शुक्र है कबीर ………..!
(कार्टूनिस्ट जागेश्वर जोशी की कलम से)
शुक्र है कबीर!! तुम सल्तनत युग में पैदा हुए। आज होते तो कोई नामी कटटरतावादी संगठन तुम्हारी जान का प्यासा होता. यह भी हो सकता था,कि तुम्हें जान से मार दिया जाता। अल्हा के फजल से तुम उस युग में पैदा हुए जब इस देश-दुनिया में मोनारकी(राजशाही) का युग था। खुदा-न-खास्ता तुम डेमोक्रसी के जमाने में ं पैदा हुए होते तो क्या होता? शायद तुम अपना इतना बेबाक ज्ञान व दर्शन नहीं पैदा कर सकते! तुम्हें किसी की खुशी और अपने स्वर्थ की भाषा लिखनी पड़ती क्योंकि कोई पुरस्कार तुम्हारी आंखों में होता। पर तुम तो ईमानदार रचनाधर्मी हो। सम्भवतः कोई लश्कर या तस्कर तुम्हें सूली में लटका जाता और इसकी जिम्मेदारी लेकर खुद को तीसमार खां व एक जुदा विचारधारा को हाईलाइट कर जाता और साबित करता कि दुनिया वालों मैं भी प्रासंगिक हूं या कोई चैनल सत्यवादी या मिथ्यावादीयों की चर्चा करा कर तुम्हारी उपलब्धियों की ऐसी तैसी कर देता। सोसियल मीडिया में कई पतित बुद्धिभक्षी गन्दी भाषा को स्तेमाल कर तुम्हारी लुटिया डुबो रहे होते। ओ माई गाड कि तुम आज की दुनिया में चर्चित नहीं हो। कुछ गन्दे कार्टून तुम पर भी बनते। स्वनामधन्य पांगा-पन्थी तुम्हारे नाम से कत्लोगारद कर भी शायद हाई लाइट हो रहे होते।
आज भी कुछ लोग आपका नकली जामा पहन बेहद शरीफ और भोल-भाले लोगों को उल्लू बना रहे हैं। जिसे छूने की होड़ मची है। चारों ओर चांदी कट रहीं है। देश का आध्यात्म ज्ञान ओर राजनीति इन्हीं लुटेरों की बदौलत चलता है कबीर साहब। इन लुटे-पिटे गरीबों का धन और ज्ञान पिपासा इन हाई-टैक लम्पट गुरूओं के आश्रम में दफन है। इनकम टैक्स वाले भी इन मासूमों पर सिकंजा नहीं डाल पा रहे हैं क्योंकि सूरत ही एैसी है!
अनपढ़ होने से आपकी सोच में मौलिकता है। पढते तो शायद पास होने के लाले पड़ जाते! क्योंकि आज की शिक्षा में मौलिक विचारो की आवश्यकता नहीं है। यहां तो 90 परसेंट से कम को कुत्ता भी नहीं पूछता। कुछ ठीक होते तो बी0टैक,फ्री-टैक करते होते। हो सकता कोई देशी-विदेशी कम्पनी आपके टेलेन्ट को हंट कर रहीं होती।
ये भी सम्भव है कि तुम जनवाद,यथार्थवाद या पूंजीवाद की संकरी गलियों के किसी कोठे पर आयातित मुजरों का रसास्वादन करते फिरते। डर यह भी है कोई साम्प्रदायिक या जातिवादी तत्व अपनी आस्था के कत्ल के प्रयास का आरोप लगा कर आपको मगहर भेज देता क्योंकि काशी तुम्हैं रास नहीं आती।
