Sunday, September 8, 2024
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“लाचित बोड़फुकन ” वह योद्धा जिसने औरंगजेब का सम्पूर्ण भारत विजय का सपना कभी पूरा नहीं होने दिया! जो आज भी चमकता है सेना के बेस्ट कैडेट के गोल्ड मैडल पर!

(मनोज इष्टवाल)

मुग़ल काल का सबसे अत्याचारी बादशाह जिसने गलती से बिशाल सेना के साथ असम पर आक्रमण कर दिया था लेकिन इसका खामियाजा उसे ऐसा भुगतना पडा कि दुबारा उसकी कभी हिम्मत नहीं हुई कि पूर्वोत्तर भारत पर वह कब्जा जमाने की सोचे!

फ़ाइल फोटो।

इस योद्धा का सम्पूर्ण नाम था चाउ लासित फुकनलुंग! पूर्वोत्तर के बिशाल साम्राज्य आहोम का एक ऐसा सेनापति जिसने अपने दम पर न सिर्फ मुगलों से गुवाहाटी छीन लिया था बल्कि 1671 में इस सेनापति ने चारों दिशा से हुए मुग़ल आक्रमण में औरंगजेब की बिशाल सेना के दांत खट्टे कर दिए ! वह जिधर जाता उधर ही भगदड़ मच जाती! हजारों मुग़ल सैनिकों ने इस युद्ध में जान गंवाई व बचे खुचे अपनी जान बचाकर भागे!

लाचित सेंग कालुक मोशाय (एक ताई अहोम पुजारी) का चौथा पुत्र था! उनका जन्म सेंग-लांग-मोंग, चराईडो में ताई अहोम के परिवार में हुआ था ! उनका धर्म फुरेलुंग अहोम था!

राष्ट्रीय सुरक्षा अकेडमी अर्थात एनडीए की पासिंग आउट परेड में जब बेस्ट कैडेट को स्वर्ण पदक भेंट किया जाता है तो उसके एक ओर लिखा रहता है “लाचित बोरफुकन” ! यह नाम है या कोई पदक सम्मान यह अक्सर हम समझ नहीं पाते क्योंकि यह नाम भारत बर्ष के ज्यादात्तर लोगों के जेहन में कभी रहा ही नहीं है! सच पूछिए तो यह मेडल मिलने के बाद उस पर वही कैडेट गर्व महसूस कर सकता होगा जिसको इसका इतिहास पता होगा अन्यथा मुझ जैसे जाने कितने भारतीय इस नाम को किसी ब्रिटिश राजा का नाम समझकर इसे गुलामी का प्रतीक घोषित कर दें!

यह गलती हमारी नहीं है बल्कि अब तक कि उस हर सरकार की है जिसने स्वतंत्र भारत में राज किया लेकिन कभी इस नाम का परिचय हमसे नहीं करवाया! मुझे फक्र है उन अंग्रेजों पर व उस ब्रिटिश राज पर जिसने एक योद्धा का सम्मान बरकरार रखने के लिए सर्वोच्च कैडेट सम्मान के गोल्ड मैडल पर एक ऐसे अपराजय योद्धा का नाम अंकित करवाया जिसने घायलावस्था में भी हिंदुत्व व हिन्दू राज्य को कभी मुगलों के आधीन नहीं होने दिया! लेकिन दुर्भाग्य देखिये स्वतंत्र भारत के वामपंथी और मुगल परस्त इतिहासकारों ने इस नाम को हम तक कभी पहुँचने नहीं दिया!

क्या हम जानते हैं कि पूरे उत्तर भारत पर अत्याचार करने वाले मुस्लिम शासक और मुग़ल कभी बंगाल के आगे पूर्वोत्तर भारत पर कब्ज़ा क्यों नहीं कर सके ? नहीं जानते तो आपको बताये देते है कि इसका कारण था वो हिन्दू योद्धा जिसे वामपंथी और मुग़ल परस्त इतिहासकारों ने इतिहास के पन्नों से ही गायब कर दिया है! इस असम के परमवीर योद्धा नाम है “लचित बोरफूकन।”

यह सोलहवीं सदी की बात है जब दिल्ली के तख़्त पर मुगल शासकों का सबसे क्रूर शासक औरंगजेब गद्दी पर बैठा! उस समय पूर्वोत्तर में आसाम के राजा चक्रध्वज सिंघा का अहोम राज्य था! जो सुख समृधि का जीता जागता उदाहरण था! दिल्ली के तख़्त में बैठा औरंगजेब को सिर्फ एक ही बात खाए जाती थी कि वह हिन्दोस्तां की सरजमीं का चक्रवर्ती सम्राट कब कहलायेगा! भले ही वह कभी गढ़वाल राज्य पर विजय प्राप्त नहीं कर पाया था लेकिन उसे वह अपने अधीन समझता था और एक छोटा सा राज्य होने के कारण गढ़वाल राज्य भी उसकी करबंदी की जद में था जिसे जजिया कर से बाहर निकालने वाले गढ़वाल के सेनापति/सलाहकार पुरिया नैथानी का नाम भी बड़े सम्मान से लिया जाता है लेकिन सम्पूर्ण भारत बर्ष में बस एक ही राज्य ऐसा बचा था जिस पर न औरंगजेब के पुरखे विजय हासिल कर पाए थे और न ही औरंगजेब!

