Sunday, September 8, 2024
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वीर शिवाजी से पहले गढवाल नरेश ने मलयुद्ध में शाहजहाँ के सेनापति की कमर के दो टुकड़े किये थे!

(मनोज इष्टवाल)

फाइल फोटो- 16वीं सदी के युद्ध

सचमुच यह बेहद आश्चर्यजनक रहा है कि आजादी के इतने बर्षों तक हमें उन आक्रान्ताओं का इतिहास पढ़ाया जाता रहा है जिन्होंने सिर्फ लडाइयां लड़कर नहीं बल्कि धूर्ततापूर्वक न सिर्फ हिन्दुस्तान में राज किया बल्कि यहाँ की माँ बहनों की अस्मिता को तार-तार भी करते रहे! लेकिन यह कोई नहीं जानता कि शाहजहाँ के काल में उनका एक दशक हिन्दुओं के पराक्रम और गौरव गाथा के लिए जाना जाता रहा है! क्षत्रपति वीर शिवाजी व गढ़वाल नरेश पृथ्वीपति शाह ऐसे पराक्रमी राजा हुए जिन्होंने कभी मुगलों के आगे घुटने नहीं टेके! मुगलों के साथ मिलकर अपनों के ही विरुद्ध अगर खड़े हुए तो ऐसे ही हिन्दू जयचंद खड़े थे जिन्हें ईर्ष्या ने अंधा बनाया हुआ था उन्हीं जैसे जयचंद आज भी देश की अस्मिता को तार-तार करने वालों के पक्ष में बड़ी संख्या में रक्तबीज बनकर पूरे भारत बर्ष में फैले हैं लेकिन अभी – अभी जागे हिंदुत्व से घबराए ये लोग अपने बिलों में जाकर घुसे हुए हैं!

यह तो हम जानते ही हैं कि वीर शिवाजी को पकड़ने के लिए जब सन 1659 में आदिलशाही ने 10 लाख मुग़ल फ़ौज के साथ अपने अपने क्रूर और ताकतवर सेनापति अफजल खान को शिवाजी को पकड़ने अथवा मारने का काम सौंपा था। यह मुग़ल सेना इस दुराचारी के साथ जहाँ भी मंदिर मिलते सबको तोड़ती,नरसंहार करती, लूटपाट करती, महिलाओं का शीलभंग( बलात्कार ) करते हुए आगे बढ़ती रही।
शिवाजी को प्रत्येक घटना की जानकारी मिल रही थी। आगे बढ़ते हुए उसने तुलजापुर में शिवाजी की कुलदेवी माँ तुलजा भवानी का मंदिर भी तोड़ दिया,शिवा तब भी मौन रहे।पंढरपुर के मंदिरों में भी लूटपाट करते हुए उन्हें नष्ट कर दिया, वीर शिवा जी तब भी मौन रहे, क्योकि वह किसी भी प्रयत्न से शिवा को अपने अनुसार युद्ध मैदान में लाना चाहता था जहाँ उसकी विजय हो।।
लेकिन उसके सभी प्रयत्न विफल रहे।

उसने शिवाजी को ” पहाड़ी चूहा ” डरपोकऔर न जाने क्या-क्या कहा।लेकिन शिवा मौन रहकर अपनी योजना पर कार्य करते रहे! वीर शिवाजी आखिरकार प्रतापगढ़ के किले में पहुँच गए , जो की चहुँओर पहाड़ और जंगलों से घिरा हुआ था और नजदीक में एक समतल मैदान था, जहाँ पर अफजल शिवा को लड़ने हेतु बुलाना चाहता था। जब उसके सारे प्रयास व्यर्थ गए तब अफजलखान ने कृष्णा जी नामक अपना दूत शिवा के पास भेजा! वीर शिवाजी ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया। जिनसे वे बातों ही बातों में जान गए कि अफजलखान वार्ता के बहाने उन्हें मारना चाहता है, शिवाजी ने भी चाल चलते हुए उसी की तरह बनने का नाटक किया,अपनी दाढ़ी बढ़ाई, मुग़ल वेशभूषा धारण करने लगे……सामान्य मराठा पगड़ी की जगह नई टोपी नुमा पगड़ी पहनने लगे।