बड़े अफसोस की बात है जहां हर तरफ ज्ञान-विज्ञान विखरा है। हर बात कसौटियों में कसी जा रही है। वहीं पुरानी किताबों,खयालातों व सख्सियतो को अभिष्ट बना कर वैलक्वालिफाइड लोग विशेषकर अधुनिक दिखता युवा आपकी जान का प्यासा बन कर शायद आपको जेड प्लस सुविधा दिला देता। यह भी हो सकता था ,कोई युवातुर्क अपनी राजनीति चमकाने के लिए आमूलचूल परिवर्तन की बात कर किसी मैदान में तुम्हें घीसीट कर लाता अर तुम्हारे ज्ञान,वाणी व मुददों को हाई जैक कर तुम्हें भी किसी रालेगण सिद्धी में निर्वासित कर देता।
लगता है इस कथित तंत्र में ‘नालायकों’ की बात कर, चन्द चतुर अपना बर्चस्व स्थापित करते हैं मानवता व देश जाये भाड़ में।
जिस युग में नौकरी लगने तक ही युवा मेहनत करते हैं व सत्ता प्राप्त करने तक ही नेता ‘सेवा’ करते है और प्रप्ति के बाद कर्तब्य को स्वार्थ के विशाल सागर में विसर्जित कर देते हो। उस युग में जन्म लेने के कई खतरे हैं कबीर साहब। क्योंकि अब हर जगह लूट-तंत्र है। बस ही एक ही मंत्र है खाओ और खिलाओं। ईमानदार बुद्धिजीवी व बुद्धिभ्रष्ट हमशक्ल होने के कारण पहचाने नहीं जा पा रहे हैं। कुछ सत्ता में हैं और कुछ विपक्ष में है। विकास व उन्नति के नाम पर धरती को सीना चीर कर उसकी हड्डी- पसलियों से उंचे-2 प्रासाद बनाये जा रहे हैं। कला-भाषा-संस्कृति सब का बाजार सजा है। कुछ सजे-धजे लोग इन वस्तुओं को कास्मेटिक व एन्टिक पीस की भांति सजा कर सुसंस्कृत समाज का अभिन्न अंग बने है। कबीर तुम तो सजावट की भी वस्तु नहीं हो। वहां तो हैरीपाटर एक नेता की जिन्न पर लिखी किताब पर चर्चा चल रही है। हर तरफ बाजार ही बाजार है कबीर कहीं भी खड़ा नहीं दिखता। खड़ा भी होता तो कोई डेमोक्रेटिक बदमाश उसे टिकने कहां देता। आपके जमाने में सुल्तान जो खुदा का नुमायंदा होता था। उसका विवेक अन्तिम निर्णय देता था। किन्तु यहां तो अन्तिम निर्णायक जनता जनार्दन है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन शैतान तुम्हारे विचारों का बेड़ागर्क कर दे। आज तो ढाई आखर प्रेम को कोई नहीं पढता। यहां तो अक्ल के दुष्मनों ने बड़ी-2 घृणा,द्वेश,अवसाद,आगजनी व रक्तपाती ज्ञान की लाइब्रेरी बना रखी है। जिनमें ढेर सारे बकासुर,भस्मासुर अध्ययनशील हैं। कबीर आप ही ने तो कहा था।
उठा बबूला प्रेम का तिनका उड़ा आकाश.
तिनका तिनके से मिला तिनका तिनके पास.
भावार्थ जो भी मैं तो यही समझ पाया हूं-प्रेम के तिनके तो आकाश में गले मिल रहे हैं लेकिन घ्णा के शोले तो भारी होने से धरती पर गिरे-पड़ें हैं। जिनकी आग सर्वत्र धधक रही है। भस्मासुर नग्न-नृतन कर रहा है। रशिक थिरक रहे हैं। इज्जतदार सरक रहे हैं। अस्मत किसे नहीं है प्यारी। सत्य के पुजारी दानवों के सम्मुख खड़ हो कर उनकी बृद्धावली गा रहे हैं। अहिंसा डरपोकों के गले का हार बन फसीं है। ज्ञान का भंडार तो गहराइयों में दबा है।उपर तो बस धुंआ ही धुआं है। अब ज्ञान नहीं कौशल की जरूरत है।