरकत करने पहुंचे! मुझे यह बात बड़ी अखरती थी कि जिस धरती ने हमें सब कुछ दिया हमने उसी को पीठ दिखानी शुरू कर दी है! बस यह विचार आया और सन २००४ में मैंने नॉएडा के सेक्टर २२ मैदान में कौथिग का आयोजन करना शुरू किया! जिसमें मुंबई इंडस्ट्री से रजा मुराद जैसे अभिनेता ने शिरकत की! यह इतना सफल रहा कि सन २०११ से हमने इसका नाम बदलकर महाकौथिग कर दिया! यह कार्यक्रम पहले हम दिल्ली एनसीआर इंदिरापुरम के स्वर्ण जयंती पार्क में तीन दिन का करते थे लेकिन भीड़ बढती गयी और हजारों हजार लोगों के लिए स्वर्ण जयंती पार्क छोटा पड़ने लगा! फिर इसे पांच दिवसीय किया और भीड़ का संतुलन न बिगड़े इसे स्वर्ण जयंती पार्क से रामलीला मैदान में ले आये और अब आलम यह है कि रामलीला मैदान में भी जगह कम पड़ने लग गयी है! इस महकौथीग में हमारी यही कोशिश होती है कि हम हर प्रवासी को पहाड़ जाने के लिए प्रेरित करने! उनमें ऐसे भाव जागृत करें ताकि उन्हें अपने खेत खलिहान गाँव परिवार समाज की खुद लगे और यकीनन यह प्रयास हमारा सफल भी हुआ! अब पहाड़ आने वालों की कुछ सालों से आमद बढ़ने लगी है शायद उसका बड़ा कारण यह भी है कि बच्चे अपने पैतृक गाँव के प्रति जागरूक हो गए हैं व वह उसे देखने में रूचि लेने लगे हैं!
संगीतकार राजेन्द्र चौहान ने पहाड़ की प्रतिभाओं को मंच देने के लिए “सुरताल संग्राम” नामक कार्यक्रम उत्तराखंड के १३ जिलों में चलाया जिसमें कई प्रतिभावान कलाकार चिन्हित हुए और आगे बढे! लेकिन एक वह भी वक्त आया जिसने मुट्ठी में बंद वक्त को रेत की तरह धीरे धीरे फिसलते देखा! मूलचंद फ्लाईओवर में ट्रक ने कल्पना चौहान को तब टक्कर मारी जब वह अपने भाई विजय बिष्ट के साथ स्कूटर में जा रही थी! कल्पना चौहान के दोनों पैर इस अक्सिडेंट में चले गए! वह वक्त याद आते ही राजेन्द्र चौहान की आँखें सजल हो गयी! रुमाल से चेहरा साफ़ करते हुए बोले- इष्टवाल जी, मैं माता मंगला का ऋणी हूँ कि उन्होंने मरी हुई कल्पना को जीवित कर दिया! अस्पताल में लोगों का तांता लगना शुरू हुआ ! पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक व हरीश रावत जी जैसे राजनैतिक पुरोधाओं ने अस्पताल आकर ही कुशल क्षेम नहीं पूछी बल्कि बराबर सम्पर्क में रहे! यह उन तमाम लोगों की दुआओं का ही असर रहा कि कल्पना को जिन्दगी मिल गयी! उनके पूरे इलाज पर लगभग ४० लाख रूपये खर्च आये! इन्फेक्शन रोकने के लिए वेक मासिन टेक्नोलोजी का प्रयोग किया गया! मात्र १७ घंटे में डेढ़ लाख का खर्चा आ गया था! ६ माह हॉस्पिटलाइज रहने के बाद जब वह स्वस्थ हुई तब सिद्धबली के महंत वर्तमान विधायक दलीप रावत ने हमें बुलाया और इसी आमन्त्रण के साथ माता मंगला व भोले जी महाराज का बर्षों बाद उत्तराखंड की धरती पर आगमन हुआ! फिर जेके फ़ार्म हाउस व सिद्धबली मन्दिर में गीतों की शुरुआत हुई!
कल्पना चौहान के स्वास्थ्य होने के बाद राजेन्द्र चौहान को लगा कि सचमुच एक विकलांग की जिन्दगी होती क्या होगी! कल्पना तो चल फिर सक रही है लेकिन उन विकलांगों का क्या जिनमें हुनर तो है लेकिन कौन सुनेगा किसकी सुनेगा वाले प्रश्न मुंह बाए खड़े हैं? उन्होंने सन २०१२ में विकलांगों की प्रतिभाओं का सर्वप्रथम कार्यक्रम कोटद्वार में आयोजित किया! एक नहीं कई प्रतिभावान विकलांगों की उन्होंने प्रतिभा संवारनी शुरू कर दी! फिर २०१३ में देहरादून, २०१४ में दिल्ली, २०१५ में गाजियाबाद और विगत बर्ष २०१७ में फिर देहरादून में उन्होंने गायन वादन व नाट्य कलाओं में प्रवीण विकलांगों के एक समूह की जो यादगार प्रस्तुती दी वह देखने योग्य थी! ज्ञात हो कि कल्पना चौहान के अक्सिडेंट के समय स्कूटर चला रहे उनके भाई विजय बिष्ट को भी अपना एक हाथ गंवाना पड़ा था लेकिन विजय एक मात्र ऐसा बिरला ओक्टोपैडिस्ट बन गए कि वह एक हाथ से ही बहुत बेहतरीन तरीके से ओक्टोपैड बजा लेते हैं! इस से बड़ी विकलांगता को चुनौती और क्या हो सकती है!
सच कहें तो हारमोनियम से संगीत की अ आ सीखने वाले संगीतकार राजेन्द्र चौहान को ऑडियो वीडियो की दुनिया के ज्यादात्तर लोग मैनेजमेंट गुरु मानते हैं क्योंकि आज तक उनका एक भी कार्यक्रम ऐसा नहीं रहा जो फ्लॉप रहा! वह भले से जानते हैं कि वर्तमान में किसी की जेब में हाथ डालकर पैंसा निकालना महाभारत है! बस एक फन है जिस से हर कोई खुद ही जेब में हाथ डालकर पैंसा निकालना शुरू कर देता है! यही काबिलियत राजेन्द्र चौहान को सबसे अलग बनाती है! निसंदेह यह ब्यक्ति फेस इन द क्राउड है और अब उन्होंने बड़े महानगरों के साथ-साथ उत्तराखंड की राजधानी देहरादून भी अपनी कर्मभूमि बना दी है! उम्मीद है यहाँ के लोक सांस्कृतिक माहौल की फिजा उनके आगमन के बाद हवाओं में लोक संस्कृति की खुशबु को और महकाने का काम करेगी!