(मनोज इष्टवाल)
उत्तर प्रदेश के जमाने में यूं तो पौड़ी गढ़वाल के लोगों के बारे में कहावत होती थी कि उनकी गाय बछडे भी पढ़े लिखे होते हैं, लेकिन पौड़ी गढ़वाल के अंदर एक और कहावत जन्म लेती थी बारहस्यूँ के चकडैत (चालाक)। उसी बारहस्यूं में एक पट्टी है कफोलस्यूं जिसकी सरहद पैडुलस्यूं, खातस्यूँ, असवालस्यूं से अपनी सरहद बांटती है जिसकी पौड़ी मुख्यालय से दूरी 16 से 25 किमी. के बीच पड़ती है।
पौड़ी मुख्यालय से पौड़ी-कोटद्वार राष्ट्रीय राजमार्ग पर लगभग 16 किमी की दूरी पर स्थित डांग गांव है, जहां कफोला बिष्ट व रावत लोग रहते हैं। इसी गांव का एक युवा बड़े सपनों के साथ गांव से महानगरों की ओर रुख करता है। पहके उत्तराखंड की राजधानी देहरादून का व फिर दिल्ली का लेकिन शीघ्र ही महानगर की आवोहवा में अपनी प्रतिभा की कद्र न होने व प्राइवेट कंपनियों के शोषण की बानगी देखकर अपने गांव लौट जाता है।
क्या…करे कैसे जिंदगी की शुरुआत करे इसी उहापोह में रहता हैं। बड़ा भाई एयरफोर्स में, पिता जी भी सेना से सेवानिवृत्त और अपने आप स्वयं भी नेटवर्क,हार्ड वर्क, सॉफ्टवेयर इंजीनियर…! भला अब गांव में कैसे गुजर हो। जो अंगुलियां कंप्यूटर-लैपटॉप के कीबोर्ड पर दौड़ती थी उनके बस का भला बंजर खेतों में हल चलाना कैसे सम्भव था। चला वे सॉफ्टवेयर की आदि अंगुलियां व दिमाग पत्थरों की भाषा में कैसे अपना जीवन यापन करे। अगर पहाड़ को पहाड़ के हिसाब से सँवारने के लिए यहां के नेताओं व नौकरशाहों ने पूर्व में पहल की होती तो पौड़ी जैसे जनपद में माइग्रेशन की अंधी दौड़ कैसे मचती। हर कोई अपना झोला चारपाई लेकर यहां से पलायन क्यों करता।
यह छरहरा युवा नाम अनुज बिष्ट…! स्वाभाविक सी बात थी कि अभी शादी भी नहीं हुई, घरवालों को चिंता इस बात की कि घर बैठे बेरोजगार को लड़की कौन देगा? लोग बोलेंगे बाप फौजी रिटायर बड़ा भाई एयरफोर्स में और छोटा पढ़ लिखकर निकज्जु सा घर में…! सचमुच कितनी सोचें एक साथ मन में रही होंगी इस युवा की। ऐसे में वह क्या करे इसकी सलाह लेने के लिए देश के मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के निजी सचिव अपने गांव के ही चाचा अजय बिष्ट के पास पहुंचता है। अजय बिष्ट उन्हें गौर से सुनते हैं और बेहद दृढ़ता के साथ कहते हैं कि हम जब तक खुद में यह काबिलियत नहीं लाते कि हमें नौकरी करने की जगह नौकर बनाने की परंपरा जीवित करनी है तब तक हम कुछ नहीं कर सकते। दर्जन भर काम गिनवाने के बाद उन्होंने अनुज बिष्ट के “वे ऑफ वर्क” को देखते हुए कहा कि हमारे क्षेत्र में पूरी तरह से प्रोफेशनल होकर किसी ने भी मुर्गी फार्म पर काम नहीं किया। तुझ में अगर काबिलियत व रिस्क लेने की क्षमता है तो दो चार लाख रुपये की चिंता मत कर! बिना रिस्क लिए कुछ नहीं है। लेकिन एक बात यह सोच लेना कि बीच में एक दौर ऐसा भी आता है जब अचानक घाटा हो जाय या फिर मन उस काम को छोड़ने का होता है, वह दौर अगर हमने सम्भाल लिया तो फिर किसी ले बाप के वश में नहीं है कि हम मंजिल पाने में असमर्थ रह जाएं।
अनुज बिष्ट का बोझ हल्का हुआ, वह दुगुनी स्फूर्ति के साथ जुटा क्योंकि उसे साबित करना था कि अगर अब नहीं तो कभी नहीं, उसे साबित करना था कि ये पहाड़ उसे मैदानी महानगरों से अच्छा स्वास्थ्य व अच्छा पैसा दे सकते हैं। वह देहरादून में एटीएम की कम्पनी फॉक्स को छोड़कर बोरिया समेटकर वापस गांव लौटा। स्वाभाविक सी बात है गांव व परिवार वालों को यह चिंता हुई होगी कि गांव के अपने रोजगार करने वाले व्यक्ति को भला कौन अपनी लड़की देगा क्योंकि आजकल गांव में हल चलाने वाला कृषक भी चाहता है कि उसका दामाद महानगर में रहने वाला हो ताकि बेटी का भविष्य सुनिश्चित हो लेकिन वह ये नहीं सोचते कि महानगरों में प्राइवेट नौकरी पेशा ज्यादात्तर व्यक्तियों की क्या कुगत्त होती है।