जब लाचित बोड़फुकन सेना में भर्ती हुए तब उन्हें अहोम स्वर्गदेव के ध्वजवाहक का पद मिला लेकिन 1667 में मुग़ल सेना से गुवाहटी वापस प्राप्त करने के लिए उन्हें सेना के नेतृत्व की कमान मिली जिसे उन्होंने बखूबी निभाते हुए अपने युद्ध कौशल से मुगलों के दांत खट्टे कर वापस प्राप्त कर लिया! राजा उनकी इस विजय से बेहद प्रसन्न हुए व उन्हें सोने की मूठ वाली हेंगडांग (तलवार) और विशिष्टता का प्रतीक अंगवस्त्र प्रदान किये व उन्हें प्रधान सेनापति पदपर नियुक्ति प्रदान की!

औरंगजेब मुगल सेना की इस हार से बिलबिला गया और चार बर्ष की अवधि काल में ही उसने एक बिशाल सेना को आसाम के अहोम राज्य पर आक्रमण करने के लिए भेजा जिसका नेतृत्व उसका राजपूत सेनापति राजाराम सिंह कर रहा था! राजाराम सिंह औरंगज़ेब के साम्राज्य को विस्तार देने के लिए अपने साथ 4000 महाकौशल लड़ाके, 30000 पैदल सेना, 21 राजपूत सेनापतियों का दल, 18000 तुर्की घुड़सवार सैनिक, 5000 बंदूकची, 2000 धनुषधारी सैनिक, और 40 पानी के जहाजों की विशाल सेना लेकर अहोम (आसाम) पर आक्रमण करने चल पड़ा।

राजाराम सिंह ने जब गौहाटी पर पहलाआक्रमण किया जिसे अहोम राजा के सेनापति लाचित बोड़फुकन ने रोक लिया, यह हमला इतना असहज था कि अहोम राजा को सैन्य तैयारी का मौक़ा नहीं मिला । मुग़ल सेना का ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे रास्ता रोक दिया गया। इस लड़ाई में अहोम राज्य के 10000 सैनिक मारे गए और “लचित बोरफूकन” बुरी तरह जख्मी होने के कारण बीमार पड़ गये। अहोम सेना का बुरी तरह नुकसान हुआ।

यह सब देख राजाराम सिंह ने अहोम के राजा को आत्मसमर्पण ने लिए कहा। जिसको राजा चक्रध्वज ने “आखरी जीवित अहोमी भी मुग़ल सेना से लडेगा” कहकर प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। लचित बोरफुकन जैसे जांबाज सेनापति के घायल और बीमार होने से अहोम सेना मायूस हो गयी थी। अगले दिन ही लचित बोरफुकन ने राजा को कहा- “जब मेरा देश, मेरा राज्य आक्रांताओं द्वारा कब्ज़ा किये जाने के खतरे से जूझ रहा है, जब हमारी संस्कृति, मान और सम्मान खतरे में हैं तो मैं बीमार होकर भी आराम कैसे कर सकता हूँ ?मैं युद्ध भूमि से बीमार और लाचार होकर घर कैसे जा सकता हूँ ? हे राजा युद्ध की आज्ञा दें….!” इसके बाद ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे सरायघाट पर वो ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया, जिसमें “लचित बोरफुकन” ने सीमित संसाधनों के होते हुए भी मुग़ल सेना को रौंद डाला। अनेकों मुग़ल कमांडर मारे गए और मुग़ल सेना भाग खड़ी हुई। जिसका पीछा करके “लचित बोफुकन” की सेना ने मुग़ल सेना को अहोम राज के सीमाओं से काफी दूर खदेड़ दिया। इस युद्ध के बाद कभी मुग़ल सेना की पूर्वोत्तर पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हुई। ये क्षेत्र कभी गुलाम नहीं बना। ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे सरायघाट पर मिली उस ऐतिहासिक विजय के करीब एक साल बाद ( उस युद्ध में अत्यधिक घायल होने और लगातार अस्वस्थ रहने के कारण ) माँ भारती का यह अदभुद लाड़ला सदैव के लिए माँ भारती के आँचल में सो गया! सराईघाट की विजय के लगभग एक वर्ष बाद प्राकृतिक कारणों से लाचित बोड़फुकन की मृत्यु हो गई। उनका मृत शरीर जोरहाट से 16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वारा सन 1672 में निर्मित लचित स्मारक में विश्राम कर रहा है।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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