Thursday, August 21, 2025
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रिखुली – पहाड़ की सोंधी मिट्टी की खुशबुदार फिल्म

(समीक्षक: जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’)

अब उत्तराखंड की फिल्म इंडस्ट्री में स्थानीयता का पुट धीरे – धीरे ही सही, आने लगा है. गढ़वाली बोली भाषा में बनी जोना व रिखुली फिल्में लगभग एक ही दौर में बनी. दोनों फिल्मों का मिजाज एक जैसा ही साफ़ – सुथरा, गांव से जुड़ी कहानियां, सहज व सरल फिल्मांकन, गांव की धरती से जुड़े पात्र, गांव के रीति – रिवाज. बचपन का जीवन, हंसी – खुशी, सुख दुःख. पर रिखुली फिल्म ने अभी तक बनी स्थानीय फिल्मों को और गहराई व गंभीरता से प्रस्तुत किया है. रिखुली फिल्म अब खा क्रिएशन के यू-ट्यूब चैनल पर रिलीज़ कर दी गयी है.

रिखुली का शाब्दिक अर्थ रीछ जैसी गांव की एक बच्ची, जिसका वास्तविक नाम लच्छी है पर गांव के बच्चे, किशोर, बुजुर्ग सब उसको चिढ़ाने के लिए रिखुली कहते है. फिल्म की कहानी सरल, सहज व गांव की मिट्टी व संस्कृति में डूबी हुई है. गांव का दाती (विजय वशिष्ठ) एक गरीब व्यक्ति है. उसकी एक छोटी सी प्यारी बेटी लच्छी (कामिनी) है, जिसकी माँ बचपन में ही गुजर जाती है. बेटी को पालने पोषने के लिए दाती, उसके लिए एक सौतेली माँ रेवती (मीना तिवारी) ले आता है, जो बड़ी जल्लाद किस्म की निकलती है, वह उस लच्छी से बहुत काम करवाती है व हर मौके बेमौके पर गाली गलौज व मार पिटाई भी करती है. उधर हरीश (अनुराग बिष्ट) लच्छी का हम उम्र है जिसके पिताजी गांव के प्रधान हैं. लच्छी व हरीश दो जान एक प्राण है, उनका बचपना एक साथ गुजरता है, और एक दिन हरीश अपने पिताजी के साथ दिल्ली चले जाता है.

हरीश के जाने के बाद से लच्छी के उदासी के दिन शुरू हो जाते है, अपने आप में घुटी-सिमटी लच्छी (अंजली नेगी) अब अपने किशोरवय में प्रवेश कर जाती है. कुछ सालों तक लच्छी अपनी सौतेली माँ के अत्याचार झेलती है, और एक दिन गांव में जाख देवता की पूजा के दौरान, लच्छी घास लेकर लौटते वक़्त पहाड़ी से नीचे गहरी खाई में गिरकर मर जाती है, लच्छी के पिता दाती के पास इतने पैंसे व संसाधन नहीं होते की उस खाई से लच्छी की लांस निकाल सके, वह वहीँ कंकाल बन जाती है. दाती लच्छी का मृत संस्कार नहीं कर पाता है, व गांव वाले भी टाल – मटोल कर देते हैं. दूसरी ओर हरीश (प्रशांत डिमरी) भी जवान हो जाता है.

लगभग 15 साल बाद हरीश अपनी नव विवाहित पत्नी के साथ गांव लौटता है. हरीश की माँ (दीपा बिष्ट) व गांव वाले काफी खुश हो जाते हैं. लेकिन हरीश की पत्नी (संजना लोबियाल) गांव पहुंचते ही बिस्तर पकड़ लेती है, वह बीमार हो जाती है. डॉक्टर को भी बुलाया जाता है, लेकिन वह ठीक नहीं होती, गांव में सुगबुगाहट होने लगती है कि, हरीश की पत्नी पर रिखुली का भूत लग गया है. गांव के लोग बोल रहे थे कि, जब भी गांव में कोई नव विवाहिता आती है तो उस पर रिखुली का भूत लग जाता है. हरीश की माँ देवता के पास जाती है व बिमारी का कारण पूछती है, देवता स्त्री दोष बताता है.