खैर अनुज बिष्ट गांव लौटे, कहाँ से क्या किया जिला उद्योग केंद्र से या फिर अन्य माध्यमों से ऋण लेकर किया या खुद घर से चार लाख खर्च कर पोल्ट्री फार्म खोला। उसे बनाने में कितना पसीना बहाया या नहीं बहाया यह कहना अलग है। कहना यह जरूरी है कि उसने वाइट चिकन (सफेद मुर्गी) के स्थान पर देशी मुर्गियों का पोल्ट्री फार्म खोलना उचित समझा, इसके पीछे अनुज बिष्ट के तर्क यह थे कि यह बचपन से ही गांव के ज्यादात्तर घरों में एक दो देशी मुर्गी पालते देखता आया है। ये मुर्गियां घर के आम चारे पर जीवित रहने वाली मुर्गियां हुई इनके लिए बाहर से गैर आर्गेनिक फीड मंगाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। दूसरा इन्हें रोग जल्दी नहीं लगते इसलिए नुकसान के कम चांस हैं।
अनुज कहते हैं दो चार कॉमन वस्तुओं की जानकारी जुटाने के बाद उसने यह दांव खेला। ऐसा नहीं है कि इस दांव में हर बात शुरुआती दौर में उसके पक्ष में रही होगी लेकिन दृढ़ निश्चय जब कभी डगमगाता तो उसे चाचा यानि अजय बिष्ट के शब्द याद आ जाते व वह उस नाकारा शक्ति को दिल से हटाने के लिए दुगने जोश के साथ फिर जुट जाता।
अनुज बोले- मैंने शुरुआती दौर में 2000 चूजे मंगवाए अभी लगभग 12-13 सौ मुर्गियां उसके पास उपलब्ध हैं। तब से न जाने कितने दौर के चूजे आ गए कितने दौर की मुर्गियां बिक गयी। हजारों की संख्या में देशी अंडे बिक गए। वह हंसते हुए कहने लगे कि उन्हें यह जरूर लगता था कि मैंने गांव में खोला है जहां इसकी मार्केट जुटानी बहुत मुश्किल है क्योंकि जब सफेद मुर्गा दो या तीन सौ में मिल रहा हो तो भला कोई मुझसे 800 से 1200 रुपये में क्यों खरीदेगा! लेकिन मेरी सोच निरर्थक निकली। आज मेरी बड़ी सप्लाई देहरादून, कोटद्वार व पौड़ी जैसे बड़े शहरों में जा रही है। खर्चा काटकर अब लगभग 50 से 60 हजार रुपये महीना आमदनी कमा लेता हूँ। उन्होंने बताया कि अब उन्होंने कड़कनाथ मंगवाए हैं। महंगा सौदा तो है लेकिन आगे बढ़ने के लिए दांव तो खेलना ही पड़ता है। कोरोना के कारण पन्तनगर से अभी सप्लाई नही आ पाई है।
अनुज बिष्ट की शादी हुए अभी साल भर हुआ है, उनकी पत्नी नीडल मशीन से स्वेटर तैयार करती हैं जिसकी सर्दियों में बड़ी डिमांड होती है। अतः वह भी सीजन के हिसाब से घर बैठे 15 से 20 हजार कमा लेती हैं। अब अनुज ने नौकर के रूप में एक पूरा नेपाली परिवार रखा है व उन्हें रहना खाना वेतन इत्यादि दे रहे हैं।
कोरोना महामारी के इस दौर में अनुज जैसे जाने कितने युवा अब गांव लौटने लगे हैं लेकिन क्या उन्हें भी उनके परिवार घर में रहकर अपना रोजगार करने की सलाह देंगे? यह सबसे बड़ा प्रश्न है! क्योंकि पहाड़ में एक कहावत प्रसिद्ध है- “घर का जोगी-जोगना, आण गांव का सिद्ध।”
उम्मीद है हम सब अनुज बिष्ट जैसे युवा के इस अद्भुत कार्य से प्रेरणा लेकर अपनी थाती माटी में ही अपना जम-जमाव कर एक नया इतिहास लिखेंगे। हम नए दौर में मिलकर एक नया इतिहास लिखेंगे। हम माइग्रेशन को माइग्रेन जैसा समझ रिवर्स माइग्रेशन (घर वापसी) कर अपने गांव घर परिवार को सरसब्ज करेंगे। मुझे लगता है जो भी युवा कोरोना महामारी के दौर में महानगरों से यह मन बनाकर लौटा है कि बस अब बहुत हुआ अपने गांव में ही कुछ करना है या फिर जो पोल्ट्री फार्म की सोच रहा है वह अनुज बिष्ट +91 82181 58802 से फ़ोन पर बात कर जरूरी टिप्स ले सकता है।