Friday, November 22, 2024
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वाह कुसुम…फिर कमाल का अभिनय! “”जिस लाहौर नी देख्या ओ जम्याई नई..”

(मनोज इष्टवाल)

संभव नाट्य मंच ने जब टाउनहाल में असगर वजाहत द्वारा लिखित और अभिषेक मेंदोला द्वारा निर्देशित नाटक “जिस लाहौर नी देख्या ओ जम्याई नई.. “ का प्रस्तुतिकरण किया तो मन उस प्रेम में आत्मविभोर हो गया जो भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौर में नफरतों के बीज में प्यार का अंकुर पनपाकर हिन्दू मुस्लिम भाई चारे की एक मिशाल के तौर पर देखा जा सकता है! खच्चाखच भरे टाउन हाल में इस प्रस्तुती को देखने के लिए जाने कितने समालोचक, आलोचक व दर्शक बैठे रहे होंगे जिनकी तालियों की गूँज हर दृश्यांकन के साथ उभरती और शालीनता के साथ बंद भी हो जाती! नाटक में जहाँ एक मात्र हिन्दू बुजुर्ग महिला थी वहीँ 13 मुस्लिम किरदार लेकिन पूरे नाटक में सिर्फ एक मुस्लिम व्यक्ति व 23 हिन्दू इन किरदारों को निभा रहे थे! वाह…सचमुच मजा आ गया!
कार्यक्रम से पूर्व मेयर सुनील उनियाल गामा, वरिष्ठ रंगकर्मी गजेन्द्र वर्मा, एसपी ममगाईं, गीता गैरोला, बलराज नेगी और अनुज जोशी ने दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया।

निर्देशक अभिषेक मैंदोला की मेहनत का ही यह प्रतिफल है कि सारी डायलॉग डिलीवरी पंजाबी व उर्दू अल्फाजों से भरी हुई थी और इन कलाकारों में एक भी ऐसा नहीं था जिसकी भाषा में ये शब्द शामिल हों! हो सकता है पहलवान की भूमिका निभा रहे राहत खान के पास उर्दू अल्फाज हों लेकिन बाकी सबने तो निशब्द कर दिया! इतने लम्बे लम्बे डायलॉग बिना पौज के मंच पर कह पाना भला कहाँ सम्भव होता है! उर्दू व पंजाबी अल्फाजों का ऐसा मिश्रण असगर वजाहत जैसा ही व्यक्ति कर सकता था जिसने यह पटकथा लिखी है! सबसे छोटे कलाकार के रूप में अभिमन्यु मैंदोला की यह पारी की शुरुआत कही जा सकती है जो अपनी माँ कुसुम पन्त व पिता अभिषेक मैंदोला की नाट्य सम्भावनाओं को आगे ले जाने के लिए आतुर दीखता है!

रतन की माँ (बुढ़िया) के अभिनय में कुसुम ने फिर से कमाल कर दिया! यह उसका मैंने तीसरा नाटक देखा है! आम रूप से जब भी कुसुम पन्त से मुलाक़ात होती है तो उसका स्नेहिल व्यवहार कभी यह जताता ही नहीं है कि वह रंगमंच की इतनी मंझी हुई अदाकारा होंगी लेकिन जब वह रंगमंच पर होती है तो सबका क्रेडिट खुद ले जाती है! आज भी बड़े-बड़े फ्रेम के नजरी चश्मों में जब वह दृश्य पटल पर उभरी तो बुढापे में घुटनों में होता दर्द, चाल में वही 70-75 बर्ष की थकावट, कम्पकम्पाती अँगुलियों व हाथों में ब्लडसर्कुलेशन की कमी, आवाज में बुलंदी लेकिन कंपकपाहट, डायलॉग डिलीवरी के साथ चेहरे पर उभरते भाव में पीढ़ियों का दर्द..! सचमुच हर पल हर क्षण जब भी दृश्य पटल के बदलाव के साथ रंगमंच पर आई तो मुंह से बिना वाह निकले रहा नहीं गया! शायर की भूमिका में कमल पाठक ने भी अभिनय को बड़ी संजीदगी से निभाया! मुझे लगता है तन्नो की भूमिका में आरती शाह के चेहरे के हाव-भाव व डायलॉग भी बेहतरीन थे! मैं टाउन हाल की प्रथम पंक्ति में बैठा हुआ ऐसा समीक्षक या समालोचक कहा जा सकता हूँ जो खूबियों की जगह कमियों का बखान ज्यादा करता है! यकीन मानिए मंच सज्जा ने एक बार भी आपकी निगाह को मंच से इधर-उधर उपर नीचे झाँकने की इजाजत नहीं दी होगी क्योंकि ब्रेक को कवर करते हेमा पन्त, सतीश धौलाखंडी, सोनिया, संजय गैरोला, अभिमन्यु मैंदोला के सुरों ने आपको भटकने का समय ही नहीं दिया!