आख़िरकार 10 नवंबर 1659 का दिन तय किया गया, अफजल से मिलने के लिए एक शर्त के साथ की हमारी वार्ता के दौरान कोई सैनिक नहीं होगा। अफजल खान ने शर्त मान ली और एक मैदान में पंडाल में शिवा और अफजल की मुलाकात हुई! शिवा को अफजल के इरादे पता थे इसलिए शिवा तैयार होकर ही आए थे।पूर्णतः मुग़ल वेशभूषा में,लेकिन अपनी पगड़ी ने नीचे कवच पहनकर.और हाथों में कलावा के नीचे बघनखा पहनकर।
क्षत्रपति वीर शिवा जी, अफजलखान से गले मिलने के लिए बढ़े तो अफजलखान ने गले मिलने के बहाने उनके सिर पर कटार का वार किया,जो कि टोपीनुमा पगढ़ी में पहने हुए कवच के कारण व्यर्थ हो गया। अफजलखान ने पुनः अपने खंजर से वीर शिवाजी की पीठ पर वार करना चाहा लेकिन वह कामयाब नहीं हो पाया क्योंकि इतनी देर में शिवाजी ने बघनख से उसका पेट चीर कर मार डाला। आदिलशाही का सबसे बड़ा और वीर सेनापति मारा जा चुका था , मुग़ल सेना तहस नहस हो गई।

यह घटना तो हम सब इसलिए पढ़ चुके हैं क्योंकि यह मराठों की वीरता का वह अध्याय है जिसे वे दर्ज करते नहीं भूले और इस जाति ने अपने इतिहास को बनाए रखने के लिए हर काल में भारतीय दूषित राजनीति में अपने समाज व धर्म परायणता को समाप्त नहीं होने दिया लेकिन हम गढ़वाली यहाँ पिछड़ गए क्योंकि वीर शिवाजी से पहले ही हमारे राजा पृथ्वीपतिशाह यह कारनामा कर चुके थे जिन्होंने शाहजहाँ के सबसे ताकतवर व खूंखार सेनापति रहे मिर्जा मुग़ल खलीलुल्ला खां को मल युद्ध में ही मार डाला था!

यह घटना सन 1654-55 में उस दौर की है जब शाहजहाँ अपने मुग़ल राज्य के विस्तारीकरण को बढ़ावा दे रहा था! ऐसे में क्या हिमाचल और क्या कुमांऊ दोनों ही राजाओं ने मुग़ल राजा शाहजहाँ की सेवाओं को अपनाना शुरू कर दिया था! एकमात्र गढवाल राजा ही ऐसा था जिसने मुगलों के शरणागत होने से साफ़ इनकार कर दिया था! ऐसे में शिरमौर के राजा मान्धाता प्रकाश के लिए यह अच्छा मौक़ा था कि वह अपनी दुश्मनी गढवाल नरेश से दूर कर माल की दून (देहरादून) पर कब्जा कर उसे हस्तगत कर ले!

इसी के तहत सिरमौर के राजा मान्धाता प्रकाश व कुमाऊं के राजा बाजबहादुर चंद ने मिलकर गढ़वाल राज्य के बंटवारे की पैरवी मुगल दरवार में की! तब गढ़वाल राज्य का विस्तार सुदूर सहारनपुर, बिजनौर तक था! और यह गढ़वाल का स्वर्णकाल कहा जाता था क्योंकि उसके पास वीर भड लोधी रिखोला व सेनापति माधौ सिंह भंडारी जैसे योद्धा थे जिन्होंने द्वापा तिब्बत तक इस राज्य का सीमाविस्तार कर सिरमौर राजा से जौनसार बावर क्षेत्र ही नहीं बल्कि फते पर्वत शिलाई से लेकर हाट्काली तक अपना राज्य विस्तार कर लिया था! बाजबहादुर चंद से पूर्व कुमाऊं का राजा लक्ष्मी चंद आठ बार नजीबाबाद किले पर आक्रमण कर मुंह की खा चुका था!

