Saturday, March 15, 2025
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यक्ष प्रश्न..! मानव बलियों के इतिहास को संजोकर आगे बढ़ी माँ देवी बाराही मुखाग्नि क्या अब सिर्फ नारियल बलि से शांत हो पाएगी…?

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 5 सितम्बर 2015)

(विगत एक हफ्ते की थकान मिटाने के बाद यह सोच ही रहा था कि देहरादून से चम्पावत जिले के देवीधुरा तक का सैकड़ों मील का सफर करने के पश्चात् भी अगर मैं स्टोरी एंगल वही रखूं तो मेरा वहां पहुंचकर बग्वाली मेला (रक्षा बंधन पर होने वाला सुप्रसिद्ध देवीधुरा का पाषाण युद्ध) देखना निरर्थक है! विगत माह 28 अगस्त की सुबह ही तो मैं हल्द्वानी ट्रेन से उतरने के बाद टैक्सी से हल्द्वानी-भीमताल-धानाचूली-पहाड़पानी-शहरफाटक-बेडचुला होकर कटना गाँव की अपनी छात्रा अनीता-पुष्पा के घर पहुंचा था! सडक के एक मोड़ से सीधे अनीता के घर नजर क्या पड़ी उसके बाबू दौड़े-दौड़े मुझे लेने सडक पहुँच गए! ये कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय खनस्यु जिला -नैनीताल की छात्राएं हुई और बर्षों से कहे जा रही थी कि सर देवीधुरा मेले के लिए आना प्लीज..! दिक्कत हमेशा यह रही कि यह मेला रक्षा बंधन के रोज पड़ता है ऐसे में जरा निकलना मुश्किल काम होता है! बहनों की उम्मीदें व प्यार का पूरे साल इसी दिन तो इन्तजार रहता है! इस बर्ष 29 अगस्त को रक्षा बंधन है तो सोचा इस माँ का रक्षा बंधन माँ बाराही को ही समर्पित)!

आखिर 29 अगस्त की अलसुबह से ही हम मेले की तैयारी में लग गए! यहाँ से कार ली व बलका होते हुए कटना से 15 किमी. दूर स्थित देवीधुरा जा पहुंचे! जहाँ विधान सभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल व मुख्यमंत्री हरीश रावत के आने के कारण जगह-जगह पुलिस बल तैनात था!

देवीधुरा का बग्वाली पाषाण मेला!

आप कहेंगे कि बाराही मेला तो विगत 29 सितम्बर का था, जो ख़त्म हो चुका है आज इतने समय बाद (5 सितम्बर 2015) इस लेख औचित्य क्या रह गया! तो सच कहूँ संस्कृतिकर्मी व समाजसेविका श्रीमती हंसा अमोला ने अभी कुछ दिन पूर्व ही मुझे सन्देश भेजकर याद दिलाया कि आप मेरे क्षेत्र में माँ बाराही के मेले में शामिल हुए थे लेकिन आपने एक शब्द भी उन पर नहीं लिखा! अब मजबूरी हो गयी कि मैं अपने इस शोध को इस सोशल साईट पर सार्वजनिक कर रहा हूँ जोकि अभी तक बहुत कम लोग जानते हैं!

देवीधुरा में आयोजित होने वाला पाषाण मेले का स्वरुप बदलने के सरकार के सारे प्रयास उस समय फेल होते दिखे जब पुष्प बर्षा और फलों की बर्षा के स्थान पर प्रदेश सरकार के मुखिया हरीश रावत के सामने चारों खामों के वीरों में जमकर पत्थर चले और दर्जनों लहुलुहान हुए!

चार खाम यानि चार दिशाओं से विभिन्न गॉवों से जुटने वाले रणबांकुरे..! जिन्हें माँ बाराही के लिए एक मानव के खून के बराबर खून बहाना होता है! अपनी आदमकद रिंगाल बांस से निर्मित ढालों (जिन्हें स्थानीय भाषा में फर्रे कहते हैं) से अपना बचाव कर पत्थर बरसाते अपना लहू ख़ुशी- ख़ुशी बहाते देखा जा सकता है! सच कहूँ तो जब यह खाम बारी-बारी से माँ बाराही के मंदिर की परिक्रमा करने आते हैं तो इन वीरों के मस्तक-पटल और आँखों में शहीदी वाला जूनून साफ़ दिखाई देता है इनके सिर पर बंधे लाल-पीले कपडे ऐसे लगते हैं जैसे ये स्वयं कफ़न बांधकर आये हों!