नाटक की पटकथा में असगर वजाहत ने विभाजन के उस दौर को यादगार बना दिया जब फूट डालो और शासन करो की नीति में अंग्रेजों ने जाते जाते इस देश में न सिर्फ हिन्दू मुस्लिमों को आपस में बांटा बल्कि नफरत की ऐसी आग लगाईं जो आज तक सुलग ही रही है! असगर वजाहत की यह कहानी नाट्य दृश्याकन में सन 1947 के उस दौर में ले जाती है जहाँ मानवता के उसूलों को निभाती दो विभिन्न धर्म संस्कृतियाँ हैं!

देश विभाजन के बाद लखनऊ का सिकंदर मिर्जा का परिवार लाहौर पाकिस्तान पहुंचता है, वहां उसे हिंदू परिवार (रतन लाल जौहरी) द्वारा खाली की गई एक कोठी अलॉट की जाती है। मिर्जा परिवार कई दिन रिफ्यूजी कैंप में रहने के बाद जब इस कोठी में धमकता है तब परिवार बड़ा खुश हो जाता है उन्हें यह हवेली उनके लखनऊ के आवास से कई बड़ी लगती है! लखनऊ में चिकन कपडे के कारोबारी यह परिवार अभी निचली मंजिल के कमरे देखकर ही आत्मतृप्त हो पाते हैं कि मिर्जा की बेटी तनवीर (तन्नो) ऊपरी मंजिल में जा पहुँचती है जहाँ उसके चिल्लाने की आवाज सुनकर घरवाले चौंक जाते हैं! तनु बताती है कि ऊपरी मंजिल में कोई है। पता चलता है कि परिवार की एक बुढ़िया, जिसे उम्मीद है कि उसका बेटा रतन लाल एक दिन जरूर लौट के आएगा, अभी भी वहां रह रही है जो अपने बेटे का इंतजार कर रही है। उसे अपने लाहोर से बे-इन्तहा प्यार है जिस कारण वह विभाजन हो जाने के बाद भी उस शहर- उस घर को छोड़ने से इंकार कर देती है, जिससे सिकंदर मिर्जा का परिवार परेशान हो जाता है, और वह बुढ़िया को घर से निकालने की योजना बनाने लगते है, लेकिन मिर्जा परिवार जिसके अन्दर विभाजन का ‘तात्कालिक’ जहर भरा हुआ था वह समाप्त होता है उनके अन्दर की ‘स्वभाविक’ मानवता जागती है और वह उस बुढिया को अंगीकार कर लेते हैं धीरे धीरे बुढ़िया मिर्जा परिवार के साथ घुल-मिल जाती है। हालत ये हो जाते हैं कि उस बुढिया की सलाह के बिना सिकंदर मिर्जा के परिवार में कोई काम ही नहीं होता लेकिन समाज के ठेकेदार दलाल यहाँ भला कैसे किसी को शुकून की जिन्दगी जीने देते ! ऐसे में खलनायक की भूमिका में पहलवान व उसके मित्र मिर्जा परिवार को तरह-तरह की प्रताड़ना देना शुरू करते हैं और कहते हैं कि वह हिन्दू काफिर बुढ़िया घर में क्यों है!