हरीश गांव में जहाँ – जहाँ भी जाता है, सब रिखुली के भूत बनने की ही बात करते है. आखिर एक दिन हरीश रिखुली के पिता दाती से मिलने उनके घर पर जाता है. जो बूढ़े हो चुके हैं व उनको कुष्ट रोग हो जाता है, दाती की दूसरी पत्नी लच्छी के मरने के बाद किसी के साथ भाग जाती है. गांव के लोग हो दाती को खाना – पानी देते है. अचानक हरीश के पहुँचने पर वह जोर से चिल्लाता है, मुझसे दूर रहो, वह हरीश को पहचान नहीं पाता, जब हरीश अपना परिचय देता है तो दाती फफ़क कर रो पड़ता है, उसको हरीश व लच्छी के बचपन व दोस्ती की याद आ जाती है. फिर दाती हरीश को लच्छी की दुखभरी दास्तान सुनाता है, कैसे लच्छी….लच्छी से रिखुली भूत बन जाती है.

हरीश जब लच्छी की यह दास्तान सुनता है तो वह बहुत उदास हो जाता है, आखिर वह रिखुली की आत्मा को शांति प्रदान करने के उपाय शुरू कर देता है. क्या हरीश ऐसा कर पाता है? इसके लिए रिखुली देखनी पड़ेगी. ये तो फिल्म की आधी कहानी है, फिल्म आपको पचास साल पीछे ले जायेगी, जब गांवों में जाख देवता नाचते थे, जब गांव में भूतों को शांत करने के लिए घंडियाला लगाया जाता था, ग्वरील नचाया जाता था, पश्वा अपनी शक्ति प्रदर्शित करते थे, झुमेलो, छोलिया, मुखोटा, व भोटिया पौणा नृत्य होता था, घसेरी जंगलों में सामूहिक गीत गाते थे, व चरवाहा बांसुरी की धुन में मग्न रहता था, खेतों में रोपाई के बाद की भूख, पेट्रोमेक्स की रौशनी में बारातियों का स्वागत, ढोल – दमाऊ, भंकोरे, थाली, हुड़के की गमक से रिखुली फिल्म गुंजायमान है. रिखुली उत्तराखंड की एक जीवंत फिल्म है, जो दर्शकों को कनेक्ट करती है. रिखुली एक एंथ्रोपोलोजिकल फिल्म है.

फिल्म की कास्टिंग ऐसी है, जैसी होनी चाहिये, बिलकुल प्राकृतिक अभिनय, कोई ख़ास मेकअप नहीं, कोई तड़क भड़क नहीं, प्रत्येक कलाकार स्वाभाविक रूप से गांव की सोंधी मिट्टी में लिपटे हुए से. फिल्म में स्वाभाविक व जरुरत के अनुसार गीत व संगीत है. तकनीकी रूप से फिल्म अच्छी बनी है, फिल्म के हर डिपार्टमेंट (कैमरा, संपादन, संगीत, प्रोडक्शन डिज़ाइनर, साउंड, कास्ट, कोसट्यूम, मेकअप, आर्ट, लोकेसन आदि) ने अपना काम बखूबी निभाया है.

एक ही बात जो मुझे खली, वह यह कि, फिल्म के फ्रेम बड़े लम्बे – लम्बे हैं जो फिल्म को बोझिल बना दे रहे हैं. इन्हीं बड़े फ्रेमों के छोटे – छोटे कट बनाए जाते तो फिल्म की भब्यता कुछ और ही होती. खैर सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि, अब रिखुली जैसी फिल्मों ने बम्बइया ताम झाम पर विश्वास करने वाली सोच को बदलने का काम किया है. इसी की जरुरत उत्तराखंड फिल्म इंडस्ट्री को थी. फिल्म के निर्माता, लेखक व निर्देशक जगत किशोर गैरोला जी को बहुत – बहुत बधाई. फिल्म का निर्माण गैरोला एंटरप्राइज प्रोडक्शन के तहत किया गया है.

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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