मेले में उमड़ी भीड़ का दृश्य

लमगडिया खाम जिसे हम पहला खाम कह सकते हैं उसका नेतृत्व वर्तमान में कोटला गॉव के मुखिया लक्ष्मण सिंह लमगडिया करते हैं जिसमें वारी-कटना, कोटला, सूनी सहित कई अन्य छोटे बड़े गॉव पड़ते हैं. वहीँ दूसरा खाम गडवाल खाम जिसे गहरवाल खाम भी कहा जाता है का नेतृत्व कटयोली गॉव के रिटायर सूबेदार करते हैं व इस खाम में कत्योली, फलाराकोट, सेल्टा-चापड़ इत्यादि गॉव पड़ते हैं! वहीँ तीसरी खाम को वल्का खाम कहा जाता है जिसका मुखिया बद्री सिंह ओलका हैं व इस खाम के गॉव भेटी, ड्यारखोली,डेंसिली,कांडा इत्यादि हैं!
चौथा व अंतिम खाम चम्याल खाम कहलाता है जिसके मुखिया त्रिलोक सिंह चम्याल ग्राम धरोंजा के नेतृत्व में कनवाड़, पखोटी, खलगाड़ा, धरोंजा इत्यादि गॉव मेले में शामिल होते हैं!

चारों खामों के मुखिया परिक्रमा करने के पश्चात माँ बाराही के मैदान में युद्ध सम्बन्धी रणनीति तय करते हैं तत्पश्चात युद्ध प्रारम्भ होता है! विगत बर्ष पुष्प बर्षा व फल बर्षा के बाद पत्थर बरसे थे, व कई घायल भी हुए! लोगों को लग रहा था कि इस बार प्रदेश के मुखिया होंगे तो शायद पत्थर नहीं चलेंगे, लेकिन यह क्या ..इस बार तो और ज्यादा पत्थर चले और कई लहुलुहान होकर घायल भी हुए! मैंने मुख्यमंत्री हरीश रावत व विधान सभा अध्यक्ष गोबिंद सिंह कुंजवाल से जब प्रश्न पूछा कि क्या पत्थर युद्ध संभव है तो उनकी मौन स्वीकृति के साथ लगभग एक सा जवाब था कोशिश तो यह होनी चाहिए कि यह रुके लेकिन जन आस्था है, वह सर्वमान्य होगी!

कटना निवासी त्रिलोक राम से प्राप्त जानकारी में उन्होंने बताया कि नरबली लेने वाली माँ बाराही से एक महिला ने अपने पुत्र की प्राण रक्षा के लिए अष्टबलि देने की बात कही जिसमें आठ बलियां शामिल की जाती हैं जबकि चारों खामों ने यह तय किया कि वे एक मानव बलि के बराबर रक्त चढ़ाएंगे! तब से अष्टबलि के रूप में यहाँ बकरे, कटड़ा (भैंस) नारियल इत्यादि बलियां दी जाती थी जिस पर पाबंदी लगा दी गयी है! सरकार की ऐसी पाबंदी पर आम जनता में नाराजगी दिखने को मिली! लोगों का कहना है कि अन्य जाति धर्मों की मान्यताओं पर इस हिन्दू राष्ट्र के नेता हाथ नहीं डालते सिर्फ हिन्दुओं के ही धर्म संस्कारों पर ऐसी राजनीति क्यों..? इसका जवाब सचमुच मेरे पास भी नहीं कि ऐसा क्यों…?

आदमकद ढाल से अपनी रक्षा करने वाले ये चार खाम के वीर उन्नत ढाल बनाने के लिए देवगुरु के जंगल (वृहस्पति मन्दिर) से हर साल रिंगाल लाया जाता है जिससे ढाल का निर्माण किया जाता है जबकि ढाल की गोलाई के लिए टिटमल्या की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है!

बाराही देवी में सबसे पहले तेल वहां की सबसे पुरानी दुकान का जाता है! अनरपा गॉव की निवासी श्हंरीमती हंसा अमोला बताती हैं कि माँ बराही का दिया जलाने के लिए सबसे पहले देवीधुरा की सबसे पुरानी दुकान हेम चंद गुर्रानी के यहाँ से तेल जाता है!