सन 1653 में जब शाहजहाँ ने गढ़नरेश के राज्य बंटवारे की बात कही तब पृथ्वीपति शाह ने इसे अपना आंतरिक मामला कहकर उनसे उनके पड़ोसियों के साथ निजी मामलों में दखल न देने की बात कही! यह बात शाहजहाँ को नागवार गुजरी और उसने कांगड़ा के फौजदार नजाबतखां को नौ लाख मुगल सेना के साथ सिरमौर नरेश मान्धाता प्रकाश के साथ गढ़वाल पर आक्रमण करने का आदेश दिया! यह काल रानी कर्णावती का काल कहा जाता है! यहाँ भ्रांतियां यह है कि मलेथा (जौनसार) का नंतराम नेगी तब सिरमौरी राजा के अधीन था जबकि ऐसा नहीं था! क्योंकि तब यह क्षेत्र गढ़वाल राजा के अधीन बताया जाता है! यह भी कहा जाता है कि सिरमौर-बिशेहर युद्ध में गढ़वाल सेनापति माधौ सिंह भंडारी को बेहद चालाकी से मार डाला गया था व इस युद्ध में लोधी रिखोला नेगी के गम्भीर घायल होने के बाद मलेथा के उन्हीं के पुत्र नंतराम नेगी ने तब नजाबत खान को उसी के कैंप में जाकर मार दिया था जिससे सेना में भगदड़ मची व नौ लाख मुग़ल सेना तित्तर-बित्तर हो गई व माल की दून पर वह अधिकार नहीं कर पाये!

शाहजहाँ इससे बड़ा क्रोधित हुआ और उसने गढ़वाल राज्य की घेराबन्धी के लिये तीन ओर से आक्रमण करने की योजना बनाई! कुमाऊं से बाजबहादुर चंद को नजीबाबाद से बढ़कर हरिद्वार की ओर व बिशाल मुग़ल सेना के साथ अपने सेनापति मिर्जा मुग़ल खलीलुल्ला खां को सहारनपुर के रास्ते सिरमौर राजा मान्धाता प्रकाश के साथ देहरादून होकर गढ़वाल पर आक्रमण को भेजा! तीन तरफ़ा इस घेराबंदी ने जहाँ गढ़वाल राजा का राज्य विस्तार क्षेत्र सहारनपुर व बिजनौर क्षेत्र से घटाकर अब गंगा आर क्षेत्र व यमुना आर क्षेत्र तक सीमित कर दिया था वहीँ माल की दून क्षेत्र भी गढवाल नरेश से छिन गया था! फिर भी यह सेना पहाड़ में प्रवेश नही कर पाई! सन 1654 में छिड़ा यह युद्ध 1655 में इस सहमति के साथ समाप्त हुआ कि दोनों ओर से जो सबसे ताकतवर व्यक्ति हो वह मल युद्ध में मुकाबला करे! राजा पृथ्वीपति शाह ने मिर्जा मुग़ल खलीलुल्ला खां माल की दून में मल युद्ध को ललकारा और इस भयंकर युद्ध में न सिर्फ उसकी दांयीं भुजा उखाड़कर अलग फैंक दी बल्कि अपनी जांघ में रखकर उसकी कमर तोड़ दी! राजा का यह पराक्रम देख चारों ओर जय घोष हुआ और ये आक्रान्ता यहाँ से जान बचाकर भागे! भले ही इसके पश्चात गढ़वाल नरेश का बड़ा मैदानी भाग मुगल सेना ने हस्तगत कर लिया लेकिन कुमाऊं के राजा बाजबहादुर चंद व सिरमौर के राजा मान्धाता के हाथ कुछ भी न लगा जिसका उन्हें जिन्दगी भर बाद में पछतावा रहा क्योंकि अब मुगलों की अति उनके राज्य में शुरू हो गयी थी!

यह सब हम में से कितने लोग जानते हैं यह कहना सम्भव नहीं है क्योंकि न कभी यह सब हमें ऐतिआसिक पुस्तकों में पढ़ाया गया और न ही लिखा गया क्योंकि हिंदुत्व का पाठ पढ़ाने वाली ऐसी कोई सरकार अभी तक आई ही नहीं जो हमें अपना इतिहास बता सके! लेकिन इसे पढने के लिए आपको जादूनाथ सरकार की पुस्तक “HISTORY ऑफ़ AURANGJEB” पढनी पड़ेगी या फिर निकोलस मनूची, सिरमौर गजेटियर, इलियट तथा डासन का दृष्टतब्य!

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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