वहीं दूसरी ओर तन्नो से अपने लिए दादी सुनकर आत्मविभोर हुई रतन की माँ का आलिंघन तन्नो ही नहीं बल्कि पूरे मिर्जा परिवार की आत्मसात कर देता है! अब रतन की माँ मिर्जा परिवार का अभिन्न अंग बन जाती है! लेकिन वो दिवाली की रौशनी न नहाया मिर्जा परिवार का घर पहलवान व उसके मित्रों में नफरत की आग भड़का देता है और वह घर में आकर मिर्जा के परिवार को धमकी देते हैं! बस यही बात रतन की माँ को चुभ जाती है और वह उस लाहौर को छोड़ने का फैसला कर देती है जो उसके लिए प्राण से प्यारा होता है! शायर नासिर काजमी, चायवाला व अन्य किसी तरह से उसे जब समझा बुझाकर वापस घर लाते हैं तब पूरा परिवार सदमे में आ जाता है! मिर्जा भावुक होकर कहता है कि वह अब अगर दुबारा घर से गयी तो मेरा मरा मुंह देखेगी! रतन की माँ के लिए प्रेम के ये बड़े शब्द किसी प्राणलेवा बाण से साबित होते है वह प्रेम उन्मुक्त होकर देखते ही देखते प्राण त्याग देती है ! घर में कोहराम मच जाता है और तन्नो दादी के यूँ मरने में असहनीय विलाप करती है! यह दृश्य ऐसा था कि पत्थरों के भी आंसू निकल आयें!

अब सवाल यह उठता है कि बुढ़िया जलाया जाए या दफनाया जाए? क्योंकि जहाँ शमशान था वहां बस्ती बसा दी गयी थी! मौलवी को बुलाया जाता है उसकी सलाह होती है कि रतन की माँ ने मुस्लिम धर्म स्वीकार नहीं किया था तो उसे दफनाया न जाय बल्कि दाह संस्कार किया जाय! यहाँ प्रश्न था कि राम नाम सत्य है कौन बोलेगा..वह तो बोलना ही होगा! मौलवी की यह सलाह पहलवान को नागवार लगती है और वह उसका क़त्ल कर देता है! आखिर उसे हिंदू रीति के अनुसार जलाया जाता है। खुद सिकंदर मिर्जा मुखाग्नि देते हैं। नाटक की सबसे बड़ी खूबसूरती यह रही कि नफरत की फैली आग किस तरह दिलों में राज करती है जब दो धर्म जाति एक दूसरे को समझ लेते हैं! यह नाटक यकीनन वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए हिन्दू मुस्लिम एकता का परिचायक बन सकता है! काश….इस नाटक को देखने दोनों जाती समुदाय के लोग बराबरी की भागीदारी निभाने पहुँचते तो यकीनन कई दिलों में सुलगती जाति-धर्म वैमनस्य की आग शांत हो जाती!

यों तो नाटक में सभी पात्रों का अभिनय शानदार रहा लेकिन विशेष रूप से शायर उदारवादी मुस्लिम के रूप में कमल पाठक, सिकंदर मिर्जा के रोल में नवनीत गैरोला, सिकन्दर मिर्जा की बेगम हमीदा बेगम के रूप में मिताली पुनेठा, तनवीर तन्नो के किरदार में आरती शाह, मौलवी के किरदार में भूपेन्द्र तनेजा व रतन ज्वेलरी की माँ बुढिया के परिवेश में कुसुम पन्त,कट्टरपन्थ के रूप में पहलवान के किरदार में राहत खान को लोगों ने विशेष रूप से सराहा। हकलाकर बात रखने वाले रजा के किरदार में सार्थक नेगी ने बड़ी कुशलता से यह कठिन अभिनय निभाया!

यों तो अभिनय के मामले में सभी ने अपना अपना किरदार बखूबी निभाया लेकिन बेगम हिदायत के रूप में प्रीती पटवाल की डायलॉग डिलीवरी कमजोर लगी! बाद में पता चला कि यह उसका पहला डेब्यू था! दृश्य परिवर्तन के दौर में हेमा पंत, सतीश धौलाखंडी, सोनिया गैरोला, संजय गैरोला और अभिमन्यु मेंदोला की आवाज ने जादू बिखेरा। पर्दे के पीछे रहकर नीलम रतूड़ी, मोहित कुमार, सुरेंद्र भंडारी, अमिता आर्य, विजय शर्मा, अजय भटनागर, प्रेम कुमार, केतन प्रकाश, गीता गैरोला और अजय जोशी ने जो मेहनत की वह इस प्रस्तुति को साकार करने में सहायक सिद्ध हुई। इसके अलावा हिमांशु चौहान, राहुल जेवियर, आरती शाह, अभिनव चौहान, अनिल दत्त शर्मा, प्रदीप शर्मा, सार्थक नेगी, वर्णित, प्रशांत सक्सैना और अंकित चौहान ने भी अपने अभिनय के साथ पूरा इन्साफ किया है। सम्भव नाटक मंच के किरदारों व पूरी टीम को शुभकामनाएं!

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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