माँ बाराही का मेला शुरू होने से तीन दिन पूर्व से ही पहले लोग प्याज लहसुन खाना छोड़ देते थे! माँ का रूप कैसा है? यह आजतक कोई नहीं देख पाया! कहते हैं माँ नग्न अवस्था में है! पुजारी भी माँ को वस्त्र आभूषण पहनाते समय आँखों में पट्टी बांधकर उनका श्रृंगार करते हैं! जन मान्पूयता है कि पूर्व में पुजारियों के ही किसी वंशज ने खुली आँखों से माँ को वस्त्र पहनाने का दुस्साहस किया था जिससे क्रोधित हो माँ ने उसकी आँखों की रौशनी छीन ली! कहा जाता है कि मेला समाप्त होते ही जहाँ अन्य जाति वर्ण के लोग प्याज लहसुन का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन ढोली व बाड़ी जाति के लोग पूरे एक हफ्ते यानि जन्माष्टमी तक प्याज लहसुन का सेवन नहीं करते!

बग्वाल मेले के रूप में प्रसिद्ध देवीधुरा का माँ बाराही मेला पाषाण युद्ध (पत्थर युद्ध) के रूप में प्रसिद्ध है! पत्थर युद्ध समाप्त होते ही सभी सोचते हैं कि मेला समाप्त हो गया है लेकिन उसके अगले दिन कटना गॉव के बाड़ी माँ का डोला उठाकर मचवाल ले जाते हैं जहाँ एड़ी देवता के मंदिर में किमार गॉव के जोशी पंडित माँ की विधिवत पूजा करते हैं, तत्पश्चात ढोली गॉव चंतोला के ढोली गाजे बाजों के साथ बाड़ी जाति की अगुवाई कर डोला वापस माँ बाराही के मंदिर में लाते हैं!
डोला बाड़ी ही क्यूँ लाते हैं इसमें स्थानीय लोगों का कहना है कि जिस काल में मानव बलि होती थी उस काल में कटना गॉव के बाड़ी जाति के लोगों ने डोला छीन लिया इस संघर्ष में कई बाड़ी मारे गए लेकिन तब भी उन्होंने डोला नहीं छोड़ा और देवीधुरा से माँ का डोला बाड़ी कटना गाँव ले आये तब से यह अधिकार उन्हें दिया गया है!

वर्तमान में भले ही सरकार प्रयास कर रही है कि पाषाण युद्ध की जगह फल-पुष्प युद्ध में इसे तब्दील किया जाय लेकिन स्थानीय लोगों का मानना है कि ऐसे में माँ बाराही का प्रकोप उन्हें झेलना पड़ सकता है, साथ ही मेले का धार्मिक स्वरुप बदल जाने से लोगों की आस्था में भी अंतर आ सकता है जबकि इस पाषाण युद्ध में कई लोग उस काल में शहीद भी हुए हैं जब शिक्षा प्रयाप्त नहीं थी व ताकत की जोरअजमाइश होती थी! वर्तमान में भी ऐसे कई प्रकरण हैं जिनमें कई लोग इसी युद्ध में विकलांग हो गए जिनमें प्रमुखत: सूनी गॉव के राम सिंह, कटना के खुशहाल सिंह लमगडिया,कोटला गॉव के पूर्व प्रधान जगत सिंह लमगडिया इत्यादि शामिल हैं!

कांग्रेसी नेता राम सिंह कैडा घायलावस्था में!

इस बार इस मेले में 9 मिनट तक पाषाण युद्ध हुआ! मात्र तीन मिनट तक ही पुष्प-फल बर्षा हुई जबकि 6 मिनट तक तबाडतोड़ पत्थरबाजी हुई जिसमें दर्जनों घायलों में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता राम सिंह कैडा भी शामिल हैं! जिन्हें घटनास्थल पर ही पहले फर्स्ट ऐड दिया गया व बाद में उन्हें उपचार के लिए हल्द्वानी भेजने की खबर आई!

