(मनोज इष्टवाल)
ये हम पहाड़ियों का दुर्भाग्य कहिये या वक्त की नजाकत। जाने क्यों हमारी कुछ बेटियां इस तरह के कदम उठाकर समाज में सिर्फ अपना ही नहीं बल्कि पूरे पहाड़ी समाज अपने घर परिवार व उन सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों को आये दिन तार-तार करने में तुली हैं जो हमें ईश्वर की ओर से नेमत में मिली हैं।
शायद कहीं न कहीं हमारी परवरिश में चूक हो रही है कि आये दिन बेटियां ऐसे आत्मघाती कदम उठा रही हैं। या फिर ये कहिये हमारे लाड़-प्यार में कहीं ऐसा अभाव आ गया है जो हम बिना संकोच यह सब देख सुन रहे हैं।
देहरादून की इन दो बेटियों की दो दिन के अंतराल में ये मौतें साबित करती हैं कि इस लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष देश में हम सिर्फ तमाशा देखने के लिए ही पैदा हुए हैं। देहरादून के रायपुर क्षेत्र की रहने वाली सोनिया को बिजनौर के जावेद ने प्रेम जाल में फँसाया और 26 मई को जावेद सोनिया को भगाकर नजीबाबाद ले गया। सुबह नजीबाबाद पुलिस ने रायपुर पुलिस को सूचित किया कि सोनिया ने फाँसी लगा आत्महत्या कर ली। पोस्ट मार्टम के बाद शव देहरादून लाया जाएगा। अब सुनने में आ रहा है कि इसका केश नजीबाबाद में ही चलेगा।
नियति का खेल देखिए बेटी जिन माँ बाप ने खोई उन्हें इंसाफ के लिए देहरादून की जगह उत्तर प्रदेश की अदालतों के चक्कर काटने पड़ेंगे। आज माँ बाप रिश्तेदार सब सोनिया के लिए बिलख रहे हैं। काश…माँ बाप ने पूर्व में सोनिया के युवावस्था में प्रवेश व मानसिक बदलाव पर पहले ध्यान दिया होता। माँ तो बेटी की हर दशा दिशा मानसिक व शारिरिक बदलाव को भले से भांप सकती हैं फिर भी हम आये दिन लव जिहाद में अपनी बेटियों को योंही कुर्बान कर रहे हैं।
दूसरा उदाहरण दो दिन पूर्व विकास नगर की पूजा टम्टा की भी इसी प्रकार उसके पति सलमान ने हत्या कर दी थी जिसकी पोस्ट मार्टम रिपोर्ट अभी तक नही आई है।
तीन दिन में ही दो हिन्दू युवतियों की एक जैसी परिस्थितयो में मौत या कहूँ की हत्या अपने आप में बहुत कुछ बयां करती है।
अब यह समझ नहींं कि लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता का झंडा बरदार तब कहाँ गायब हो जाते हैं जब बात अक्सर हिंदुओं की बेटियों की होती है।
क्या तब हमें बेटियां नहीं दिखती या फिर इन्हें पता है कि हिन्दू धर्म के ठेकेदार सोये हुए समाज के अग्रणी हैं जिन्हें इस बात से कोई लेना देना नहीं कि आज देश के आंगन में हो क्या रहा है। बेटी हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई कोई भी हो बेटी बेटी होती है फिर ये दोहरे मापदंड क्यों! और जब कोई इनकी रक्षा के लिए आगे आता है फिर अल्पसंख्यकों के लिए ही कानून के रक्षक क्यों! क्या बहुसंख्यक सब यहां राजनीतिक मोहरें हैं। प्रश्न आकर वहीं खड़ा हो गया कि रमज़ान के पावन महीने में हम फौज को जम्मू कश्मीर में शांत रखते हैं वहीं दुश्मन गोलियां बरसाता है। बेटियां जावेद व सलमान जैसे दरिंदों के भेंट आये दिन चढ़ रही हैं क्या इनके धर्म में ये रमजान के पावन पर्व से जुड़े नहीं हैं।
सवालात बहुत हैं और जवाब आकर हम पर ही ठहरते हैं कि हम बेटियों के लिए ऐसी क्या कमी छोड़ रहे हैं जिन्हें लोक लाज मान सम्मान की जरा सी भी गुरेज नहीं और आये दिन वो ऐसे आत्मघाती कदम उठा रही हैं। मुझे लगता हैं कि यह शायद सामाजिक नहीं बल्कि हमारे नैतिक संस्कारों की कमी है जो हम अपनी बेटियों को देने में असफल रहे हैं।