माँ का श्राप झेल रहा लमगडिया खाम आज भी उस श्राप से मुक्त नही हो पाया जिसे माँ ने दिया है! कहा जाता है कि लमगडिया हर बार पाषाण युद्ध में जीत हासिल करते थे जिसका उन्हें अहम हो गया व लमगडिया युवाओं ने अपने अहम् में छोटा बड़ा सब भुला दिया था! कहते हैं लमगडिया खाम के दर्जनों लोग मेले से पूर्व ही तराई में हैजे के प्रकोप से मारे गए मात्र एक व्यक्ति बचा जिसने ठान लिया कि वह अकेला मेले में जाकर क्या करेगा लेकिन माँ ने उसे कहा कि तुझे आना ही होगा, तू खडा रहेगा तो तेरे पीछे खाम के बूढ़े बुजुर्ग सब खड़े होंगे लेकिन अहम मत करना तुम्हारी ही विजय होगी! तब से यह क्रम निरंतर चलता आ रहा है लेकिन यह भी सत्य है कि जिस लमगडिया को अपने आप पर अभिमान हो जाता है वाह ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रहता!

कुमाऊं में एक कहावत प्रचलित है:-

लमगडियों में न होंन ज्वान,
क्वीरा में न होंन बांद,
धुलई में न हूँन धान…!

कहा तो यह भी जाता है कि ये तीनों ही मातृशक्ति द्वारा दिए गए श्राप हैं! जब सत की बात आती है तो उत्तराखंड देवभूमि में ऐसे ही कई मुहावरे आपको सुनने को मिल जायेंगे जो अकाट्य सत्य हैं! कुमाउनी में प्रचलित इस कहावत की तह तक पहुँचने के लिए मुझे पूरे दो बर्ष इन्तजार करना पड़ा!
लमगड़ियों में न होंन ज्वांन यानि लमगड़ियों में कोई जवान न हो उसके पीछे की जो कहानी प्रचलित है वह यह है कि इन्हें माँ बाराही (पाषाण देवी) देवीधुरा ने श्राप दिया था, जिसके फलस्वरूप आज भी लमगडिया खाम के जिस किसी को भी अपनी ताकत पर अपनी जवानी पर गुरुर होने लगता है वह जीवित नहीं रहता ऐसी धारणा आज भी बलबती होती दिखाई देती है!

कहते हैं कि चार खामों में बंटे देवीधुरा के माँ बाराही के भक्त पाषाण युद्ध कर एक मानव बलि के बराबर खूब अर्पित करते हैं! मानव बलि से प्रसन्न होने वाली माँ बाराही बली न ले इसके लिए इसके उपासकों ने नया तरीका इजाद किया और यहाँ देवीधुरा में चार खामों में बंटकर पाषाण युद्ध (पत्थर युद्ध) से इसका निबटारा किया! कहा जाता है कि लमगडिया जाति के लोग ज्यादा बलशाली थे इसलिए इन्होने बिना माँ बाराही की आज्ञा के बिना मेले में कई निर्दोष लोगों को मार दिया या मरवा दिया! ऐसी किंवदंती लगभग सौ साल पूर्व प्रचलित थी!

माँ कुपित हुई और भावर में रोजी-रोटी की तलाश में गए लगभग लमगडिया खाम के 80 लोगों में हैजा उपजाकर उन्हें मार डाला और जो कोई बचा था उसे कहा- जा तू हर युद्ध में विजयी होकर लौटेगा, लेकिन जो भी तेरा वंशज अपने बल पर अभिमान करेगा उसके लिए मेरा श्राप है कि वह अपनी जवानी नहीं काट पायेगा! आज भी लमगडिया इस बात को मानते हैं!

क्वीरा में न होंन बांद यानि क्वीरा गॉव में कोई स्त्री खूबसूरत न हो..! यह श्राप वहां की किसी खूबसूरत बेटी ने अपने वंशजों को इसलिए दिया था कि जिससे उसका प्रेम था उसे सबने मिलकर तडपा-तडपाकर मार डाला था ऐसा लोग कहते हैं और इसी कारण उस बेटी ने आत्मदाह करते हुए सारे गॉव को यह श्राप दे डाला!

धुलई में न हूँन धान…! यानि धुलई गॉव में धान न हों के पीछे यह कहा जाता है कि कोई भिक्षुक इस साधन सम्पन्न गॉव में धान या चावल मांगने आया था लेकिन सबने दुत्कार दिया और उसके श्राप से इस गॉव में आजतक धान की फसल नहीं होती!
देवीधुरा में माँ बाराही मंदिर की पूजा गोटना व टकना गॉव के पुजारियों द्वारा की जाती है! माँ देवीधुरा सबका कल्याण करे!

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